अन्नदान सेवा क्षेत्र का विस्तार वीरपुर की सीमा तक किया : जलाराम बापा अब दिन प्रतिदिन अपने सदाव्रत-अन्नदान सेवा कार्य में अधिक व्यस्त होते जा रहे थे. उन्हें अपने परिवार से ज्यादा दुखीजनों, भूखे व्यक्तियों,
साधुजनों और संत-महात्माओं की सेवा करने में अधिक आनंद की प्राप्ति होती थी. इनके प्रति वे सदैव चिंतित रहते थे. वे विकलांग और निराश्रित व्यक्तियों की देखभाल विशेष तौर पर करते थे. जलाराम बापा का यह सेवा क्षेत्र एक आश्रम जैसा स्वरुप ले चुका था. उनका सदाव्रत-अन्नदान सेवा क्षेत्र अब केवल घर आँगन तक सीमित नहीं रह गया था, बल्कि उन्होंने इसका विस्तार वीरपुर गाँव की सीमा तक कर दिया था. जलाराम बापा रोज सुबह शाम गाँव की सीमा पहुँच जाते. फिर वहां से गुजरने वाले राहगीरों और तीर्थ यात्रियों को बड़े प्रेम से प्रसाद स्वरुप लड्डू और गाठियाँ खिलाते.
जिस रफ़्तार से सदाव्रत-अन्नदान सेवा कार्य जारी था, उसके अनुपात में जलाराम बापा के यहाँ भेंट बतौर अनाज और धन की आवक कम थी. इसके बावजूद वे कोई चिंता नहीं करते थे. उन्हें अपने प्रभु पर पूरा भरोसा था. भंडार में कितना अनाज बाकी है, इसकी जांच पड़ताल उन्होंने कभी नहीं की. हालांकि कुछ किसानों की तरफ से नियमित तौर पर अनाज आ जाता था. किसी की मन्नत पूरी होती तो वह भी भेंट स्वरुप कुछ ना कुछ ले आता. अब तो राजा और नवाब की ओर से भी सहायता मिलने लगी थी. लेकिन कई दफे ऐसा भी अवसर आता जब भोजन सामग्री का अभाव उत्पन्न हो जाता, तब भण्डार प्रभारी व्याकुल हो जाता. फिर वह जलाराम बापा के पास आकर हाथ जोड़ कर निवेदन करता- "बापा, भण्डार में अब कुछ नहीं बचा है, कल रसोई कैसे बनेगी?, भोजन सामग्री का प्रबंध तत्काल करिए न". तब जलाराम बापा बिना चिंतित हुए कहते- "भाई, चिंता मत करों. प्रभु थोड़ी देर में समस्त प्रबंध कर देंगे". कुछ देर बाद ऐसा होता भी. कोई न कोई भेंट देने आ ही जाता. दूसरे दिन पूरी रसोई बनती. जलाराम बापा भण्डार प्रभारी को यह समझाइश जरूर देते- "भाई, भण्डार में सामान जब भी कम लगे तो इसकी चर्चा दूसरों से नहीं करना".
जलाराम बापा रोज रात को भजन कीर्तन के बाद सोने से पहले एक छोटे से कागज़ में अगले दिन लगने वाले सामान की सूची लिखते थे. फिर उसे अपने तकिये के नीचे रख कर निश्चिन्त होकर सो जाते थे. मानों वे अपने
प्रभु के लिए सन्देश लिखे हों. सुबह होते ही चमत्कारिक रूप से कोई न कोई श्रद्धालु बैल गाडी में अनाज और अन्य
सामग्री लेकर पहुँच जाता था. लेकिन एक बार आसपास अकाल की स्थिति निर्मित हो जाने के कारण हाहाकार मच गया. सब तरफ अनाज की किल्लत पैदा हो गयी. जलाराम बापा के यहाँ भूखेजनों का तांता लग गया. जिससे इनके यहाँ भी अब अनाज कम पड़ने लगा. जलाराम बापा से यह देखा नहीं गया. धन की समस्या का समाधान करने वे एक दिन घर से निकल पड़े. गंतव्य स्थान तय नहीं था.
