चोर का ह्रदय परिवर्तन किया : जलाराम बापा अपने त्रिकाल ज्ञानी गुरू भोजल राम के प्रति अगाध श्रद्धा भाव रखते थे ही, साथ ही गुरू भक्ति स्वरुप उनके गाँव फतेहपुर के सभी निवासियों को भी स्नेह और सम्मान देते थे. फिर चाहे वह व्यक्ति किसी भी प्रवृत्ति का क्यों न हो. वह कार्य से अच्छा हो या बुरा, सबके प्रति गुरू के कारण लगाव था. वे सबका भला चाहते थे. जलाराम बापा के गाँव वीरपुर के रहवासियों को भी उनकी यह धारणा पता थी. इसीलिये एक दिन वीरपुर का एक करीबी अनुयायी रहवासी जलाराम बापा के घर पहुंचा और उनके चरण स्पर्श करने के बाद कहा- "बापा, आप को तो समाचार मिल गया होगा?" जलाराम बापा ने अनभिज्ञता जताते हुए पूछा- "भाई, कैसा समाचार!, मुझे कुछ नहीं मालूम. तुम बताओ" उस अनुयायी ने जानकारी दी- "कल एक शातिर और दुस्साहसी चोर पकडाया है. कई दिनों से वह चोर लोगों को चकमा देकर अपना काम तमाम कर भाग जाता था. आखिर राजा के सुरक्षा कर्मियों ने उसे गिरफ्तार कर ही लिया". जलाराम बापा बोले- " मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूँ उस चोर को सदबुद्धि मिले, ताकि वह अपना गलत काम छोड़ दे और सही मार्ग पर चले. किन्तु भाई, तुम मुझे उस चोर के पकड़े जाने का समाचार क्यों दे रहे हो, इसके पीछे तुम्हारा क्या उद्देश्य है?". उसने खुलासा करते हुए बताया- "बापा, दरअसल वह चोर आप के गुरू के गाँव का ही रहने वाला व्यक्ति है, राज दरबार में उसने अपना अपराध स्वीकार करते समय यह जानकारी दी है". जलाराम बापा यह सुनते ही तत्काल दरबार गढ़ के लिए रवाना हो गए.
जलाराम बापा ने दरबार गढ़ पहुँचते ही पहरेदार को अपने आने का ध्येय बताया. राजा को जब उनके पधारने की सूचना मिली तब वे स्वयं उनकी अगुआनी करने मुख्य द्वार पर आ गए. जलाराम बापा को सम्मान के साथ भीतर ले जाया गया. राजा ने उनसे पूछा- "भक्तराज, आपके यहाँ आने से हम धन्य हो गए. आप तो सभी की सेवा करते हैं. आज मुझे अवसर मिला है, बताइये मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ". जलाराम बापा ने कहा- "आपने जिस चोर को बंदीगृह में कैद कर रखा है, उसे कृपया छोड़ दीजिये". राजा ने विस्मय से पूछा- "भक्तराज, आपका उस चोर से क्या वास्ता?, क्या आप उससे परिचित हैं?" जलाराम बापा ने सहजतापूर्वक प्रत्युत्तर दिया- "नहीं, उससे मेरी कोई जान-पहचान नहीं है. हाँ, मुझे यह अवश्य जानकारी मिली है वह मेरे गुरू के गाँव फतेहपुर का निवासी है". राजा ने बीच में टोकते हुए कहा- "ठीक है भक्तराज, मैंने माना वह आपके गुरू के गाँव का वासी है, किन्तु आप इसे अपनी प्रतिष्ठा का विषय क्यों बना रहे हैं, वह भी एक कुख्यात चोर की खातिर?" जलाराम बापा ने रूंधे गले से जवाब दिया- "इसमें मेरे जैसे शिष्य की प्रतिष्ठा दांव में लगी है. मेरे श्रद्धेय गुरू के गाँव का प्रत्येक व्यक्ति मेरे गुरू भाई जैसा है. फिर चाहे वह चोर हो या सिपाही, मेरे लिए तो सब बराबर हैं. उसे गलत काम की सजा समय आने पर स्वयं प्रभु दे देंगे. अगर वह चोर बेड़ियों में जकड़ा हुआ बंदीगृह में सो नहीं पा रहा है तो फिर मैं कैसे चैन की नींद सो सकता हूँ". राजा ने पल्ला झाड़ते हुए तर्क दिया- "भक्तराज, आपकी गुरू भक्ति की इस भावना की मैं कद्र करता हूँ, लेकिन इस चोर ने सबका जीना हराम कर रखा था, कई दिनों बाद बड़ी मुश्किल से वह पकड़ में आया है. उसे कैसे छोड़ा जा सकता है".
