डूबता जहाज पार लगाया : उन दिनों सौराष्ट्र का सागर तटीय क्षेत्र गुजरात का प्रसिद्द अंतर्देशीय व्यापारिक इलाका माना जाता था. सौराष्ट्र के बंदरगाहों का व्यापारिक वर्चस्व था. जोडीया पोर्ट भी इनमें से एक था. यहाँ अमरचंद नामक एक शेठ रहता था. साहसिक सामुद्रिक व्यापारी के रूप में उसकी ख्याति थी. समीपवर्ती खाड़ी देशों में वह पानी जहाज के जरिये मौसमी वस्तुओं का व्यापार करता था.
एक बार अमरचंद पानी जहाज में मौसमी माल भर कर अपने कुछ कर्मचारियों के साथ बसरा के लिए निकल पडा. वहां उसने सारा माल बेच कर अच्छा मुनाफा कमाया. वापसी के वक़्त उस रकम के एवज में उसने बसरा से विभिन्न मसाले खरीदे. मसालों से लदा जहाज जोडीया पोर्ट की तरफ आ रहा था. कई दिनों के सामुद्रिक सफ़र के बाद सबके मन में परिजनों से मिलने की तीव्र उत्कंठा थी. समुद्र की हवाओं के खुशनुमा थपेड़े और समुद्री परिंदों के कलरव से शेठ अमरचंद सहित सबका मन प्रफ्फुल्लित था. किन्तु कुदरत कुछ और ही मंजूर था. जोडीया पोर्ट अभी भी दस मील दूर था. तभी अचानक हवाओं का रूख बदल गया. अगले ही क्षण खुशनुमा थपेड़े जानलेवा तूफ़ान में बदल गए. समुद्र में तेज लहरें उठने लगीं. जहाज डोलने लगा. सबका कलेजा काँप उठा. मौत का मंजर दिखने लगा. शेठ अमरचंद के आदेश पर सभी कर्मचारी सुरक्षा की तैयारियों में जुट गए.
इसी बीच जहाज के पिछले हिस्से में छिद्र हो गया, जिससे जहाज में पानी भरना शुरू हो गया. जान बचने की जो थोड़ी उम्मीद थी वह भी हवा हो गई. सब अपने अपने इष्ट देव को याद करने लगे. सामुद्रिक सफ़र में शेठ अमरचंद की उम्र बीतने को आई थी. कई झंझावातों को उसने साहसपूर्वक झेला था लेकिन इस तरह मौत सामने कभी नहीं मंडराई थी. किनारे आकर जहाज डूबेगा, इसका अंदेशा उसे सपने में भी कभी न हुआ था. दरिया देव की प्रार्थना भी असर नहीं दिखा रही थी. अब उसे लग रहा था कोई चमत्कार ही सबकी जान बचा सकता है. चमत्कार की बात जेहन में आते ही उसकी आँखें एकाएक चमक उठी. उसने कई लोगों के मुंह से वीरपुर के भक्त जलाराम बापा के विषय में चमत्कारिक घटनाएं सुनी थीं. यह भी सुना था यदि श्रद्धापूर्वक भक्त जलाराम बापा को याद कर कोई मन्नत माँगी जाय तो वह अवश्य पूरी होती है, चाहे बड़े से बड़ा संकट क्यों न आये, मन्नत मांगते ही वह संकट चमत्कारिक रूप से दूर हो जाता है. शेठ अमरचंद ने बगैर कोई देर किये हाथ जोड़ कर जलाराम बापा का स्मरण करते हुए मन्नत मानी- "हे जलाराम बापा, संतों के संत, दीनदुखियों के तारणहार, आज तक मैं केवल धन्धेपानी में ही डूबा रहा, आपके दर्शन कर चरण स्पर्श का सौभाग्य प्राप्त न कर सका, वीरपुर आने का समय न निकाल सका, शायद इसीलिये दंड स्वरुप आज मेरे जीवन की नैय्या डूब रही है. मजबूरी में अब आपके प्रति श्रद्धा भाव जागृत हुआ है, अतः