जलाराम बापा का स्वर्गवास : जलाराम बापा के सेवा का चक्र निर्बाध गति से चल रहा था. उधर, समय का पहिया भी अपनी निर्धारित गति से घूम रहा था. सदाव्रत-अन्नदान जैसे पुण्य सेवा कार्य को शुरू किये साठ साल पूरे हो चुके थे. फिर भी जलाराम बापा का सेवा के प्रति उत्साह, लगन और समर्पण भाव यथावत था. बढ़ती उम्र इसमें बिलकुल बाधक नहीं थी. युवाओं की मानिंद उनमें जोश बरकरार था. किसी की भी मदद कहीं भी जाकर करनी हो तो वे सदैव तैयार रहते थे. सेवा के लिए "नहीं" बोलना उनके शब्दकोष में शामिल न था. सेवा और प्रभु भक्ति के सम्मिश्रित जीवन में जलाराम बापा ने अब तक अस्सी वसंत देख लिए थे. हर मौसम इनके सेवा कार्यों में सहभागी था. जलाराम बापा ने अपना पूरा जीवन दीनदुखियों की सेवा और प्रभु श्रीराम की भक्ति
को समर्पित कर दिया था. वृद्धावस्था की सामान्य बीमारियों को वे सेवा कार्यों के नाम पर नजरअंदाज कर दिया करते थे. किन्तु वैशाख माह इनकी शारीरिक व्याधि को प्रतिकूल दिशा में मोड़ने का आधार बना. जलाराम बापा को बवासीर का रोग परेशान करने लगा. तमाम उपचार के बाद भी स्वास्थ्य लगातार बिगड़ते जा रहा था. साल भर तक यह रोग उन्हें पीड़ा पहुंचाते रहा. जलाराम बापा इस रोग के उत्पन्न होने और दर्द भोगने के निहित अर्थ और उसके मूल कारण को भलीभांति समझ रहे थे. विधि के विधान से वे अच्छी तरह परिचित थे. जीवन और मृत्यु के तयशुदा क्रम से वे अवगत थे. इसलिए अपने रोग की पीड़ा को भी वे प्रभु की लीला का ही एक हिस्सा मानते थे. पृथ्वी पर जो भी जन्मा है, उसे एक न एक दिन तय वक़्त में मरना ही है, इस सत्य को वे बखूबी जानते थे. उनकी रोगग्रस्त दशा और पीड़ा को देख कर सभी अनुयायी दुखी थे. रोग के कारण जलाराम बापा का शरीर निरंतर कमजोर होते जा रहा था. शरीर में ताकत ख़त्म हो रही थी. उन्हें तो इसके अंतिम परिणाम का भी अंदाज था, लेकिन अनुयायियों के लिए उनका ज्यादा बीमार होना सदमा पहुंचाने वाला था. शारीरिक रूप से अशक्त जलाराम बापा को रोग ने आख़िरकार एक दिन बिस्तर का साथी बनने को विवश कर दिया.
जलाराम बापा की असाध्य बीमारी की खबर आसपास के गाँव में तेजी से फ़ैल चुकी थी. फिर पूरे सौराष्ट्र में श्रद्धालुओं को जानकारी मिल गई. जलाराम बापा के दर्शन करने और उनका हालचाल जानने के लिए लोगों का रोज तांता लगने लगा. सभी दिशाओं से अनुयायी वीरपुर गाँव आने लगे. जलाराम बापा के घर के बाहर प्रतिदिन दर्शनार्थियों की लम्बी कतार लगने लगी. जलाराम बापा बिस्तर पर होने के बावजूद आगंतुक सभी श्रद्धालुओं से बात कर उन्हें अपना आशीर्वाद देते. जब श्रद्धालु रोने लगते तो वे अपनी अस्वस्थता को प्रभु की सद इच्छा निरूपित करते, जीवन के असली सत्य और गति को परिभाषित करते. यहीं नहीं बल्कि उन्होंने अपने यहाँ के सदाव्रत-अन्नदान सेवा कार्य को दुगने उत्साह के साथ जारी रखने का निर्देश सेवकों को दिया था.