पद यात्रा करते हुए वे गलोर गाँव पहुंचे. यहाँ उनका एक अनुयायी जीवराज पटेल रहता था. जलाराम बापा को अचानक अपने घर आया देख कर वह अत्यंत प्रसन्न हुआ. उसने जलाराम बापा के चरण स्पर्श कर कहा- "बापा,
आपने मुझे स्वयं आकर दर्शन दिया, इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ. मेरा घर तो पवित्र हुआ ही साथ ही मैं भी धन्य हो गया. इस सेवक के लिए क्या आदेश है". जलाराम बापा ने कहा- "जीवराज भाई, अकाल के कारण सदाव्रत में अथितियों की संख्या बढ़ गयी है, इसलिए कुछ धन की आवश्यकता है, दे दो. कुछ दिन बाद वापस लौटा दूंगा". जीवराज पटेल ने कहा- "बापा, इसके लिए आपने यहाँ आने का कष्ट क्यों उठाया, किसी सेवक को भेज देते या सन्देश भिजवा देते तो मैं धन दे देता". जलाराम बापा ने जवाब में कहा- "जीवराज भाई, सदाव्रत की जिम्मेदारी मैंने ली है तो इसका सब काम भी मुझे ही करना है, इसमें कष्ट की कोई बात नहीं है, बल्कि इसमें मुझे आनंद मिलता है". अनुयायी ने हाथ जोड़ कर कहा- "बापा, जैसा आपका आदेश". इतना कहकर उसने जलाराम बापा का
आथित्य सत्कार कर उनकों सम्मान पूर्वक बैठाया. फिर वह धन लेने बाजू के कमरे में चला गया.
अनुयायी जीवराज पटेल बाजू के कमरे में पहुँच कर चिन्हित जमीन को खोद कर एक छोटा सा बक्सा निकाला,
जिसमें एक थैली में बचत की हुई मुद्राएँ सुरक्षित रखी हुई थीं. इसमें से कुछ मुद्राएँ निकाल कर बाकी को पहले की तरह सुरक्षित रख दिया. फिर उसने वह मुद्राएँ जलाराम बापा को दे दीं. उधर जीवराज पटेल की पत्नी दरवाजे के पीछे छिपकर सारा नजारा देख कर दुखी हो रही थीं. लेकिन जुबान से कोई शब्द नहीं निकल रहे थे. जैसे ही जलाराम बापा मुद्राएँ लेकर और आशीर्वाद देकर चले गए, वैसे ही जीवराज की पत्नी का गुस्सा फट पडा. वह अपने पति से उलझ पडी. पति द्वारा जलाराम बापा को मुद्राएँ देना उसे नहीं सुहाया. पत्नी द्वारा हाय तौबा मचाने के बाद भी जीवराज ने मौन रहने में ही अपनी भलाई समझी. जीवराज की पत्नी की चिल्लपों सुन कर पास पड़ोस के लोग भी इकट्ठा हो गए. एक पड़ोसी औरत ने जिज्ञासावश उससे पूछा- "क्या बात है बेन, क्यों अपने पति पर नाराज हो रही हो?, क्या उन्होंने कोई गलत बात कह दी है या फिर मारापिटा है?" जीवराज की पत्नी ने रोते हुए कहा- "अरे बेन, कुछ मत पूछो. मेरे तो करम ही फूट गए हैं. न जाने किस जनम का ये मुझसे बदला ले रहें हैं. ये पति कहलाने के लायक नहीं हैं. कितने दिनों से मैं साडी और गहने के लिए इनसे मुद्राएँ मांग रही हूँ लेकिन ये अनसुना कर देते हैं या कभी कहते धन की किल्लत है. और आज जब वीरपुर वाला भगत जला आया तो उसने जितनी मुद्राएँ माँगी उतनी इन्होने झट से दे दी. अब मैं चिल्लाऊं नहीं तो क्या करू?" इतना कह कर वह दहाड़ मार कर रोने लगी. पड़ोसियों को समझते देर नहीं लगी. उनकी नजर में तो जीवराज ने यह पुण्य का काम किया था. लेकिन पत्नी को
सुहाया नहीं, इसीलिये वह झूठा प्रपंच कर रही है. यह सोच कर पड़ोसियों ने वहां से हट जाना बेहतर समझा. पड़ोस की एक सहेली ने उसे समझाने की बेहद कोशिश की लेकिन उसका गुस्सा शांत नहीं हुआ. उसने अपने पति को कोसते हुए कहा- "अरे बेन, अब क्या बताऊँ, ये मेरे पति बहुत खराब स्वभाव के हैं. जब इनसे मुद्राएँ मांगो तब ये न होने का बहाना बनाते हैं. यहीं नहीं बल्कि मेरे मायके से मिले गहने को गिरवी रख कर धन लाने की गलत सलाह देते हैं. अब बताओ बेन, मैं इनसे लडूं नहीं तो क्या करू, देखना भगत जला को दिया गया धन डूब जाएगा. उसमें उधार लौटाने की ताकत कहाँ है?" जीवराज की पत्नी का यह उलाहना आसपास प्रचारित भी हो गया.