क्षमा चाहता हूँ. आप तो सबकी रक्षा करते हैं, हमारी जान भी अब आपके हवाले है. बापा, हमारा यह डूबता जहाज यदि सकुशल किनारे पहुँच जाएगा तो मैं वीरपुर आकर सदाव्रत-अन्नदान कार्य के लिए चालीस बोरी पतला चावल भेंट करूंगा". शेठ अमरचंद आँख बंद कर जलाराम बापा की प्रार्थना करता रहा. अगले ही पल चमत्कार सा हो गया. मौसम का मिजाज अचानक सकारात्मक हो गया. देखते ही देखते स्थिति सामान्य हो गई. तेज तूफानी हवाएं थम गई, जहाज में हुए छिद्र से पानी घुसना बंद हो गया. शेठ अमरचंद द्वारा जलाराम बापा को याद कर मानी गई मन्नत का सुपरिणाम दिखने लगा. प्राणों का संकट टलता देख कर सबने चैन की सांस ली. सबके कलेजे को ठंडक पहुँची. मौत के मुंह से वापस सुरक्षित लौटने पर शेठ अमरचंद ने हाथ जोड़ कर जलाराम बापा को धन्यवाद दिया. उनके कर्मचारियों को भी तब तक जलाराम बापा की मन्नत मानने के बारे में ज्ञात हो चुका था, इसलिए उन्होंने भी मन्नत के फलीभूत होने पर जलाराम बापा के प्रति कृतज्ञता जताई.
उधर, सागर तट पर शेठ अमरचंद और उनके कर्मचारियों के परिवार वाले जहाज के किनारे लगने की प्रतीक्षा में चिंतातुर होकर खड़े थे. जैसे ही जहाज सकुशल किनारे लगा सब खुशी से उछल पड़े. जहाज से उतर कर शेठ अमरचंद और उनके कर्मचारी हर्षोल्लास के साथ परिजनों से गले मिले. आज नया जीवन मिलने पर उनकी खुशी
दुगनी थी. परिजनों को भी सारा घटनाक्रम मालूम होने पर सुखद आश्चर्य हुआ. फिर सबने जलाराम बापा के जयकारे लगाए. शेठ अमरचंद द्वारा लाया गया सारा सामान जहाज से उतार कर कर्मचारियों ने गोदाम में पहुंचा दिया. सब लोग बस्ती पहुंचे. सकुशल वापसी होने की खुशी में रात को जश्न मनाया गया. पूरी बस्ती में जलाराम बापा की चमत्कारिक शक्ति की चर्चा होने लगी. मन्नत के फलने पर लोगो में जलाराम बापा के प्रति श्रद्धा
और भी बढ़ गई.
पुरानी आदत से लाचार शेठ अमरचंद दूसरे दिन ही जलाराम बापा की मन्नत विषयक दायित्व को भूल कर पहले की तरह धन्धेपानी में डूब गया. मन्नत फलीभूत होने के एवज में चालीस बोरी पतला अनाज जलाराम बापा के सदाव्रत-अन्नदान कार्य हेतु वीरपुर भेजने में वह टालमटोल करने लगा. मौत का संकट झेल चुके कर्मचारियों द्वारा जब उसे इस सन्दर्भ में याद दिलाया जाता तो वह लापरवाही पूर्वक कहता- "चावल भेज देंगे, ऐसी भी क्या जल्दी है. कहाँ उनका चावल भागा जा रहा है". शेठ का यह स्वार्थी और अशिष्ट जवाब सुन कर कर्मचारी हैरान होकर चुप रह जाते. दिन गुजरते रहे. लेकिन शेठ अमरचंद को सदबुद्धि नहीं आई. "काम निकल गया, पहचानते नहीं" की तर्ज पर शेठ अमरचंद के नकारात्मक रवैये की आलोचना पूरी बस्ती में होने लगी. एक दिन उनके धर्म भीरू मुनीम ने शेठ को खरी खरी सुनाते हुए कहा- "शेठ जी, आप यह अच्छा नहीं कर रहे हैं. पूरी बस्ती आपका मखौल उड़ा