राजा के सहयोग से धर्मशाला का निर्माण : जलाराम बापा के सेवा कार्यों से आम जनता ही नहीं बल्कि राजा महाराजा भी बेहद प्रभावित थे. वीरपुर गाँव के नामदार ठाकोर मूलराज सिंह द्वितीय उस समय गद्दी नशीन थे. जलाराम बापा के प्रति उनमें अत्यंत आदर भाव था. जलाराम बापा को वे वीरपुर का अनमोल रतन मानते थे. सदाव्रत-अन्नदान अभियान के कारण जलाराम बापा के साथ ही वीरपुर गाँव की भी प्रतिष्ठा बढ़ गई थी. इसलिए मूलराज सिंह को गर्व होना स्वाभाविक था. वे आये दिन जलाराम बापा के घर सेवा कार्य के लिए कुछ न कुछ भेंट भिजवा देते थे. बाहर से आने वाले अनुयायियों, साधुजनों, महात्माओं और भिक्षुओं की लगातार बढ़ती संख्या की जानकारी उन तक पहुँच चुकी थी. उन सबके लिए रात में विश्राम की कोई कारगर सुविधा नहीं थी, इसलिए मूलराज सिंह ने जलाराम बापा को धर्मशाला के लिए आवश्यक भूमि दान स्वरुप देने का मन बना लिया. इसके लिए जलाराम बापा की स्वीकृति जरूरी थी.
एक दिन मूलराज सिंह बगैर सूचना दिए जलाराम बापा के यहाँ पहुँच गए. उस वक़्त जरूरतमंदों को भोजन परोसा
जा रहा था.जलाराम बापा की निःस्वार्थ सेवा और लगन देखकर वे बेहद खुश हुए. जब जलाराम बापा सेवा कार्य से
निवृत्त हुए तब मूलराज सिंह ने उन्हें अपनी मंशा जाहिर की. स्वयं जलाराम बापा भी कई दिनों से सुविधा संपन्न
रहवासा रूपी एक धर्मशाला की आवश्यकता महसूस कर रहे थे. इसके लिए जमीन और धन की जरूरत थी. इन दोनों समस्याओं का निदान आज स्वतः हो गया था. जलाराम बापा तत्काल सहमत हो गए. फिर अपने वचन के अनुसार मूलराज सिंह ने जलाराम बापा को धर्मशाला बनवाने के लिए पर्याप्त जमीन और धन दान बतौर दे दिया.
वहीं दूसरी ओर गोंडल के राजा ने भी जलाराम बापा के सेवा कार्य से प्रभावित होकर धर्मशाला के लिए जमीन दान में दी. इस तरह अल्प अवधि में ही धर्मशाला का निर्माण हो गया. रात रूकने की समस्या का समाधान हो जाने से
आगंतुक अनुयायी, साधुजन, महात्मा भी गदगद हो गए. इस माकूल व्यवस्था के सन्दर्भ में जलाराम बापा लोगों से यही कहते- "प्रभु सबकी सुख सुविधा का ध्यान रखते हैं".
जलाराम बापा के निरंतर सदाव्रत-अन्नदान और उनके नाम से होने वाले चमत्कार की जानकारी ध्रांगध्रा के राजा और जूनागढ़ के नवाब तक भी पहुँची. उनको भी प्रसन्नता हुई. उन्होंने अपने राज क्षेत्र में भी सदाव्रत-अन्नदान शुरू कराने के लिए जलाराम बापा को सन्देश भिजवाया. लेकिन जलाराम बापा ने इस आग्रह को विनम्रता से ठुकरा दिया. उन्होंने जवाब भिजवाया- "मैं वीरपुर गाँव में रहकर ही सदाव्रत-अन्नदान भविष्य में भी जारी रखना चाहता हूँ, इसे अधूरा छोड़कर मैं नहीं आ सकता. आप लोग अपने स्तर पर यह सेवा कार्य स्वय करें". राजा और
नवाब जलाराम बापा की अस्वीकृति से नाराज नहीं हुए, बल्कि उनके प्रति आदर भाव अधिक बढ़ गया.
