मृत बतख और काले हिरण को जीवित किया : सौराष्ट्र के राजनैतिक एजेंट का दफ्तर राजकोट में था. उसके मातहत कुछ अधिकारी भी वहीं कार्यरत थे. एक बार किसी कार्यवश एक अंग्रेज अधिकारी जूनागढ़ के नवाब से भेंट करने गया हुआ था. कार्य संपन्न होने के बाद वह अंग्रेज अधिकारी जूनागढ़ के नवाब के साथ राजकोट वापस लौट रहा था. साथ में नवाब का काफिला भी चल रहा था. शानोशौकत के साथ इनका काफिला आगे बढ़ रहा था. इसी बीच रास्ते में एक तालाब दिखा. नवाब शिकार के बेहद शौक़ीन थे. उन्होंने तालाब में कुछ बतखों का शिकार किया. आगे जंगल आने पर उन्होंने एक काले हिरण का भी शिकार किया. रास्ते भर शिकार करने में नवाब को मजा आ रहा था.
राजकोट आने में अभी वक़्त था. दूरी काफी थी, इसलिए रात होते ही वीरपुर की सीमा पर नवाब का काफिला रूक गया. तम्बू खड़े कर वहीं डेरा डालना उचित समझा गया. सबको भूख लग गई थी, इसलिए भोजन बनाने चूल्हा
जलाने की तैयारी की जाने लगी. नवाब द्वारा शिकार किये गए बतख और काले हिरण का मांस पकाने भी सोचा गया. नवाब के इस काफिले में एक हिन्दू सेवक भी शामिल था. उसने नवाब को सलाम करते हुए विनम्रता से कहा- "नवाब साहब, क्षमा करेंगे, छोटा मुंह बड़ी बात. यह भगत जलाराम बापा का गाँव है. यहाँ आने पर कोई भी भूखा नहीं लौटता है. इसलिए निवेदन है भोजन तैयार कराने का कष्ट नहीं करें तो बेहतर होगा. जलाराम बापा प्रभु के सच्चे भक्त और सेवक हैं. यात्रियों और राहगीरों के लिए वे यहाँ सदाव्रत-अन्नदान कार्य जारी रखे हुए हैं. उनके गाँव की सीमा पर इस तरह जीव हिंसा करने के बाद अब अगर उनका मांस भी पकवाओगे तो जलाराम बापा को अत्यंत दुःख होगा". इसी दौरान अंग्रेज अधिकारी भी वहां आ पहुंचा. आते ही उसने पूछा- "क्या बात है, कोई ख़ास चर्चा हो रही है क्या?" नवाब ने उसे सारी बातचीत बताई, फिर कहा- "इस गाँव में खुदा का एक नेक बन्दा रहता है, वे चमत्कारिक संत हैं. सबको भोजन कराने के बाद ही खुद खाते हैं. सेवक का सुझाव है हमें यहाँ भोजन तैयार कराने की जहमत नहीं उठानी चाहिए. और फिर हम मांस भी तो पकवाने की सोच रहे हैं".अंग्रेज अधिकारी यह सुनकर बिफर उठा. उसने क्रोधित होकर कहा- "बिलकुल नहीं, हम लोग ये सब नहीं मानते हैं. आप भोजन की तैयारी जारी रखवाइए". उस अंग्रेज अधिकारी की नाराजगी के सामने आख़िरकार नवाब को झुकना पडा. इस बीच चूल्हे में आग
भभक उठी थी. उस पर देग चढाने की तैयारी हो रही थी. इसी दरम्यान वहां अचानक जलाराम बापा राम नाम जपते हुए आ पहुंचे. आते ही वे औपचारिकतावश न तो नवाब से मिले और न ही अंग्रेज अधिकारी से, बल्कि सीधे
जलते चूल्हों के पास पहुँच गए. पास में शिकार किये हुए मृत बतख और काला हिरण पिंजरे में रखे हुए थे. कुछ ही देर बाद इन्हें भी पकाने की तैयारी थी. जलाराम बापा ने आते ही बिना देर किये उस पिंजरे को खोल दिया और कहा- "बाहर निकलो प्यारों, अब तुम आजाद हो. अपने अपने स्थान अब जा सकते हो".जलाराम बापा के इतना बोलते ही मृत बतख जीवित होकर पिंजरे से बाहर निकल आये और वहां से चलते बने. दूसरे पिंजरे के पास भी जाकर जलाराम बापा ने ऐसा ही कहा. पल भर में मृत काला हिरण भी जीवित होकर पिंजरे से बाहर निकल आया और फिर कुलांचे मारते हुए चला गया. इस दौरान जानकारी मिलने पर नवाब और अंग्रेज अधिकारी भी सेवकों के साथ जलाराम बापा के पीछे पीछे पहुँच गए थे. यह चमत्कारिक दृश्य देख कर सभी लोग आश्चर्यचकित रह गए. नवाब को आत्मग्लानी हुई. उन्होंने हाथ जोड़ कर जलाराम बापा से माफी मांगते हुए कहा- "बापा, मुझे माफ़ कर दीजिये. मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई. आइन्दा ऐसा नहीं करूंगा.आप वास्तव में खुदा के नेक और सच्चे बन्दे हैं". फिर नवाब ने जलाराम बापा के चरण स्पर्श किये. कट्टर अंग्रेज अधिकारी को भी अपराध बोध हुआ. उसने भी