रही है". शेठ अमरचंद अपनी गद्दी पर लेट कर आराम फरमा रहा था. उसने उत्सुकतावश पूछा- "क्यों, मैंने ऐसा कौन सा गुनाह कर दिया है जो बस्ती वालों को तकलीफ हो रही है". मुनीम ने प्रत्युत्तर दिया- "हाँ, आपने वचन न निभाने का गुनाह किया है. बस्ती वालों का मानना है आप वचन के पक्के नहीं हैं". शेठ ने झल्लाते हुए कहा- "कौन सा वचन, मैंने कब, किसको, कैसा वचन दिया है, साफ़ साफ़ बताओ". मुनीम ने याद दिलाते हुए कहा- "शेठ जी, आप शायद भूल गए हैं या फिर भूलने का अभिनय कर रहे हैं. याद करिए, बसरा से लौटते समय जब आपके जहाज के डूबने की नौबत आ गई थी तब आपने प्राणों की रक्षा के लिए जलाराम बापा को याद कर सकुशल घर पहुचने की मन्नत माँगी थी. मन्नत फलने पर आपने वीरपुर चालीस बोरी पतला चावल भेजने का प्रण किया था. इतने दिन गुजरने के बाद भी आपने अपना वचन नहीं निभाया है, यह गुनाह नहीं तो और क्या है". यह सच बात सुन कर भी शेठ को न आत्मग्लानी और न ही पश्चाताप. उसने अहसान के अंदाज में कहा- "मैं इससे कब इनकार कर रहा हूँ. बस्ती वालों को बोलने का मौक़ा चाहिए, तुम उनकी बातों पर कान मत लगाओ. वीरपुर चावल ही तो भेजना है न, कल जाकर चालीस बोरी मोटा चावल भगत के यहाँ पटक आओ". मुनीम को शेठ की यह बात अच्छी नहीं लगी. ऐसी उम्मीद उससे न थी. मुनीम ने शेठ को टोकते हुए कहा- "किन्तु शेठ जी, आपने तो पतला चावल देने का प्रण किया था तो फिर चालीस बोरी मोटा चावल ले जाने को क्यों कह रहे हैं". शेठ ने उपहास पूर्वक जवाब दिया- "भूखे लोगों के लिए क्या पतला क्या मोटा चावल, पेट भरने से मतलब होना चाहिए. मैं जो कह रहा हूँ वह करो".
दूसरे दिन भोर होते ही शेठ के आदेशानुसार मुनीम चालीस बोरी मोटा चावल बैलगाड़ी में डलवा कर वीरपुर रवाना हो गया. छः दिन बाद जब मुनीम वीरपुर पहुंचा तब जलाराम बापा प्रभु भक्ति में ध्यानमग्न थे. जलाराम बापा के चरण स्पर्श करने के बाद उसने अपना परिचय देते हुए कहा- "बापा, शेठ अमरचंद ने मुझे भेजा है". जलाराम बापा ने मुस्कुराते हुए कहा- "भाई, जोडीया से सदाव्रत के लिए चावल लेकर आये हो, अच्छी बात है, रखवा दो".यह वाक्य सुन कर मुनीम हतप्रभ रह गया. उसने जलाराम बापा को अभी तो पूरी बात बताई ही नहीं थी, फिर उन्हें आने का मकसद कैसे मालूम हो गया. उसकी हैरानी भांपते हुए जलाराम बापा ने कहा- "भाई, परेशान न हो, इतने दूर से आये हो, बैल थक गए होंगे और तुम भी. बैलों को गाडी से अलग कर छाँव में लाकर उन्हें चारा पानी दे दो और तुम भी प्रभु के दर्शन कर भोजन कर लो". जलाराम बापा ने तत्काल सेवकों को बुला कर बैलों और मुनीम की सेवा करने का आदेश दिया. मुनीम ने जलाराम बापा को शेठ का पत्र देते हुए कहा- "बापा, शेठ जी ने आपको राम राम कहा है". स्वीकारोक्ति स्वरुप उन्होंने भी कहा- "राम राम".