एक रोज जेतपुर से अनुयायी भीमजी भाई मेहता अपनी पुत्री के विवाह की निमंत्रण-पत्रिका देने जलाराम बापा के घर आये. वे जलाराम बापा के युवाकाल से ही भक्त थे. वे पहले कई साल तक वीरपुर में रह कर जलाराम बापा के सेवा कार्यों का जिम्मा सम्हाल चुके थे. जब भीमजी भाई ने जलाराम बापा को बेहद अशक्त अवस्था में बिस्तर पर देखा तो उनकी आँखों से आंसू बहने लगे. जलाराम बापा ने धीमे स्वर में उनसे कहा- "आइये भीमजी भाई, सब कुशल मंगल है न". उन्होंने रोते हुए कहा- "बापा, मैं तो आपकी कृपा से ठीक हूँ, किन्तु आपको यह क्या हो गया?
अब कैसी है आपकी तबियत. आपका बीमार होना हम सब भक्तों को देखा नहीं जा रहा है, आप स्वस्थ रहेंगे तो हम भक्तजन भी तंदुरूस्त रहेंगे". जलाराम बापा ने उन्हें जीवन-दर्शन समझाते हुए कहा- "भीमजी भाई, यह देह तो नश्वर है. सबको एक न एक दिन इस मायावी संसार से सदा के लिए विदा होना है. कोई पहले जाएगा, कोई बाद में, किन्तु सभी का जाना तय है. यह काया प्रभु ने दी है, उसे समाप्त करने का अधिकार भी प्रभु को ही है. हम सब तो एक कठपुतली मात्र हैं. जीवन की डोर प्रभु के हाथ में ही है. इसलिए इस नश्वर काया को लेकर शोक संतप्त और दुखी होना व्यर्थ है". भीमजी भाई रूआंसे होकर बोले- "बापा, हम सब भक्तों की प्रभु से प्रार्थना है वे आपको शीघ्र स्वस्थ कर दें, मैं अपनी पुत्री के विवाह का आमंत्रण देने आपके पास आया हूँ, बेटी को आपका आशीर्वाद मिलेगा तो उसका वैवाहिक जीवन धन्य हो जाएगा".जलाराम बापा बोले- "भीमजी भाई, तुम मेरी हालत देख तो रहे हो. मेरा अशक्त शरीर विवाह में आने की स्थिति में नहीं है. किन्तु मेरा आशीर्वाद तुम्हारी पुत्री के साथ अवश्य रहेगा, विवाह का मंगल प्रसंग हर्षोल्लास के साथ संपन्न होगा, प्रभु से यह मेरी प्रार्थना है. मेरा अब अंतिम समय आ गया है. उत्तरायण के सूर्योदय के पश्चात यह देह साथ छोड़ देगी, ऐसा मुझे आभास हो रहा है". जलाराम बापा का कथन सुन कर भीमजी भाई समेत वहां मौजूद सभी अनुयायियों की आँखे नम हो गई. सबको अच्छे से मालूम था जलाराम बापा की वाणी की सत्यता के सम्बन्ध में. इसलिए सबके ह्रदय की धड़कने तेज हो गई. दुःख से सबका मन भरी हो गया. फिर जैसे ही भीमजी भाई ने हाथ जोड़ कर कुछ बोलना चाहा तो जलाराम बापा ने उन्हें इशारे से रोका और कहा- "भीमजी भाई, मैं समझ रहा हूँ आप क्या कहना चाह रहे हैं. यह सत्य है अभी हरिराम बच्चा है, किन्तु मेरे प्रभु हरिराम के सदैव सहायक रहेंगे. आप चिंता न करे, सदाव्रत-अन्नदान सेवा कार्य मेरे न रहने के बाद भी चलता रहेगा. हरिराम और आप सब सेवकों पर मुझे पूरा भरोसा है सेवा के इस पवित्र यज्ञ को जारी रखोगे".
