सदाव्रत-अन्नदान जारी रखने के लिए पत्नी के गहने बेचे : जलाराम द्वारा शुरू किये गए सदाव्रत-अन्नदान की प्रसिद्धि वीरपुर गाँव के अतिरिक्त दूर दराज के गाँव में भी फ़ैल चुकी थी. इसके कारण जलाराम के यहाँ साधुजनों, महात्माओं, गुजरने वाले तीर्थ यात्रियों और भिक्षुकों की आमद लगातार बढ़ते जा रही थी. वीरपुर गाँव के किसान नेता काना रैयानी के प्रचार स्वरुप यद्दपि किसान साथी नियमित तौर पर जलाराम के घर सदाव्रत-अन्नदान के लिए अपने अपने हिस्से का अनाज पहुंचा रहे थे. इसके बावजूद जलाराम के घर आगंतुकों की बढ़ती संख्या के फलीभूत अनाज कम पड़ने लगा. कोई अथिति अगर भोजन काल के अंतिम समय पंगत में बैठ गया और रसोई घर में केवल पति पत्नी के जितना खाना बचा हो ,तो ऐसी प्रतिकूल स्थिति में भी बिना विचलित हुए जलाराम और वीर बाई खुद भूखे रह कर उस अथिति को अपने भाग का भोजन परोस देते थे.
एक दिन ऐसा भी आ गया, जिसकी आशंका पति पत्नी को थी. जलाराम के घर अन्न भंडार में अनाज का एक दाना भी नहीं बचा. यह अभावग्रस्त स्थिति देख कर पतिव्रता वीरबाई घबराई और दुखी भी हुई. उसकी आँखों से आंसू छलक गए. इस समस्या के निदान हेतु वह सोच में डूब गई. फिर एकाएक मन में कुछ विचार आते ही उसकी आँखों में चमक लौट आयी. क्षण भर बाद पत्नी वीरबाई ने अपनी पेटी में से कुछ निकाला और उसे एक पोटली में बाँध दिया. फिर जलाराम के पास जाकर पहले उनके चरण स्पर्श किये, तत्पश्चात उनके चरणों में वह पोटली रख दी.
जलाराम चौंके. उन्होंने आश्चर्यभाव से पूछा- "अरे, इस पोटली में क्या है?" वीरबाई ने हाथ जोड़कर जवाब दिया- "नाथ, इसमे मेरे मायके द्वारा दिए गए थोड़े स्वर्ण आभूषण हैं. आप इसे ले लीजिये. इसका सही उपयोग हो जाएगा".
जलाराम ने पीछे हटते हुए कहा- "अरे नहीं नहीं, यह कैसी बात कर रही हो. मैं इसे लेकर क्या करूंगा?. स्वर्ण आभूषणों के प्रति मेरा कोई आकर्षण और आसक्ति नहीं है. प्रभु भक्ति ही मेरे लिए आभूषण स्वरुप हैं". वीरबाई ने अपनी बात का खुलासा करते हुए कहा- "नाथ, इन स्वर्ण आभूषणों से मुझे भी कोई मोह नहीं है. चूंकि मायके से उपहार स्वरुप यह मिले हैं, आड़े समय काम आयेंगे, यह सोचकर मैंने इसे सम्हाल कर रखे हैं. आज वह सुअवसर आ गया है, अब इसका पुण्य कार्य में सदुपयोग हो सकेगा". जलाराम ने जिज्ञासावश पूछा- "कैसा सुअवसर? मैं समझा नहीं".वीरबाई ने बात स्पष्ट करते हुए आगे कहा- "नाथ, अन्न भण्डार में सदाव्रत के लिए अनाज का एक दाना भी नहीं बचा है,अब यदि कोई भूखा अतिथि घर आ गया तो उसे क्या खिलाएंगे?, इसलिए मेरा निवेदन है आप यह स्वर्ण आभूषण सोनार को बेच कर पंसारी से आवश्यकता अनुसार अनाज खरीद कर ले आइये". यह सुनकर जलाराम थोड़ी देर सोच में डूब गए. साधुओं, महात्माओं, दीनदुखियों और भूखेजनों में उन्हें अपने प्रभु श्रीराम नजर आते थे. उनके लिए शुरू किये गए सदाव्रत-अन्नदान की खातिर वे अपनी जान भी देने को तैयार थे, इसके सामने पत्नी वीरबाई के स्वर्ण आभूषण तो तुच्छ वस्तु थी. फिर जलाराम ने सहर्ष वह पोटली उठाते हुए वीरबाई से कहा- "जैसी प्रभु की इच्छा. तूने मेरी लाज रख ली. मैं धन्य हो गया".इतना कहकर जलाराम वह पोटली लेकर सोनार की दुकान जाने लगे.