रात रूकने के बाद अगले दिन सुबह मुनीम ने जलाराम बापा से वापस जोडीया लौटने की आज्ञा माँगी तो जलाराम बापा बोले- "भाई, इतनी दूर से आये हो, अभी तो थकान भी नहीं उतरी होगी, दो चार दिन और यही आराम करो ,फिर भले चले जाना ".जलाराम बापा के आग्रह का आदर करते हुए मुनीम रूक गया. पांचवें दिन वापसी के समय जलाराम बापा ने मुनीम की बैलगाड़ी में रास्ते के लिए खराब न होने वाला सूखा भोजन और पीने का पानी रखवा दिया. रवाना होते समय मुनीम ने जलाराम बापा के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया फिर हाथ जोड़ कर कहा- "बापा, आथित्य सत्कार के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद. मेरे शेठ के लिए कोई जवाबी चिट्ठी देना हो तो दे दीजिये". जलाराम बापा ने कहा- "नहीं भाई, चिट्ठी तो नहीं देना है. हाँ, यह सन्देश अवश्य दे देना सेवा कार्य में प्रत्येक सहायता मायने रखती है, इसलिए अफ़सोस नहीं करना. यह भी कहना जब उनके जहाज में छिद्र हो गया था और पानी घुस रहा था तब बहाव में मेरा कुर्ता आकर छिद्र में फंस गया था, उसे निकाल कर किसी जरूरतमंद भाई को भेंट कर देंगे". यह सुन कर मुनीम सकपका गया. अपने शेठ की नासमझी पर उसे क्रोध आने लगा. जलाराम बापा उसके अंतर्द्वंद को समझ गए और कहा- "भाई, दुखी न हो, शांत रहो, प्रभु आपका सफ़र सुखद रखेगा. प्रेम से जोडीया जाओ". मुनीम जलाराम बापा से आशीर्वाद लेकर विदा हो गया.
जोडीया पहुँच कर मुनीम सीधे शेठ के पास जाकर जलाराम बापा का सन्देश सुनाया. मुनीम की बैलगाड़ी आती देख आसपास के लोग भी उत्सुकतावश एकत्रित हो गए. जलाराम बापा का सन्देश सुन कर शेठ अमरचंद एक पल के लिए जडवत सा हो गया. वह उसी क्षण सागर तीरे अपने जहाज की तरफ दौड़ा. जिज्ञासावश मुनीम सहित बस्ती वाले भी शेठ के पीछे पीछे दौड़े. जहाज के पास पहुँच कर शेठ ने मुआयना किया तो देखा जहाज के पिछले हिस्से में बने छिद्र में एक कपड़ा फंसा हुआ था. उसे निकाल कर देखा तो वह सचमुच जलाराम बापा का कुर्ता था. आश्चर्य से शेठ की आँखें फटी रह गई. कुरते की जेब से जलाराम बापा की दांत-खोद्रनी भी निकली. यह सब देख कर लोग चौक गए. शेठ आत्मग्लानी से पीड़ित हो गया. उसे पश्चाताप होने लगा. सर पर दोनों हाथ रख कर वह वहीं बैठ गया और जोर जोर से रोने लगा. वह रोते हुए कहने लगा- "हे बापा, मुझे क्षमा करना, इस नादाँ से बहुत बड़ी भूल हुई है. आपने मेरी और मेरे कर्मचारियों के जीवन की रक्षा की और मैं आपको सही अर्थ में समझ नहीं पाया". बस्ती वालों ने उसे शांत कराया और घर लेकर आये.
शेठ अमरचंद ने तत्काल बैलगाड़ी में चालीस बोरी पतला चावल डलवाया, जलाराम बापा का कुर्ता झोले में रखा. फिर पत्नी और मुनीम को साथ लेकर वीरपुर के लिए रवाना हो गया. वीरपुर पहुचने पर शेठ जलाराम बापा के पैरों में गिर कर खूब रोया. जलाराम बापा के कहने के बावजूद वह उठने को तैयार नहीं था. काफी समझाने के बाद शेठ खडा हुआ और दोनों कान पकड़ कर माफी माँगने लगा. उसके सर पर हाथ फेरते हुए जलाराम बापा ने आशीर्वाद देकर कहा- "भाई, जब जागो तब सवेरा. दुखी न हो. प्रभु समय आने पर सब बिगड़ी बात बना देता है. प्रसन्न होकर
जोडीया जाओ और दीनदुखियों की सेवा सच्चे मन से करो, उन्हीं में तुम्हें प्रभु के दर्शन होंगे". शेठ की पत्नी और मुनीम ने भी जलाराम बापा के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया तत्पश्चात वे सभी जोडीया के लिए प्रस्थान किये. ( जारी ) . . .
