गुरुवार, 24 नवंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 10 )

हनुमान जी की प्रतिमा घर में स्वयं प्रकट होने पर मंदिर बनवाया : सदाव्रत-अन्नदान के पुण्य कार्य के लिए किसानों द्वारा अनाज उपलब्ध कराये जाने के बाद जलाराम ने उनके आग्रह का सम्मान करते हुए खेत जाना बंद कर दिया.अब सपत्निक उन्हें खेत में मजदूरी करने से छुटकारा मिल गया था. प्रभु भक्ति और सेवा कार्य के लिए अब उन्हें अधिक वक़्त मिलने लगा.किसानों का सहयोग मिलने से उन पर कोई आर्थिक बोझ भी नहीं आ रहा था.जब भी अतिरिक्त समय मिलता तो जलाराम गाँव घूमकर गरीब रोगियों का पता लगाकर उनकी सेवा करते. उपचार में यथाशक्ति सहायता करते और प्रभु श्री राम का स्मरण कर उस रोगी के जल्द स्वस्थ होने की कामना करते. रोगीजन स्वयं भी जलाराम के पैर छूकर उनसे आशीर्वाद लेते. उन्हें अपने घर आया देख उनका आधा दर्द वैसे ही दूर हो जाता था. कई बार ऐसा भी होता, जलाराम द्वारा मरीज के सर पर स्नेहपूर्वक हाथ फेरते ही वह चंगा होकर खडा हो जाता.उसका असाध्य रोग क्षण भर में काफूर हो जाता.जलाराम की इस अलौकिक स्पर्श चिकित्सा का चमत्कार देखकर गाँव वाले दांतों तले उंगली दबा लेते.
सेवा कार्यों में पत्नी वीरबाई का अत्याधिक योगदान और सहयोग मिलने के कारण जलाराम बेहद राहत महसूस
करते थे.वीरबाई अपने कर्तव्य और जिम्मेदारियों के प्रति काफी सजग रहती थीं. उनकी दिनचर्या पूरी तरह व्यवस्थित रहती थी. वे वक़्त की पाबन्द थीं. वे सूर्योदय के पूर्व उठ जातीं, स्नान आदि नित्यकर्म के बाद पहले पूजा पाठ करतीं, फिर अन्न जल ग्रहण करतीं. जलाराम का भी यही नित्य क्रम था. उनका घर बहुत छोटा था, लिहाजा पूजा पाठ का स्थान भी कम था. कोई आमदनी थी नहीं. इसलिए पूजा स्थल के लिए देवी-देवता की प्रतिमा खरीदकर लाने में वे असक्षम थे. केवल सीता, राम, हनुमान का एक चित्र उनके पूजा स्थल में था, जिसके सामने प्रतिदिन सुबह शाम दीपक जलाकर वे पूजा पाठ करते.
जलाराम और उनकी पत्नी वीरबाई की दिली इच्छा थी उनके आँगन में एक छोटा सा मंदिर हो.वे चाहते थे साधुजन, महात्मा जब उनके घर आँगन आयें तो सबसे पहले वे मंदिर में दर्शन लाभ लें, फिर भोजन करने बैठें.लेकिन दोनों एक दूसरे से अपने मन की यह बात जाहिर करने में संकोच कर रहे थे.एक दिन जलाराम ने सकुचाते हुए पत्नी वीरबाई से कहा- "अगर हमारे आँगन में एक मंदिर होता, तो कितना अच्छा होता? साधुजनों, महात्माओं को रात में रहवासा खोजने भटकना भी नहीं पडेगा, उनको मंदिर में ही सोने की जगह मिल जायेगी". वीरबाई इस प्रस्ताव की प्रतीक्षा में ही थी. उन्होंने तपाक से हाँ में हाँ मिलाते कहा- "नाथ, आप सौ टका सत्य कह रहे हैं.मैं भी कई दिन से यही सोच रही हूँ.किन्तु".... आगे कुछ न बोलते हुए वीरबाई अचानक मौन हो गई.जलाराम ने जोर देते हुए कहा- "चुप क्यों हो गई? अपनी बात पूरी करो".एकाएक वीरबाई का गला रूंध गया.पल भर बाद उन्होंने दुखी स्वर में कहा- "नाथ, हम तो बहुत गरीब हैं. हम स्वयं भूखे रह कर भी भूखे लोगों का पेट पहले भरते हैं, फिर बचा खुचा हम खाते हैं.सदाव्रत के चलते, लोगों के निवेदन का आदर करते हमने मजदूरी करना भी बंद कर दिया है.पहले तो थोड़ी बहुत आमदनी भी हो जाती थी.अब तो आय का कोई माध्यम नहीं है.मेरे मायके से मिले आभूषणों के अतिरिक्त घर में अपने स्वयं की कोई जमा पूंजी भी नहीं है,ऐसी हालत में मंदिर बनाने के लिए धन कहाँ से आयेगा?" पत्नी की मायूसी भरी बात सुनकर जलाराम भी चिंता में डूब गए.फिर प्रभु श्रीराम का स्मरण करते उन्होंने वीर बाई से सिर्फ इतना ही कहा-"अगर हमारा इरादा पक्का हैं तो प्रभु अवश्य हमारी सहायता करेंगे".