ठीक उसी समय साधुओं की एक मंडली घर आते दिखी. उनके आँगन में आते ही जलाराम ने कहा- "बाबा जी, आप लोग यहाँ थोड़ी देर विश्राम कीजिये, मैं बाजार से सामान लेकर आता हूँ, फिर आप लोग भोजन ग्रहण कीजिएगा". मंडली के एक बुजुर्ग साधुजन ने खुश होते हुए कहा- "ठीक है बच्चा, शीघ्र आवों. हमें बहूत दूर जाना है". जलाराम ने जाते जाते वीरबाई से कहा- "सुनो, पहले बाबा जी लोगों को ठंडा पानी पिलाओं, फिर इनके विश्राम का प्रबंध करो".
इतना कहकर जलाराम तेजी से सोनार की दुकान की तरफ चल पड़े.
जलाराम प्रभु श्रीराम का नाम जपते हुए सोनार की दुकान पहुंचे. किसी वस्तु का मोलभाव करना उन्हें आता न था.
इसलिए सोनार से बिना कोई भूमिका के दो टूक कहा- "सेठ जी, इसका जो मूल्य होता हो, दे दीजिये".गाँव के स्वर्णकार जलाराम की लोकप्रियता से अनभिज्ञ न थे. फलस्वरूप उस सोनार ने आदर से कहा- "भगत, बैठ कर थोड़ी सांस ले लो, इतनी जल्दी क्या है?". जलाराम ने जवाब दिया- "सेठ जी, घर में मेहमान आये हुए है, वे भूखे बैठे होंगे, इसके बदले जो भी धन होता हो, कृपया शीघ्र दे दीजिये". सोनार ने जलाराम की जल्दबाजी देख कर वह पोटली खोली. फिर उसने जलाराम से हाथ जोड़ कर कहा- "भगत, यह तो आपकी पत्नी के गहने लगते हैं. इन गहनों को खरीदकर मैं पाप का भागीदार नहीं बनना चाहता. आपको धन की आवश्यकता हो तो मुझसे ऐसे ही ले जाओ".जलाराम ने दृढ़ता से कहा- "नहीं,आभूषणों को रखे बगैर धन मैं नहीं ले सकता. उधार लेने की भी मेरी आदत नहीं है. कृपया आप मेरी विनती स्वीकार कीजिये. मेहमान मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे". अब सोनार आगे कुछ बोलने की स्थिति में न था.वह निरूत्तर सा हो गया. वह मन ही मन बुदबुदाया-"यह तो इश्वर का सच्चा भक्त है, घर के गहने बेच कर भूखे लोगों का पेट भर रहा है, वाह रे प्रभु की लीला". जलाराम दृढ प्रतिज्ञ भक्त हैं, वे मानेंगे नहीं, सोनार यह समझ गया. उसने चुपचाप जलाराम को उन स्वर्ण आभूषणों के वास्तविक मूल्य में कोई कटौती किये बिना पूरा धन देकर आदर से विदा किया.जलाराम ने भी नम्रता से सोनार का आभार जताया.