एक बार अमरचंद पानी जहाज में मौसमी माल भर कर अपने कुछ कर्मचारियों के साथ बसरा के लिए निकल पडा. वहां उसने सारा माल बेच कर अच्छा मुनाफा कमाया. वापसी के वक़्त उस रकम के एवज में उसने बसरा से विभिन्न मसाले खरीदे. मसालों से लदा जहाज जोडीया पोर्ट की तरफ आ रहा था. कई दिनों के सामुद्रिक सफ़र के बाद सबके मन में परिजनों से मिलने की तीव्र उत्कंठा थी. समुद्र की हवाओं के खुशनुमा थपेड़े और समुद्री परिंदों के कलरव से शेठ अमरचंद सहित सबका मन प्रफ्फुल्लित था. किन्तु कुदरत कुछ और ही मंजूर था. जोडीया पोर्ट अभी भी दस मील दूर था. तभी अचानक हवाओं का रूख बदल गया. अगले ही क्षण खुशनुमा थपेड़े जानलेवा तूफ़ान में बदल गए. समुद्र में तेज लहरें उठने लगीं. जहाज डोलने लगा. सबका कलेजा काँप उठा. मौत का मंजर दिखने लगा. शेठ अमरचंद के आदेश पर सभी कर्मचारी सुरक्षा की तैयारियों में जुट गए.
इसी बीच जहाज के पिछले हिस्से में छिद्र हो गया, जिससे जहाज में पानी भरना शुरू हो गया. जान बचने की जो थोड़ी उम्मीद थी वह भी हवा हो गई. सब अपने अपने इष्ट देव को याद करने लगे. सामुद्रिक सफ़र में शेठ अमरचंद की उम्र बीतने को आई थी. कई झंझावातों को उसने साहसपूर्वक झेला था लेकिन इस तरह मौत सामने कभी नहीं मंडराई थी. किनारे आकर जहाज डूबेगा, इसका अंदेशा उसे सपने में भी कभी न हुआ था. दरिया देव की प्रार्थना भी असर नहीं दिखा रही थी. अब उसे लग रहा था कोई चमत्कार ही सबकी जान बचा सकता है. चमत्कार की बात जेहन में आते ही उसकी आँखें एकाएक चमक उठी. उसने कई लोगों के मुंह से वीरपुर के भक्त जलाराम बापा के विषय में चमत्कारिक घटनाएं सुनी थीं. यह भी सुना था यदि श्रद्धापूर्वक भक्त जलाराम बापा को याद कर कोई मन्नत माँगी जाय तो वह अवश्य पूरी होती है, चाहे बड़े से बड़ा संकट क्यों न आये, मन्नत मांगते ही वह संकट चमत्कारिक रूप से दूर हो जाता है. शेठ अमरचंद ने बगैर कोई देर किये हाथ जोड़ कर जलाराम बापा का स्मरण करते हुए मन्नत मानी- "हे जलाराम बापा, संतों के संत, दीनदुखियों के तारणहार, आज तक मैं केवल धन्धेपानी में ही डूबा रहा, आपके दर्शन कर चरण स्पर्श का सौभाग्य प्राप्त न कर सका, वीरपुर आने का समय न निकाल सका, शायद इसीलिये दंड स्वरुप आज मेरे जीवन की नैय्या डूब रही है. मजबूरी में अब आपके प्रति श्रद्धा भाव जागृत हुआ है, अतः क्षमा चाहता हूँ. आप तो सबकी रक्षा करते हैं, हमारी जान भी अब आपके हवाले है. बापा, हमारा यह डूबता जहाज यदि सकुशल किनारे पहुँच जाएगा तो मैं वीरपुर आकर सदाव्रत-अन्नदान कार्य के लिए चालीस बोरी पतला चावल भेंट करूंगा". शेठ अमरचंद आँख बंद कर जलाराम बापा की प्रार्थना करता रहा. अगले ही पल चमत्कार सा हो गया. मौसम का मिजाज अचानक सकारात्मक हो गया. देखते ही देखते स्थिति सामान्य हो गई. तेज तूफानी हवाएं थम गई, जहाज में हुए छिद्र से पानी घुसना बंद हो गया. शेठ अमरचंद द्वारा जलाराम बापा को याद कर मानी गई मन्नत का सुपरिणाम दिखने लगा. प्राणों का संकट टलता देख कर सबने चैन की सांस ली. सबके कलेजे को ठंडक पहुँची. मौत के मुंह से वापस सुरक्षित लौटने पर शेठ अमरचंद ने हाथ जोड़ कर जलाराम बापा को धन्यवाद दिया. उनके कर्मचारियों को भी तब तक जलाराम बापा की मन्नत मानने के बारे में ज्ञात हो चुका था, इसलिए उन्होंने भी मन्नत के फलीभूत होने पर जलाराम बापा के प्रति कृतज्ञता जताई.