उधर, जलाराम बापा खुशी खुशी अपने गाँव वीरपुर पहुँच गए. जीवराज से मिली मुद्राओं से उन्होंने जरूरत का अनाज खरीद कर सदाव्रत- अन्नदान अभियान जारी रखा. दिन बीतने लगे. जलाराम बापा की तरफ से अब तक बकाया धन वापस न आने से जीवराज पटेल के कुछ पड़ोसियों को यह आशंका होने लगी जीवराज की पत्नी का अंदेशा कहीं सही न निकले. जीवराज की पत्नी तो पहले से ही आशंकित थी. कुछ समय बाद एक श्रद्धालु सेठ की मन्नत फली तो उसने जलाराम बापा को भेंट स्वरुप मुद्राओं की एक बड़ी थैली उनके चरणों में रख दी. दरअसल, उस सेठ के एक युवा पुत्र की अचानक आवाज चली गयी थी. किसी शुभचिंतक के सुझाव पर उस सेठ ने जलाराम बापा को याद कर बेटे की आवाज लौटने की मन्नत रखी, जो दूसरे दिन ही फल गयी. इसीलिये वह सेठ अपने पुत्र के साथ जलाराम बापा के पास भेंट के साथ आभार जताने आया था.
जलाराम बापा ने उस सेठ और उसके पुत्र को आशीर्वाद देने के तत्काल बाद एक सेवक के जरिये अनुयायी जीवराज पटेल को उसकी उधारी मुद्राएँ और प्रसाद भिजवा दिया. यहीं नहीं वरन जीवराज पटेल की झगडालू पत्नी के लिए एक नयी साडी भी भेंट स्वरुप भिजवाई. यह सब देख कर जीवराज पटेल खुशी से फूला नहीं समाया. जलाराम बापा की प्रसाद और भेंट पाकर उसने खुद को सौभाग्यशाली समझा. उसकी पत्नी को भी अपनी गलती समझ में आ गई. उसे बेहद आत्मग्लानि हुई. लेकिन साडी को लेकर पति से नाराजगी वाली बात जलाराम बापा तक कैसे पहुँची, यह उसे समझ में नहीं आया. उसने फिर भक्ति भाव से हाथ जोड़ कर जलाराम बापा का स्मरण कर अपनी भूल के लिए क्षमा प्रार्थना की. पास पड़ोस वालों को भी जब इसकी जानकारी हुई तब सबने मिलकर एक साथ जलाराम बापा का जयकारा लगाया. ( जारी .... ) .
साधुजनों और संत-महात्माओं की सेवा करने में अधिक आनंद की प्राप्ति होती थी. इनके प्रति वे सदैव चिंतित रहते थे. वे विकलांग और निराश्रित व्यक्तियों की देखभाल विशेष तौर पर करते थे. जलाराम बापा का यह सेवा क्षेत्र एक आश्रम जैसा स्वरुप ले चुका था. उनका सदाव्रत-अन्नदान सेवा क्षेत्र अब केवल घर आँगन तक सीमित नहीं रह गया था, बल्कि उन्होंने इसका विस्तार वीरपुर गाँव की सीमा तक कर दिया था. जलाराम बापा रोज सुबह शाम गाँव की सीमा पहुँच जाते. फिर वहां से गुजरने वाले राहगीरों और तीर्थ यात्रियों को बड़े प्रेम से प्रसाद स्वरुप लड्डू और गाठियाँ खिलाते.
जिस रफ़्तार से सदाव्रत-अन्नदान सेवा कार्य जारी था, उसके अनुपात में जलाराम बापा के यहाँ भेंट बतौर अनाज और धन की आवक कम थी. इसके बावजूद वे कोई चिंता नहीं करते थे. उन्हें अपने प्रभु पर पूरा भरोसा था. भंडार में कितना अनाज बाकी है, इसकी जांच पड़ताल उन्होंने कभी नहीं की. हालांकि कुछ किसानों की तरफ से नियमित तौर पर अनाज आ जाता था. किसी की मन्नत पूरी होती तो वह भी भेंट स्वरुप कुछ ना कुछ ले आता. अब तो राजा और नवाब की ओर से भी सहायता मिलने लगी थी. लेकिन कई दफे ऐसा भी अवसर आता जब भोजन सामग्री का अभाव उत्पन्न हो जाता, तब भण्डार प्रभारी व्याकुल हो जाता. फिर वह जलाराम बापा के पास आकर हाथ जोड़ कर निवेदन करता- "बापा, भण्डार में अब कुछ नहीं बचा है, कल रसोई कैसे बनेगी?, भोजन सामग्री का प्रबंध तत्काल करिए न". तब जलाराम बापा बिना चिंतित हुए कहते- "भाई, चिंता मत करों. प्रभु थोड़ी देर में समस्त प्रबंध कर देंगे". कुछ देर बाद ऐसा होता भी. कोई न कोई भेंट देने आ ही जाता. दूसरे दिन पूरी रसोई बनती. जलाराम बापा भण्डार प्रभारी को यह समझाइश जरूर देते- "भाई, भण्डार में सामान जब भी कम लगे तो इसकी चर्चा दूसरों से नहीं करना".