जलाराम बापा के सम्मान में अपनी टोपी उतारकर क्षमा माँगी. तत्पश्चात अदब से उन्हें सेल्यूट किया. जलाराम बापा अपने साथ पर्याप्त भोजन लेकर आये थे. सबको उन्होंने प्रेम से खिलाया. उसके बाद वे चल पड़े. ( जारी )
राजकोट आने में अभी वक़्त था. दूरी काफी थी, इसलिए रात होते ही वीरपुर की सीमा पर नवाब का काफिला रूक गया. तम्बू खड़े कर वहीं डेरा डालना उचित समझा गया. सबको भूख लग गई थी, इसलिए भोजन बनाने चूल्हा
जलाने की तैयारी की जाने लगी. नवाब द्वारा शिकार किये गए बतख और काले हिरण का मांस पकाने भी सोचा गया. नवाब के इस काफिले में एक हिन्दू सेवक भी शामिल था. उसने नवाब को सलाम करते हुए विनम्रता से कहा- "नवाब साहब, क्षमा करेंगे, छोटा मुंह बड़ी बात. यह भगत जलाराम बापा का गाँव है. यहाँ आने पर कोई भी भूखा नहीं लौटता है. इसलिए निवेदन है भोजन तैयार कराने का कष्ट नहीं करें तो बेहतर होगा. जलाराम बापा प्रभु के सच्चे भक्त और सेवक हैं. यात्रियों और राहगीरों के लिए वे यहाँ सदाव्रत-अन्नदान कार्य जारी रखे हुए हैं. उनके गाँव की सीमा पर इस तरह जीव हिंसा करने के बाद अब अगर उनका मांस भी पकवाओगे तो जलाराम बापा को अत्यंत दुःख होगा". इसी दौरान अंग्रेज अधिकारी भी वहां आ पहुंचा. आते ही उसने पूछा- "क्या बात है, कोई ख़ास चर्चा हो रही है क्या?" नवाब ने उसे सारी बातचीत बताई, फिर कहा- "इस गाँव में खुदा का एक नेक बन्दा रहता है, वे चमत्कारिक संत हैं. सबको भोजन कराने के बाद ही खुद खाते हैं. सेवक का सुझाव है हमें यहाँ भोजन तैयार कराने की जहमत नहीं उठानी चाहिए. और फिर हम मांस भी तो पकवाने की सोच रहे हैं".अंग्रेज अधिकारी यह सुनकर बिफर उठा. उसने क्रोधित होकर कहा- "बिलकुल नहीं, हम लोग ये सब नहीं मानते हैं. आप भोजन की तैयारी जारी रखवाइए". उस अंग्रेज अधिकारी की नाराजगी के सामने आख़िरकार नवाब को झुकना पडा. इस बीच चूल्हे में आग
भभक उठी थी. उस पर देग चढाने की तैयारी हो रही थी. इसी दरम्यान वहां अचानक जलाराम बापा राम नाम जपते हुए आ पहुंचे. आते ही वे औपचारिकतावश न तो नवाब से मिले और न ही अंग्रेज अधिकारी से, बल्कि सीधे
जलते चूल्हों के पास पहुँच गए. पास में शिकार किये हुए मृत बतख और काला हिरण पिंजरे में रखे हुए थे. कुछ ही देर बाद इन्हें भी पकाने की तैयारी थी. जलाराम बापा ने आते ही बिना देर किये उस पिंजरे को खोल दिया और कहा- "बाहर निकलो प्यारों, अब तुम आजाद हो. अपने अपने स्थान अब जा सकते हो".जलाराम बापा के इतना बोलते ही मृत बतख जीवित होकर पिंजरे से बाहर निकल आये और वहां से चलते बने. दूसरे पिंजरे के पास भी जाकर जलाराम बापा ने ऐसा ही कहा. पल भर में मृत काला हिरण भी जीवित होकर पिंजरे से बाहर निकल आया और फिर कुलांचे मारते हुए चला गया. इस दौरान जानकारी मिलने पर नवाब और अंग्रेज अधिकारी भी सेवकों के साथ जलाराम बापा के पीछे पीछे पहुँच गए थे. यह चमत्कारिक दृश्य देख कर सभी लोग आश्चर्यचकित रह गए. नवाब को आत्मग्लानी हुई. उन्होंने हाथ जोड़ कर जलाराम बापा से माफी मांगते हुए कहा- "बापा, मुझे माफ़ कर दीजिये. मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई. आइन्दा ऐसा नहीं करूंगा.आप वास्तव में खुदा के नेक और सच्चे बन्दे हैं". फिर नवाब ने जलाराम बापा के चरण स्पर्श किये. कट्टर अंग्रेज अधिकारी को भी अपराध बोध हुआ. उसने भी
जलाराम बापा के सम्मान में अपनी टोपी उतारकर क्षमा माँगी. तत्पश्चात अदब से उन्हें सेल्यूट किया. जलाराम बापा अपने साथ पर्याप्त भोजन लेकर आये थे. सबको उन्होंने प्रेम से खिलाया. उसके बाद वे चल पड़े. ( जारी )
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