उधर, सागर तट पर शेठ अमरचंद और उनके कर्मचारियों के परिवार वाले जहाज के किनारे लगने की प्रतीक्षा में चिंतातुर होकर खड़े थे. जैसे ही जहाज सकुशल किनारे लगा सब खुशी से उछल पड़े. जहाज से उतर कर शेठ अमरचंद और उनके कर्मचारी हर्षोल्लास के साथ परिजनों से गले मिले. आज नया जीवन मिलने पर उनकी खुशी
दुगनी थी. परिजनों को भी सारा घटनाक्रम मालूम होने पर सुखद आश्चर्य हुआ. फिर सबने जलाराम बापा के जयकारे लगाए. शेठ अमरचंद द्वारा लाया गया सारा सामान जहाज से उतार कर कर्मचारियों ने गोदाम में पहुंचा दिया. सब लोग बस्ती पहुंचे. सकुशल वापसी होने की खुशी में रात को जश्न मनाया गया. पूरी बस्ती में जलाराम बापा की चमत्कारिक शक्ति की चर्चा होने लगी. मन्नत के फलने पर लोगो में जलाराम बापा के प्रति श्रद्धा
और भी बढ़ गई.
पुरानी आदत से लाचार शेठ अमरचंद दूसरे दिन ही जलाराम बापा की मन्नत विषयक दायित्व को भूल कर पहले की तरह धन्धेपानी में डूब गया. मन्नत फलीभूत होने के एवज में चालीस बोरी पतला अनाज जलाराम बापा के सदाव्रत-अन्नदान कार्य हेतु वीरपुर भेजने में वह टालमटोल करने लगा. मौत का संकट झेल चुके कर्मचारियों द्वारा जब उसे इस सन्दर्भ में याद दिलाया जाता तो वह लापरवाही पूर्वक कहता- "चावल भेज देंगे, ऐसी भी क्या जल्दी है. कहाँ उनका चावल भागा जा रहा है". शेठ का यह स्वार्थी और अशिष्ट जवाब सुन कर कर्मचारी हैरान होकर चुप रह जाते. दिन गुजरते रहे. लेकिन शेठ अमरचंद को सदबुद्धि नहीं आई. "काम निकल गया, पहचानते नहीं" की तर्ज पर शेठ अमरचंद के नकारात्मक रवैये की आलोचना पूरी बस्ती में होने लगी. एक दिन उनके धर्म भीरू मुनीम ने शेठ को खरी खरी सुनाते हुए कहा- "शेठ जी, आप यह अच्छा नहीं कर रहे हैं. पूरी बस्ती आपका मखौल उड़ा रही है". शेठ अमरचंद अपनी गद्दी पर लेट कर आराम फरमा रहा था. उसने उत्सुकतावश पूछा- "क्यों, मैंने ऐसा कौन सा गुनाह कर दिया है जो बस्ती वालों को तकलीफ हो रही है". मुनीम ने प्रत्युत्तर दिया- "हाँ, आपने वचन न निभाने का गुनाह किया है. बस्ती वालों का मानना है आप वचन के पक्के नहीं हैं". शेठ ने झल्लाते हुए कहा- "कौन सा वचन, मैंने कब, किसको, कैसा वचन दिया है, साफ़ साफ़ बताओ". मुनीम ने याद दिलाते हुए कहा- "शेठ जी, आप शायद भूल गए हैं