इधर, जलाराम बापा की सेवा से प्रसन्न होकर स्वयं अन्न देवता भी मानों उन पर मेहरबान थे. भोजन करने वाले अथितियों की संख्या जब बढ़ जाती थी, तब कई लोगों को आशंका होती आज निश्चित ही रसोई कम पड़ेगी. लेकिन
आश्चर्यजनक ढंग से सब लोग भर पेट खाकर पंगत से उठते. दरअसल, जलाराम बापा प्रतिदिन भोजन परोसे जाने से पहले रसोई घर में जाकर प्रभु श्रीराम की छवि के आगे दीपक जलाते, फिर भोजन सामग्री के ऊपर तुलसी के पत्ते छिड़क कर प्रभु की प्रार्थना करते. तत्पश्चात स्मित मुस्कान के साथ सेवकों से कहते- "अब आप लोग बिना चिंता किये प्रेम से खाना परोसिये, प्रभु सबका पेट भरेंगे". और वाकई ऐसा होता भी. कितनी भी भीड़ क्यों न हो, जलाराम बापा के घर कोई भी आगंतुक बिना खाए वापस नहीं जाता.अब तो लोग कहने भी लगे थे- "बापा के रसोई घर में साक्षात अन्न देवता निवास करते हैं". ( जारी .... ) .
एक दिन मूलराज सिंह बगैर सूचना दिए जलाराम बापा के यहाँ पहुँच गए. उस वक़्त जरूरतमंदों को भोजन परोसा
जा रहा था.जलाराम बापा की निःस्वार्थ सेवा और लगन देखकर वे बेहद खुश हुए. जब जलाराम बापा सेवा कार्य से
निवृत्त हुए तब मूलराज सिंह ने उन्हें अपनी मंशा जाहिर की. स्वयं जलाराम बापा भी कई दिनों से सुविधा संपन्न
रहवासा रूपी एक धर्मशाला की आवश्यकता महसूस कर रहे थे. इसके लिए जमीन और धन की जरूरत थी. इन दोनों समस्याओं का निदान आज स्वतः हो गया था. जलाराम बापा तत्काल सहमत हो गए. फिर अपने वचन के अनुसार मूलराज सिंह ने जलाराम बापा को धर्मशाला बनवाने के लिए पर्याप्त जमीन और धन दान बतौर दे दिया.
वहीं दूसरी ओर गोंडल के राजा ने भी जलाराम बापा के सेवा कार्य से प्रभावित होकर धर्मशाला के लिए जमीन दान में दी. इस तरह अल्प अवधि में ही धर्मशाला का निर्माण हो गया. रात रूकने की समस्या का समाधान हो जाने से
आगंतुक अनुयायी, साधुजन, महात्मा भी गदगद हो गए. इस माकूल व्यवस्था के सन्दर्भ में जलाराम बापा लोगों से यही कहते- "प्रभु सबकी सुख सुविधा का ध्यान रखते हैं".
जलाराम बापा के निरंतर सदाव्रत-अन्नदान और उनके नाम से होने वाले चमत्कार की जानकारी ध्रांगध्रा के राजा और जूनागढ़ के नवाब तक भी पहुँची. उनको भी प्रसन्नता हुई. उन्होंने अपने राज क्षेत्र में भी सदाव्रत-अन्नदान शुरू कराने के लिए जलाराम बापा को सन्देश भिजवाया. लेकिन जलाराम बापा ने इस आग्रह को विनम्रता से ठुकरा दिया. उन्होंने जवाब भिजवाया- "मैं वीरपुर गाँव में रहकर ही सदाव्रत-अन्नदान भविष्य में भी जारी रखना चाहता हूँ, इसे अधूरा छोड़कर मैं नहीं आ सकता. आप लोग अपने स्तर पर यह सेवा कार्य स्वय करें". राजा और
नवाब जलाराम बापा की अस्वीकृति से नाराज नहीं हुए, बल्कि उनके प्रति आदर भाव अधिक बढ़ गया.
इधर, जलाराम बापा की सेवा से प्रसन्न होकर स्वयं अन्न देवता भी मानों उन पर मेहरबान थे. भोजन करने वाले अथितियों की संख्या जब बढ़ जाती थी, तब कई लोगों को आशंका होती आज निश्चित ही रसोई कम पड़ेगी. लेकिन
आश्चर्यजनक ढंग से सब लोग भर पेट खाकर पंगत से उठते. दरअसल, जलाराम बापा प्रतिदिन भोजन परोसे जाने से पहले रसोई घर में जाकर प्रभु श्रीराम की छवि के आगे दीपक जलाते, फिर भोजन सामग्री के ऊपर तुलसी के पत्ते छिड़क कर प्रभु की प्रार्थना करते. तत्पश्चात स्मित मुस्कान के साथ सेवकों से कहते- "अब आप लोग बिना चिंता किये प्रेम से खाना परोसिये, प्रभु सबका पेट भरेंगे". और वाकई ऐसा होता भी. कितनी भी भीड़ क्यों न हो, जलाराम बापा के घर कोई भी आगंतुक बिना खाए वापस नहीं जाता.अब तो लोग कहने भी लगे थे- "बापा के रसोई घर में साक्षात अन्न देवता निवास करते हैं". ( जारी .... ) .