जलाराम बापा रोज रात को भजन कीर्तन के बाद सोने से पहले एक छोटे से कागज़ में अगले दिन लगने वाले सामान की सूची लिखते थे. फिर उसे अपने तकिये के नीचे रख कर निश्चिन्त होकर सो जाते थे. मानों वे अपने
प्रभु के लिए सन्देश लिखे हों. सुबह होते ही चमत्कारिक रूप से कोई न कोई श्रद्धालु बैल गाडी में अनाज और अन्य
सामग्री लेकर पहुँच जाता था. लेकिन एक बार आसपास अकाल की स्थिति निर्मित हो जाने के कारण हाहाकार मच गया. सब तरफ अनाज की किल्लत पैदा हो गयी. जलाराम बापा के यहाँ भूखेजनों का तांता लग गया. जिससे इनके यहाँ भी अब अनाज कम पड़ने लगा. जलाराम बापा से यह देखा नहीं गया. धन की समस्या का समाधान करने वे एक दिन घर से निकल पड़े. गंतव्य स्थान तय नहीं था.
पद यात्रा करते हुए वे गलोर गाँव पहुंचे. यहाँ उनका एक अनुयायी जीवराज पटेल रहता था. जलाराम बापा को अचानक अपने घर आया देख कर वह अत्यंत प्रसन्न हुआ. उसने जलाराम बापा के चरण स्पर्श कर कहा- "बापा,
आपने मुझे स्वयं आकर दर्शन दिया, इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ. मेरा घर तो पवित्र हुआ ही साथ ही मैं भी धन्य हो गया. इस सेवक के लिए क्या आदेश है". जलाराम बापा ने कहा- "जीवराज भाई, अकाल के कारण सदाव्रत में अथितियों की संख्या बढ़ गयी है, इसलिए कुछ धन की आवश्यकता है, दे दो. कुछ दिन बाद वापस लौटा दूंगा". जीवराज पटेल ने कहा- "बापा, इसके लिए आपने यहाँ आने का कष्ट क्यों उठाया, किसी सेवक को भेज देते या सन्देश भिजवा देते तो मैं धन दे देता". जलाराम बापा ने जवाब में कहा- "जीवराज भाई, सदाव्रत की जिम्मेदारी मैंने ली है तो इसका सब काम भी मुझे ही करना है, इसमें कष्ट की कोई बात नहीं है, बल्कि इसमें मुझे आनंद मिलता है". अनुयायी ने हाथ जोड़ कर कहा- "बापा, जैसा आपका आदेश". इतना कहकर उसने जलाराम बापा का
आथित्य सत्कार कर उनकों सम्मान पूर्वक बैठाया. फिर वह धन लेने बाजू के कमरे में चला गया.