या फिर भूलने का अभिनय कर रहे हैं. याद करिए, बसरा से लौटते समय जब आपके जहाज के डूबने की नौबत आ गई थी तब आपने प्राणों की रक्षा के लिए जलाराम बापा को याद कर सकुशल घर पहुचने की मन्नत माँगी थी. मन्नत फलने पर आपने वीरपुर चालीस बोरी पतला चावल भेजने का प्रण किया था. इतने दिन गुजरने के बाद भी आपने अपना वचन नहीं निभाया है, यह गुनाह नहीं तो और क्या है". यह सच बात सुन कर भी शेठ को न आत्मग्लानी और न ही पश्चाताप. उसने अहसान के अंदाज में कहा- "मैं इससे कब इनकार कर रहा हूँ. बस्ती वालों को बोलने का मौक़ा चाहिए, तुम उनकी बातों पर कान मत लगाओ. वीरपुर चावल ही तो भेजना है न, कल जाकर चालीस बोरी मोटा चावल भगत के यहाँ पटक आओ". मुनीम को शेठ की यह बात अच्छी नहीं लगी. ऐसी उम्मीद उससे न थी. मुनीम ने शेठ को टोकते हुए कहा- "किन्तु शेठ जी, आपने तो पतला चावल देने का प्रण किया था तो फिर चालीस बोरी मोटा चावल ले जाने को क्यों कह रहे हैं". शेठ ने उपहास पूर्वक जवाब दिया- "भूखे लोगों के लिए क्या पतला क्या मोटा चावल, पेट भरने से मतलब होना चाहिए. मैं जो कह रहा हूँ वह करो".
दूसरे दिन भोर होते ही शेठ के आदेशानुसार मुनीम चालीस बोरी मोटा चावल बैलगाड़ी में डलवा कर वीरपुर रवाना हो गया. छः दिन बाद जब मुनीम वीरपुर पहुंचा तब जलाराम बापा प्रभु भक्ति में ध्यानमग्न थे. जलाराम बापा के चरण स्पर्श करने के बाद उसने अपना परिचय देते हुए कहा- "बापा, शेठ अमरचंद ने मुझे भेजा है". जलाराम बापा ने मुस्कुराते हुए कहा- "भाई, जोडीया से सदाव्रत के लिए चावल लेकर आये हो, अच्छी बात है, रखवा दो".यह वाक्य सुन कर मुनीम हतप्रभ रह गया. उसने जलाराम बापा को अभी तो पूरी बात बताई ही नहीं थी, फिर उन्हें आने का मकसद कैसे मालूम हो गया. उसकी हैरानी भांपते हुए जलाराम बापा ने कहा- "भाई, परेशान न हो, इतने दूर से आये हो, बैल थक गए होंगे और तुम भी. बैलों को गाडी से अलग कर छाँव में लाकर उन्हें चारा पानी दे दो और तुम भी प्रभु के दर्शन कर भोजन कर लो". जलाराम बापा ने तत्काल सेवकों को बुला कर बैलों और मुनीम की सेवा करने का आदेश दिया. मुनीम ने जलाराम बापा को शेठ का पत्र देते हुए कहा- "बापा, शेठ जी ने आपको राम राम कहा है". स्वीकारोक्ति स्वरुप उन्होंने भी कहा- "राम राम".