महा वदी दसमी, बुधवार का दिन था. प्रतिदिन की तरह जलाराम बापा के घर-आँगन में भजन-कीर्तन चल रहा था. राम धुन चरम स्थिति पर थी. जलाराम बापा भी बिस्तर पर ही लेटकर, आँखें बंद कर अपने प्रभु श्रीराम का जाप कर रहे थे. इसी अवस्था में कुछ क्षण पश्चात जलाराम बापा अपनी नश्वर देह को सदा के लिए त्याग कर प्रभु मिलन के लिए स्वर्ग सिधार गए. श्रद्धालुओं में शोक की लहर छा गई. अनुयायियों की आँखों से आंसू थम नहीं रहे थे. कई अनुयायी जलाराम बापा के बैकुंठ धाम चले जाने पर गम बर्दाश्त नहीं कर सके, वे वहीं मूर्छित हो गए. पूरा वीरपुर गाँव अश्रुपूरित नेत्रों के साथ अंतिम दर्शन के लिए उमड़ पडा. आसपास के इलाके में भी यह शोक समाचार वायु वेग से फ़ैल गया. जलाराम बापा को श्रद्धांजलि देने अनुयायियों का तांता लग गया. सब अपने आपको अनाथ महसूस कर रहे थे. ( जारी )
को समर्पित कर दिया था. वृद्धावस्था की सामान्य बीमारियों को वे सेवा कार्यों के नाम पर नजरअंदाज कर दिया करते थे. किन्तु वैशाख माह इनकी शारीरिक व्याधि को प्रतिकूल दिशा में मोड़ने का आधार बना. जलाराम बापा को बवासीर का रोग परेशान करने लगा. तमाम उपचार के बाद भी स्वास्थ्य लगातार बिगड़ते जा रहा था. साल भर तक यह रोग उन्हें पीड़ा पहुंचाते रहा. जलाराम बापा इस रोग के उत्पन्न होने और दर्द भोगने के निहित अर्थ और उसके मूल कारण को भलीभांति समझ रहे थे. विधि के विधान से वे अच्छी तरह परिचित थे. जीवन और मृत्यु के तयशुदा क्रम से वे अवगत थे. इसलिए अपने रोग की पीड़ा को भी वे प्रभु की लीला का ही एक हिस्सा मानते थे. पृथ्वी पर जो भी जन्मा है, उसे एक न एक दिन तय वक़्त में मरना ही है, इस सत्य को वे बखूबी जानते थे. उनकी रोगग्रस्त दशा और पीड़ा को देख कर सभी अनुयायी दुखी थे. रोग के कारण जलाराम बापा का शरीर निरंतर कमजोर होते जा रहा था. शरीर में ताकत ख़त्म हो रही थी. उन्हें तो इसके अंतिम परिणाम का भी अंदाज था, लेकिन अनुयायियों के लिए उनका ज्यादा बीमार होना सदमा पहुंचाने वाला था. शारीरिक रूप से अशक्त जलाराम बापा को रोग ने आख़िरकार एक दिन बिस्तर का साथी बनने को विवश कर दिया.
जलाराम बापा की असाध्य बीमारी की खबर आसपास के गाँव में तेजी से फ़ैल चुकी थी. फिर पूरे सौराष्ट्र में श्रद्धालुओं को जानकारी मिल गई. जलाराम बापा के दर्शन करने और उनका हालचाल जानने के लिए लोगों का रोज तांता लगने लगा. सभी दिशाओं से अनुयायी वीरपुर गाँव आने लगे. जलाराम बापा के घर के बाहर प्रतिदिन दर्शनार्थियों की लम्बी कतार लगने लगी. जलाराम बापा बिस्तर पर होने के बावजूद आगंतुक सभी श्रद्धालुओं से बात कर उन्हें अपना आशीर्वाद देते. जब श्रद्धालु रोने लगते तो वे अपनी अस्वस्थता को प्रभु की सद इच्छा निरूपित करते, जीवन के असली सत्य और गति को परिभाषित करते. यहीं नहीं बल्कि उन्होंने अपने यहाँ के सदाव्रत-अन्नदान सेवा कार्य को दुगने उत्साह के साथ जारी रखने का निर्देश सेवकों को दिया था.
एक रोज जेतपुर से अनुयायी भीमजी भाई मेहता अपनी पुत्री के विवाह की निमंत्रण-पत्रिका देने जलाराम बापा के घर आये. वे जलाराम बापा के युवाकाल से ही भक्त थे. वे पहले कई साल तक वीरपुर में रह कर जलाराम बापा के सेवा कार्यों का जिम्मा सम्हाल चुके थे. जब भीमजी भाई ने जलाराम बापा को बेहद अशक्त अवस्था में बिस्तर पर देखा तो उनकी आँखों से आंसू बहने लगे. जलाराम बापा ने धीमे स्वर में उनसे कहा- "आइये भीमजी भाई, सब कुशल मंगल है न". उन्होंने रोते हुए कहा- "बापा, मैं तो आपकी कृपा से ठीक हूँ, किन्तु आपको यह क्या हो गया?