अनुयायी जीवराज पटेल बाजू के कमरे में पहुँच कर चिन्हित जमीन को खोद कर एक छोटा सा बक्सा निकाला,
जिसमें एक थैली में बचत की हुई मुद्राएँ सुरक्षित रखी हुई थीं. इसमें से कुछ मुद्राएँ निकाल कर बाकी को पहले की तरह सुरक्षित रख दिया. फिर उसने वह मुद्राएँ जलाराम बापा को दे दीं. उधर जीवराज पटेल की पत्नी दरवाजे के पीछे छिपकर सारा नजारा देख कर दुखी हो रही थीं. लेकिन जुबान से कोई शब्द नहीं निकल रहे थे. जैसे ही जलाराम बापा मुद्राएँ लेकर और आशीर्वाद देकर चले गए, वैसे ही जीवराज की पत्नी का गुस्सा फट पडा. वह अपने पति से उलझ पडी. पति द्वारा जलाराम बापा को मुद्राएँ देना उसे नहीं सुहाया. पत्नी द्वारा हाय तौबा मचाने के बाद भी जीवराज ने मौन रहने में ही अपनी भलाई समझी. जीवराज की पत्नी की चिल्लपों सुन कर पास पड़ोस के लोग भी इकट्ठा हो गए. एक पड़ोसी औरत ने जिज्ञासावश उससे पूछा- "क्या बात है बेन, क्यों अपने पति पर नाराज हो रही हो?, क्या उन्होंने कोई गलत बात कह दी है या फिर मारापिटा है?" जीवराज की पत्नी ने रोते हुए कहा- "अरे बेन, कुछ मत पूछो. मेरे तो करम ही फूट गए हैं. न जाने किस जनम का ये मुझसे बदला ले रहें हैं. ये पति कहलाने के लायक नहीं हैं. कितने दिनों से मैं साडी और गहने के लिए इनसे मुद्राएँ मांग रही हूँ लेकिन ये अनसुना कर देते हैं या कभी कहते धन की किल्लत है. और आज जब वीरपुर वाला भगत जला आया तो उसने जितनी मुद्राएँ माँगी उतनी इन्होने झट से दे दी. अब मैं चिल्लाऊं नहीं तो क्या करू?" इतना कह कर वह दहाड़ मार कर रोने लगी. पड़ोसियों को समझते देर नहीं लगी. उनकी नजर में तो जीवराज ने यह पुण्य का काम किया था. लेकिन पत्नी को
सुहाया नहीं, इसीलिये वह झूठा प्रपंच कर रही है. यह सोच कर पड़ोसियों ने वहां से हट जाना बेहतर समझा. पड़ोस की एक सहेली ने उसे समझाने की बेहद कोशिश की लेकिन उसका गुस्सा शांत नहीं हुआ. उसने अपने पति को कोसते हुए कहा- "अरे बेन, अब क्या बताऊँ, ये मेरे पति बहुत खराब स्वभाव के हैं. जब इनसे मुद्राएँ मांगो तब ये न होने का बहाना बनाते हैं. यहीं नहीं बल्कि मेरे मायके से मिले गहने को गिरवी रख कर धन लाने की गलत सलाह देते हैं. अब बताओ बेन, मैं इनसे लडूं नहीं तो क्या करू, देखना भगत जला को दिया गया धन डूब जाएगा. उसमें उधार लौटाने की ताकत कहाँ है?" जीवराज की पत्नी का यह उलाहना आसपास प्रचारित भी हो गया.
उधर, जलाराम बापा खुशी खुशी अपने गाँव वीरपुर पहुँच गए. जीवराज से मिली मुद्राओं से उन्होंने जरूरत का अनाज खरीद कर सदाव्रत- अन्नदान अभियान जारी रखा. दिन बीतने लगे. जलाराम बापा की तरफ से अब तक बकाया धन वापस न आने से जीवराज पटेल के कुछ पड़ोसियों को यह आशंका होने लगी जीवराज की पत्नी का अंदेशा कहीं सही न निकले. जीवराज की पत्नी तो पहले से ही आशंकित थी. कुछ समय बाद एक श्रद्धालु सेठ की मन्नत फली तो उसने जलाराम बापा को भेंट स्वरुप मुद्राओं की एक बड़ी थैली उनके चरणों में रख दी. दरअसल, उस सेठ के एक युवा पुत्र की अचानक आवाज चली गयी थी. किसी शुभचिंतक के सुझाव पर उस सेठ ने जलाराम बापा को याद कर बेटे की आवाज लौटने की मन्नत रखी, जो दूसरे दिन ही फल गयी. इसीलिये वह सेठ अपने पुत्र के साथ जलाराम बापा के पास भेंट के साथ आभार जताने आया था.
जलाराम बापा ने उस सेठ और उसके पुत्र को आशीर्वाद देने के तत्काल बाद एक सेवक के जरिये अनुयायी जीवराज पटेल को उसकी उधारी मुद्राएँ और प्रसाद भिजवा दिया. यहीं नहीं वरन जीवराज पटेल की झगडालू पत्नी के लिए एक नयी साडी भी भेंट स्वरुप भिजवाई. यह सब देख कर जीवराज पटेल खुशी से फूला नहीं समाया. जलाराम बापा की प्रसाद और भेंट पाकर उसने खुद को सौभाग्यशाली समझा. उसकी पत्नी को भी अपनी गलती समझ में आ गई. उसे बेहद आत्मग्लानि हुई. लेकिन साडी को लेकर पति से नाराजगी वाली बात जलाराम बापा तक कैसे पहुँची, यह उसे समझ में नहीं आया. उसने फिर भक्ति भाव से हाथ जोड़ कर जलाराम बापा का स्मरण कर अपनी भूल के लिए क्षमा प्रार्थना की. पास पड़ोस वालों को भी जब इसकी जानकारी हुई तब सबने मिलकर एक साथ जलाराम बापा का जयकारा लगाया. ( जारी .... ) .
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