रात रूकने के बाद अगले दिन सुबह मुनीम ने जलाराम बापा से वापस जोडीया लौटने की आज्ञा माँगी तो जलाराम बापा बोले- "भाई, इतनी दूर से आये हो, अभी तो थकान भी नहीं उतरी होगी, दो चार दिन और यही आराम करो ,फिर भले चले जाना ".जलाराम बापा के आग्रह का आदर करते हुए मुनीम रूक गया. पांचवें दिन वापसी के समय जलाराम बापा ने मुनीम की बैलगाड़ी में रास्ते के लिए खराब न होने वाला सूखा भोजन और पीने का पानी रखवा दिया. रवाना होते समय मुनीम ने जलाराम बापा के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया फिर हाथ जोड़ कर कहा- "बापा, आथित्य सत्कार के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद. मेरे शेठ के लिए कोई जवाबी चिट्ठी देना हो तो दे दीजिये". जलाराम बापा ने कहा- "नहीं भाई, चिट्ठी तो नहीं देना है. हाँ, यह सन्देश अवश्य दे देना सेवा कार्य में प्रत्येक सहायता मायने रखती है, इसलिए अफ़सोस नहीं करना. यह भी कहना जब उनके जहाज में छिद्र हो गया था और पानी घुस रहा था तब बहाव में मेरा कुर्ता आकर छिद्र में फंस गया था, उसे निकाल कर किसी जरूरतमंद भाई को भेंट कर देंगे". यह सुन कर मुनीम सकपका गया. अपने शेठ की नासमझी पर उसे क्रोध आने लगा. जलाराम बापा उसके अंतर्द्वंद को समझ गए और कहा- "भाई, दुखी न हो, शांत रहो, प्रभु आपका सफ़र सुखद रखेगा. प्रेम से जोडीया जाओ". मुनीम जलाराम बापा से आशीर्वाद लेकर विदा हो गया.
जोडीया पहुँच कर मुनीम सीधे शेठ के पास जाकर जलाराम बापा का सन्देश सुनाया. मुनीम की बैलगाड़ी आती देख आसपास के लोग भी उत्सुकतावश एकत्रित हो गए. जलाराम बापा का सन्देश सुन कर शेठ अमरचंद एक पल के लिए जडवत सा हो गया. वह उसी क्षण सागर तीरे अपने जहाज की तरफ दौड़ा. जिज्ञासावश मुनीम सहित बस्ती वाले भी शेठ के पीछे पीछे दौड़े. जहाज के पास पहुँच कर शेठ ने मुआयना किया तो देखा जहाज के पिछले हिस्से में बने छिद्र में एक कपड़ा फंसा हुआ था. उसे निकाल कर देखा तो वह सचमुच जलाराम बापा का कुर्ता था. आश्चर्य से शेठ की आँखें फटी रह गई. कुरते की जेब से जलाराम बापा की दांत-खोद्रनी भी निकली. यह सब देख कर लोग चौक गए. शेठ आत्मग्लानी से पीड़ित हो गया. उसे पश्चाताप होने लगा. सर पर दोनों हाथ रख कर वह वहीं बैठ गया और जोर जोर से रोने लगा. वह रोते हुए कहने लगा- "हे बापा, मुझे क्षमा करना, इस नादाँ से बहुत बड़ी भूल हुई है. आपने मेरी और मेरे कर्मचारियों के जीवन की रक्षा की और मैं आपको सही अर्थ में समझ नहीं पाया". बस्ती वालों ने उसे शांत कराया और घर लेकर आये.
शेठ अमरचंद ने तत्काल बैलगाड़ी में चालीस बोरी पतला चावल डलवाया, जलाराम बापा का कुर्ता झोले में रखा. फिर पत्नी और मुनीम को साथ लेकर वीरपुर के लिए रवाना हो गया. वीरपुर पहुचने पर शेठ जलाराम बापा के पैरों में गिर कर खूब रोया. जलाराम बापा के कहने के बावजूद वह उठने को तैयार नहीं था. काफी समझाने के बाद शेठ खडा हुआ और दोनों कान पकड़ कर माफी माँगने लगा. उसके सर पर हाथ फेरते हुए जलाराम बापा ने आशीर्वाद देकर कहा- "भाई, जब जागो तब सवेरा. दुखी न हो. प्रभु समय आने पर सब बिगड़ी बात बना देता है. प्रसन्न होकर
जोडीया जाओ और दीनदुखियों की सेवा सच्चे मन से करो, उन्हीं में तुम्हें प्रभु के दर्शन होंगे". शेठ की पत्नी और मुनीम ने भी जलाराम बापा के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया तत्पश्चात वे सभी जोडीया के लिए प्रस्थान किये. ( जारी ) . . .
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