जलाराम बापा के समस्त तर्कों और अनुनय-विनय को खारिज करते हुए राजा ने उस चोर को रिहा करने से साफ़ इनकार कर दिया. जलाराम बापा कुछ क्षण मौन रहे. तत्पश्चात उन्होंने राजा को सुझाव देते हुए हाथ जोड़ कर कहा- "चोरी के अपराध में आपको बंदीगृह में एक व्यक्ति रखना ही है तो उसके बदले मुझे रख लीजिये. उसके समस्त अपराध मैं स्वीकार करता हूँ. उसके बदले मुझे सजा दीजिये". इतना कहने के बाद जलाराम बापा की आँखें नम हो गई. याचना स्वरुप वे अपनी पगड़ी उतारने लगे, तो कुछ दरबारी तुरंत उनके नजदीक पहुँच कर ऐसा न करने का अनुरोध किया. राजा भी अपने सिंहासन से उतर कर जलाराम बापा के पास आये और क्षमा
मांगते हुए कहा- "भक्तराज, आप इज्जत की पगड़ी उतार कर हमें शर्मिन्दा कर रहे हैं. मुझे क्षमा कर दीजिये. आपकी बात मुझे नहीं काटनी थी. आपकी गुरू भक्ति धन्य है. मैंने आपकी गुरू भावना को सही अर्थ में नहीं समझा, यह मेरी बड़ी भूल है". राजा ने ताली बजा कर बंदी गृह के प्रभारी को बुलाया और उस कैदी चोर को तत्काल रिहा करने का हुक्म दिया. अगले ही पल उस चोर को दरबार में हाजिर किया गया. सारा वृत्तांत जान कर
वह चोर जलाराम बापा के पैरों में गिर कर फूट फूट कर रोने लगा. जलाराम बापा ने उसे स्नेहपूर्वक उठाया और
समझाइश दी- "गुरू भाई, अब से अपने सारे गलत काम को त्याग कर सत्य, सेवा और धर्म के मार्ग पर चलना. सदा सुखी रहोगे". उस चोर ने प्रायश्चित करते हुए कहा- "बापा, मैं भटक गया था. आपने मेरी आँखें खोल दी. आज से ही मैं आपके बताये रास्ते पर चलूँगा. मेरा ह्रदय परिवर्तन कर आपने मुझ पर बड़ा उपकार किया है, जीवन भर मैं आपका कर्जदार रहूँगा". तत्पश्चात राजा को धन्यवाद देते हुए जलाराम बापा उस चोर को अपने साथ लेकर गुरू के गाँव फतेहपुर के लिए रवाना हो गए. ( जारी )
जलाराम बापा ने दरबार गढ़ पहुँचते ही पहरेदार को अपने आने का ध्येय बताया. राजा को जब उनके पधारने की सूचना मिली तब वे स्वयं उनकी अगुआनी करने मुख्य द्वार पर आ गए. जलाराम बापा को सम्मान के साथ भीतर ले जाया गया. राजा ने उनसे पूछा- "भक्तराज, आपके यहाँ आने से हम धन्य हो गए. आप तो सभी की सेवा करते हैं. आज मुझे अवसर मिला है, बताइये मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ". जलाराम बापा ने कहा- "आपने जिस चोर को बंदीगृह में कैद कर रखा है, उसे कृपया छोड़ दीजिये". राजा ने विस्मय से पूछा- "भक्तराज, आपका उस चोर से क्या वास्ता?, क्या आप उससे परिचित हैं?" जलाराम बापा ने सहजतापूर्वक प्रत्युत्तर दिया- "नहीं, उससे मेरी कोई जान-पहचान नहीं है. हाँ, मुझे यह अवश्य जानकारी मिली है वह मेरे गुरू के गाँव फतेहपुर का निवासी है". राजा ने बीच में टोकते हुए कहा- "ठीक है भक्तराज, मैंने