इसके बाद जलाराम बिना देर किये सीधे पंसारी की दुकान पहुंचे. जल्दी से जरूरत का सामान खरीदा और उसे कंधे पर रख कर घर की तरफ चल पड़े. उधर,पत्नी वीरबाई व्याकुल होकर पति जलाराम की राह देख रहीं थीं.जैसे ही जलाराम ने घर में दस्तक दी, वीरबाई उन्हें देख कर प्रसन्न हो गयीं.जलाराम से सामान लेकर उसे अन्न भंडार में रखा. फिर रसोई बनाने में जुट गयीं. देर न हो, इसलिए खुद जलाराम भी रसोई में पत्नी की मदद करने लगे. संकोच करते हुए वीरबाई ने कहा- "नाथ, यह आप क्या कर रहे हैं?, मैं खाना जल्दी बना लूंगी, आप चिंता न करें". जलाराम ने मुस्कुराते हुए कहा- "कभी तो मुझे भी सेवा का अवसर दिया करो, अकेले कितना काम करोगी? और फिर अथिति भी तो बेचारे भूखे बैठे हैं, उन्हें शीघ्र भोजन भी तो कराना है".कुछ देर बाद रसोई तैयार हो गयी. तत्काल जलाराम ने ससम्मान साधुजनों को पंगत में बैठा कर प्रेम से भोजन कराया. भोजन कराने के बाद साधुजनों से जलाराम ने हाथ जोड़ कर कहा- "बाबा जी, भोजन के लिए आपको अधिक प्रतीक्षा करनी पडी, इसके लिए मैं क्षमा चाहता हूँ". बुजुर्ग साधुजन ने खुश होकर कहा- "बच्चा, क्षमा की बात क्यों करता है?, हम लोग तो तेरी सेवा से प्रसन्न हैं. कल्याण हो तेरा बच्चा". आशीर्वाद देते हुए साधुजन विदा हुए. ( जारी .... )
एक दिन ऐसा भी आ गया, जिसकी आशंका पति पत्नी को थी. जलाराम के घर अन्न भंडार में अनाज का एक दाना भी नहीं बचा. यह अभावग्रस्त स्थिति देख कर पतिव्रता वीरबाई घबराई और दुखी भी हुई. उसकी आँखों से आंसू छलक गए. इस समस्या के निदान हेतु वह सोच में डूब गई. फिर एकाएक मन में कुछ विचार आते ही उसकी आँखों में चमक लौट आयी. क्षण भर बाद पत्नी वीरबाई ने अपनी पेटी में से कुछ निकाला और उसे एक पोटली में बाँध दिया. फिर जलाराम के पास जाकर पहले उनके चरण स्पर्श किये, तत्पश्चात उनके चरणों में वह पोटली रख दी.
जलाराम चौंके. उन्होंने आश्चर्यभाव से पूछा- "अरे, इस पोटली में क्या है?" वीरबाई ने हाथ जोड़कर जवाब दिया- "नाथ, इसमे मेरे मायके द्वारा दिए गए थोड़े स्वर्ण आभूषण हैं. आप इसे ले लीजिये. इसका सही उपयोग हो जाएगा".
जलाराम ने पीछे हटते हुए कहा- "अरे नहीं नहीं, यह कैसी बात कर रही हो. मैं इसे लेकर क्या करूंगा?. स्वर्ण आभूषणों के प्रति मेरा कोई आकर्षण और आसक्ति नहीं है. प्रभु भक्ति ही मेरे लिए आभूषण स्वरुप हैं". वीरबाई ने अपनी बात का खुलासा करते हुए कहा- "नाथ, इन स्वर्ण आभूषणों से मुझे भी कोई मोह नहीं है. चूंकि मायके से उपहार स्वरुप यह मिले हैं, आड़े समय काम आयेंगे, यह सोचकर मैंने इसे सम्हाल कर रखे हैं. आज वह सुअवसर आ गया है, अब इसका पुण्य कार्य में सदुपयोग हो सकेगा". जलाराम ने जिज्ञासावश पूछा- "कैसा सुअवसर? मैं समझा नहीं".वीरबाई ने बात स्पष्ट करते हुए आगे कहा- "नाथ, अन्न भण्डार में सदाव्रत के लिए अनाज का एक दाना भी नहीं बचा है,अब यदि कोई भूखा अतिथि घर आ गया तो उसे क्या खिलाएंगे?, इसलिए मेरा निवेदन है आप यह स्वर्ण आभूषण सोनार को बेच कर पंसारी से आवश्यकता अनुसार अनाज खरीद कर ले आइये". यह सुनकर जलाराम थोड़ी देर सोच में डूब गए. साधुओं, महात्माओं, दीनदुखियों और भूखेजनों में उन्हें अपने प्रभु श्रीराम नजर आते थे. उनके लिए शुरू किये गए सदाव्रत-अन्नदान की खातिर वे अपनी जान भी देने को तैयार थे, इसके सामने पत्नी वीरबाई के स्वर्ण आभूषण तो तुच्छ वस्तु थी. फिर जलाराम ने सहर्ष वह पोटली उठाते हुए वीरबाई से कहा- "जैसी प्रभु की इच्छा. तूने मेरी लाज रख ली. मैं धन्य हो गया".इतना कहकर जलाराम वह पोटली लेकर सोनार की दुकान जाने लगे.
ठीक उसी समय साधुओं की एक मंडली घर आते दिखी. उनके आँगन में आते ही जलाराम ने कहा- "बाबा जी, आप लोग यहाँ थोड़ी देर विश्राम कीजिये, मैं बाजार से सामान लेकर आता हूँ, फिर आप लोग भोजन ग्रहण कीजिएगा". मंडली के एक बुजुर्ग साधुजन ने खुश होते हुए कहा- "ठीक है बच्चा, शीघ्र आवों. हमें बहूत दूर जाना है". जलाराम ने जाते जाते वीरबाई से कहा- "सुनो, पहले बाबा जी लोगों को ठंडा पानी पिलाओं, फिर इनके विश्राम का प्रबंध करो".