जलाराम के घर यूं तो रोज कोई न कोई साधुजन, महात्मा सदाव्रत में सम्मिलित होते थे. लेकिन एक रात उनके  यहाँ एक महात्मा पधारे.उनका चहेरा सिद्ध और तेजस्वी प्रतीत हो रहा था.जलाराम और वीरबाई ने उनका भी  यथोचित आथित्य सत्कार किया.उस समय सदाव्रत चल रहा था.भिक्षुक, साधुजन,महात्मा सभी पंगत में बैठ कर भोजन ग्रहण कर रहे थे.आगंतुक सिद्ध महात्मा को भी उसी पंगत में बैठा दिया गया.फिर पति पत्नी अपने अपने काम में व्यस्त हो गए.वीरबाई रसोई में जुट गयीं. तो जलाराम सबको प्रेम, आदर भाव से भोजन परोसने में लग गए. भोजन बिलकुल सादा था. फिर भी रोटी, खिचडी और साग सबको सुस्वादु लग रहा था.लगता भी क्यों न.वीरबाई के हाथों में मानों जादू था.वे प्रसन्न भाव से पूरे मनोयोग के साथ खाना बनाती थीं.उसी तरह जलाराम प्रेम से सबको भोजन परोसते थे. परोसे गए भोजन में पति पत्नी की भक्ति और उनके प्रेमभाव का मसाला मिश्रित रहता था. पंगत में यदि कोई विकलांग बैठा होता तो जलाराम स्वयं अपने हाथों से उसे खिलाते. सबको भोजन करा कर विदा करने के बाद ही पति पत्नी अगर खाना बचता तो खाते.
उस रात भोजन करने के दौरान पति पत्नी की गतिविधियों को आगंतुक सिद्ध महात्मा ध्यान से देख रहे थे. वे अत्याधिक प्रसन्न हुए. दोनों के आग्रहवश वे वहीं रात में विश्राम करने तैयार हो गए. शयन से पहले भजन कीर्तन का दौर भी चला. सुबह चाय नाश्ते के बाद विदा होने से पहले उस सिद्ध महात्मा ने जलाराम से कहा- "बच्चा, तू सदाव्रत का यह जो पुण्य भरा कार्य कर रहा है, वह प्रशंसनीय और प्रेरणादायक है.तुझे कभी आर्थिक संकट न सताए, इसलिए मैं तुझे यह लक्ष्मी जी की प्रतिमा दे रहा हूँ, इनकी भी प्रतिदिन पूजा करना".जलाराम और वीरबाई ने उनके चरण स्पर्श किये और आशीर्वाद लिया.जाते जाते उन्होंने जलाराम से कहा- "बच्चा, यह बात भी तू जान ले, तेरे घर पूजा स्थल में हनुमान जी एक गुप्त प्रतिमा है. आज से ठीक तीसरे दिन वह प्रतिमा स्वयं प्रकट होकर तुझे दर्शन देगी. इससे तेरी ख्याति भी बढ़ेगी". इतना कहकर वे सिद्ध महात्मा चले गए. जलाराम और वीरबाई खुशी से झूम उठे.
उस सिद्ध महात्मा की भविष्यवाणी के अनुरूप ही तीसरे दिन शनिवार को सूर्योदय होते ही जलाराम के घर के पूजा स्थल में हनुमान जी की प्रतिमा स्वतः प्रकट हुई. पति पत्नी ने शाष्टांग दंडवत होकर प्रणाम किया.फिर प्रभु श्रीराम का आभार भी माना.हनुमान जी की प्रतिमा स्वयं प्रकट होने की बात गाँव में आग की तरह फ़ैल गयी. श्रद्धालु बड़ी संख्या में प्रतिमा के दर्शनार्थ जलाराम के घर पहुँचने लगे.कुछ दिनों बाद श्रद्धालुओं के सहयोग से जलाराम ने आँगन में एक मंदिर भी बनवा लिया.उसमें विधिवत हनुमान जी की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा की गई.तत्पश्चात प्रतिदिन जलाराम, वीरबाई और गाँव के अन्य श्रद्धालु मंदिर में पूजा पाठ, भजन कीर्तन करने लगे. मंदिर परिसर
में पूर्ववत सदाव्रत-अन्नदान का क्रम भी जारी रहा.बाहर से आने वाले साधुजनों,महात्माओं और भिक्षुओं को भी रात रूकने के लिए एक बेहतर रहवासा मिल गया. ( जारी .... )        
                                
                                        
      
   

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