अब कैसी है आपकी तबियत. आपका बीमार होना हम सब भक्तों को देखा नहीं जा रहा है, आप स्वस्थ रहेंगे तो हम भक्तजन भी तंदुरूस्त रहेंगे". जलाराम बापा ने उन्हें जीवन-दर्शन समझाते हुए कहा- "भीमजी भाई, यह देह तो नश्वर है. सबको एक न एक दिन इस मायावी संसार से सदा के लिए विदा होना है. कोई पहले जाएगा, कोई बाद में, किन्तु सभी का जाना तय है. यह काया प्रभु ने दी है, उसे समाप्त करने का अधिकार भी प्रभु को ही है. हम सब तो एक कठपुतली मात्र हैं. जीवन की डोर प्रभु के हाथ में ही है. इसलिए इस नश्वर काया को लेकर शोक संतप्त और दुखी होना व्यर्थ है". भीमजी भाई रूआंसे होकर बोले- "बापा, हम सब भक्तों की प्रभु से प्रार्थना है वे आपको शीघ्र स्वस्थ कर दें, मैं अपनी पुत्री के विवाह का आमंत्रण देने आपके पास आया हूँ, बेटी को आपका आशीर्वाद मिलेगा तो उसका वैवाहिक जीवन धन्य हो जाएगा".जलाराम बापा बोले- "भीमजी भाई, तुम मेरी हालत देख तो रहे हो. मेरा अशक्त शरीर विवाह में आने की स्थिति में नहीं है. किन्तु मेरा आशीर्वाद तुम्हारी पुत्री के साथ अवश्य रहेगा, विवाह का मंगल प्रसंग हर्षोल्लास के साथ संपन्न होगा, प्रभु से यह मेरी प्रार्थना है. मेरा अब अंतिम समय आ गया है. उत्तरायण के सूर्योदय के पश्चात यह देह साथ छोड़ देगी, ऐसा मुझे आभास हो रहा है". जलाराम बापा का कथन सुन कर भीमजी भाई समेत वहां मौजूद सभी अनुयायियों की आँखे नम हो गई. सबको अच्छे से मालूम था जलाराम बापा की वाणी की सत्यता के सम्बन्ध में. इसलिए सबके ह्रदय की धड़कने तेज हो गई. दुःख से सबका मन भरी हो गया. फिर जैसे ही भीमजी भाई ने हाथ जोड़ कर कुछ बोलना चाहा तो जलाराम बापा ने उन्हें इशारे से रोका और कहा- "भीमजी भाई, मैं समझ रहा हूँ आप क्या कहना चाह रहे हैं. यह सत्य है अभी हरिराम बच्चा है, किन्तु मेरे प्रभु हरिराम के सदैव सहायक रहेंगे. आप चिंता न करे, सदाव्रत-अन्नदान सेवा कार्य मेरे न रहने के बाद भी चलता रहेगा. हरिराम और आप सब सेवकों पर मुझे पूरा भरोसा है सेवा के इस पवित्र यज्ञ को जारी रखोगे".
महा वदी दसमी, बुधवार का दिन था. प्रतिदिन की तरह जलाराम बापा के घर-आँगन में भजन-कीर्तन चल रहा था. राम धुन चरम स्थिति पर थी. जलाराम बापा भी बिस्तर पर ही लेटकर, आँखें बंद कर अपने प्रभु श्रीराम का जाप कर रहे थे. इसी अवस्था में कुछ क्षण पश्चात जलाराम बापा अपनी नश्वर देह को सदा के लिए त्याग कर प्रभु मिलन के लिए स्वर्ग सिधार गए. श्रद्धालुओं में शोक की लहर छा गई. अनुयायियों की आँखों से आंसू थम नहीं रहे थे. कई अनुयायी जलाराम बापा के बैकुंठ धाम चले जाने पर गम बर्दाश्त नहीं कर सके, वे वहीं मूर्छित हो गए. पूरा वीरपुर गाँव अश्रुपूरित नेत्रों के साथ अंतिम दर्शन के लिए उमड़ पडा. आसपास के इलाके में भी यह शोक समाचार वायु वेग से फ़ैल गया. जलाराम बापा को श्रद्धांजलि देने अनुयायियों का तांता लग गया. सब अपने आपको अनाथ महसूस कर रहे थे. ( जारी )
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