माना वह आपके गुरू के गाँव का वासी है, किन्तु आप इसे अपनी प्रतिष्ठा का विषय क्यों बना रहे हैं, वह भी एक कुख्यात चोर की खातिर?" जलाराम बापा ने रूंधे गले से जवाब दिया- "इसमें मेरे जैसे शिष्य की प्रतिष्ठा दांव में लगी है. मेरे श्रद्धेय गुरू के गाँव का प्रत्येक व्यक्ति मेरे गुरू भाई जैसा है. फिर चाहे वह चोर हो या सिपाही, मेरे लिए तो सब बराबर हैं. उसे गलत काम की सजा समय आने पर स्वयं प्रभु दे देंगे. अगर वह चोर बेड़ियों में जकड़ा हुआ बंदीगृह में सो नहीं पा रहा है तो फिर मैं कैसे चैन की नींद सो सकता हूँ". राजा ने पल्ला झाड़ते हुए तर्क दिया- "भक्तराज, आपकी गुरू भक्ति की इस भावना की मैं कद्र करता हूँ, लेकिन इस चोर ने सबका जीना हराम कर रखा था, कई दिनों बाद बड़ी मुश्किल से वह पकड़ में आया है. उसे कैसे छोड़ा जा सकता है".
जलाराम बापा के समस्त तर्कों और अनुनय-विनय को खारिज करते हुए राजा ने उस चोर को रिहा करने से साफ़ इनकार कर दिया. जलाराम बापा कुछ क्षण मौन रहे. तत्पश्चात उन्होंने राजा को सुझाव देते हुए हाथ जोड़ कर कहा- "चोरी के अपराध में आपको बंदीगृह में एक व्यक्ति रखना ही है तो उसके बदले मुझे रख लीजिये. उसके समस्त अपराध मैं स्वीकार करता हूँ. उसके बदले मुझे सजा दीजिये". इतना कहने के बाद जलाराम बापा की आँखें नम हो गई. याचना स्वरुप वे अपनी पगड़ी उतारने लगे, तो कुछ दरबारी तुरंत उनके नजदीक पहुँच कर ऐसा न करने का अनुरोध किया. राजा भी अपने सिंहासन से उतर कर जलाराम बापा के पास आये और क्षमा
मांगते हुए कहा- "भक्तराज, आप इज्जत की पगड़ी उतार कर हमें शर्मिन्दा कर रहे हैं. मुझे क्षमा कर दीजिये. आपकी बात मुझे नहीं काटनी थी. आपकी गुरू भक्ति धन्य है. मैंने आपकी गुरू भावना को सही अर्थ में नहीं समझा, यह मेरी बड़ी भूल है". राजा ने ताली बजा कर बंदी गृह के प्रभारी को बुलाया और उस कैदी चोर को तत्काल रिहा करने का हुक्म दिया. अगले ही पल उस चोर को दरबार में हाजिर किया गया. सारा वृत्तांत जान कर
वह चोर जलाराम बापा के पैरों में गिर कर फूट फूट कर रोने लगा. जलाराम बापा ने उसे स्नेहपूर्वक उठाया और
समझाइश दी- "गुरू भाई, अब से अपने सारे गलत काम को त्याग कर सत्य, सेवा और धर्म के मार्ग पर चलना. सदा सुखी रहोगे". उस चोर ने प्रायश्चित करते हुए कहा- "बापा, मैं भटक गया था. आपने मेरी आँखें खोल दी. आज से ही मैं आपके बताये रास्ते पर चलूँगा. मेरा ह्रदय परिवर्तन कर आपने मुझ पर बड़ा उपकार किया है, जीवन भर मैं आपका कर्जदार रहूँगा". तत्पश्चात राजा को धन्यवाद देते हुए जलाराम बापा उस चोर को अपने साथ लेकर गुरू के गाँव फतेहपुर के लिए रवाना हो गए. ( जारी )
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