इतना कहकर जलाराम तेजी से सोनार की दुकान की तरफ चल पड़े.
जलाराम प्रभु श्रीराम का नाम जपते हुए सोनार की दुकान पहुंचे. किसी वस्तु का मोलभाव करना उन्हें आता न था.
इसलिए सोनार से बिना कोई भूमिका के दो टूक कहा- "सेठ जी, इसका जो मूल्य होता हो, दे दीजिये".गाँव के स्वर्णकार जलाराम की लोकप्रियता से अनभिज्ञ न थे. फलस्वरूप उस सोनार ने आदर से कहा- "भगत, बैठ कर थोड़ी सांस ले लो, इतनी जल्दी क्या है?". जलाराम ने जवाब दिया- "सेठ जी, घर में मेहमान आये हुए है, वे भूखे बैठे होंगे, इसके बदले जो भी धन होता हो, कृपया शीघ्र दे दीजिये". सोनार ने जलाराम की जल्दबाजी देख कर वह पोटली खोली. फिर उसने जलाराम से हाथ जोड़ कर कहा- "भगत, यह तो आपकी पत्नी के गहने लगते हैं. इन गहनों को खरीदकर मैं पाप का भागीदार नहीं बनना चाहता. आपको धन की आवश्यकता हो तो मुझसे ऐसे ही ले जाओ".जलाराम ने दृढ़ता से कहा- "नहीं,आभूषणों को रखे बगैर धन मैं नहीं ले सकता. उधार लेने की भी मेरी आदत नहीं है. कृपया आप मेरी विनती स्वीकार कीजिये. मेहमान मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे". अब सोनार आगे कुछ बोलने की स्थिति में न था.वह निरूत्तर सा हो गया. वह मन ही मन बुदबुदाया-"यह तो इश्वर का सच्चा भक्त है, घर के गहने बेच कर भूखे लोगों का पेट भर रहा है, वाह रे प्रभु की लीला". जलाराम दृढ प्रतिज्ञ भक्त हैं, वे मानेंगे नहीं, सोनार यह समझ गया. उसने चुपचाप जलाराम को उन स्वर्ण आभूषणों के वास्तविक मूल्य में कोई कटौती किये बिना पूरा धन देकर आदर से विदा किया.जलाराम ने भी नम्रता से सोनार का आभार जताया.
इसके बाद जलाराम बिना देर किये सीधे पंसारी की दुकान पहुंचे. जल्दी से जरूरत का सामान खरीदा और उसे कंधे पर रख कर घर की तरफ चल पड़े. उधर,पत्नी वीरबाई व्याकुल होकर पति जलाराम की राह देख रहीं थीं.जैसे ही जलाराम ने घर में दस्तक दी, वीरबाई उन्हें देख कर प्रसन्न हो गयीं.जलाराम से सामान लेकर उसे अन्न भंडार में रखा. फिर रसोई बनाने में जुट गयीं. देर न हो, इसलिए खुद जलाराम भी रसोई में पत्नी की मदद करने लगे. संकोच करते हुए वीरबाई ने कहा- "नाथ, यह आप क्या कर रहे हैं?, मैं खाना जल्दी बना लूंगी, आप चिंता न करें". जलाराम ने मुस्कुराते हुए कहा- "कभी तो मुझे भी सेवा का अवसर दिया करो, अकेले कितना काम करोगी? और फिर अथिति भी तो बेचारे भूखे बैठे हैं, उन्हें शीघ्र भोजन भी तो कराना है".कुछ देर बाद रसोई तैयार हो गयी. तत्काल जलाराम ने ससम्मान साधुजनों को पंगत में बैठा कर प्रेम से भोजन कराया. भोजन कराने के बाद साधुजनों से जलाराम ने हाथ जोड़ कर कहा- "बाबा जी, भोजन के लिए आपको अधिक प्रतीक्षा करनी पडी, इसके लिए मैं क्षमा चाहता हूँ". बुजुर्ग साधुजन ने खुश होकर कहा- "बच्चा, क्षमा की बात क्यों करता है?, हम लोग तो तेरी सेवा से प्रसन्न हैं. कल्याण हो तेरा बच्चा". आशीर्वाद देते हुए साधुजन विदा हुए. ( जारी .... )
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