रविवार, 8 जनवरी 2012

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 40 - antim )

स्वर्ग जाते समय रथ में निंदक को भी बैठने कहा : जलाराम बापा के देहावसान के बाद स्वर्ग जाते समय उनकी दूसरी और अंतिम मुलाक़ात अपने घोर निंदक टीलाराम के साथ हुई. दरअसल, जलाराम बापा अनुयायियों को जितना सम्मान देते थे, उतना ही अपने निंदकों को भी आदर देते थे. वे सभी व्यक्तियों में प्रभु का अंश देखते थे. सार्वजानिक तौर पर अथवा पीठ पीछे बुराई करने वालों को भी वे अपना आशीर्वाद देते थे. उनकी हरसंभव मदद भी करते थे. जलाराम बापा के गाँव वीरपुर में भी उनका एक घोर निंदक था टीलाराम. पेशे से वह किराना दुकानदार था. आर्थिक रूप से वह सक्षम था. कद में वह जरूर ठिगना था, लेकिन कुत्सित विचारों में उंचा था. जितना वह जमीन के ऊपर था, उतना जमीन के नीचे भी. दुकानदारी से जब वह निवृत्त हो जाता तो पैदल बाजार में निकल पड़ता अपने करीबी लोगों की बुराई करने. चहेरे का रंग गोरा था, किन्तु जुबान काली थी. खाली वक़्त में परनिंदा का सुख लेना उसका शगल बन गया था. जो उसकी मदद करता था या अपने साथ रखता था, उसे ही पहले वह अपना निशाना बनाता था. लोगों को अपमानित करने वह अक्सर अवसर की तलाश में रहता. हद तो तब हो जाती, जब टीलाराम जलाराम बापा को भी घेर लेता और फिर धरा का बोझ बताते हुए उन्हें संतुलन की सीख देता. उन्हें ढोंगी संत साबित करने में अपनी ऊर्जा नष्ट करता. लेकिन उदारमना जलाराम बापा उसकी अपमानजनक बातों और निंदा युक्त बर्ताव का बिलकुल बुरा नहीं मानते थे. वे उसकी बातों को मुस्कुरा कर अनसुना कर देते थे. जिससे खीजवश टीलाराम पागलों की तरह बडबडाते हुए उनके पीछे पीछे घर तक पहुँच जाता. फिर भी जलाराम बापा उसे सम्मान के साथ अपने घर में बैठाते और उसका आथित्य सत्कार करते.
जलाराम बापा जब गंभीर रूप से बीमार हुए, तब टीलाराम भी तबियत की पूछपरख के बहाने उनके घर पहुँच गया. अकेले जाने का साहस नहीं हो रहा था, तो उसने अपने एक रिश्तेदार को भी साथ रख लिया. सभी अनुयायी क्रमवार जलाराम बापा के चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद ले रहे थे. टीलाराम किनारे चुपचाप बैठ कर जलाराम बापा के मनोभाव को भांपने की कोशिश कर रहा था. उस पर जब जलाराम बापा की नजर पडी तो उन्होंने उसे इशारे से अपने पास बुलाया और पूछा- "कैसे हो टीलाराम भाई, मजे में हो न?". टीलाराम अपनी पुरानी हरकत से बाज नहीं आया. खुरापात उसके रग रग में थी. उसने व्यंगात्मक लहजे कहा- "बापा, अपनी तो हमेशा मौज रहती
है. आप अपना ध्यान रखो. अब आपकी उम्र बहुत हो गई है, पता नहीं कब आपका राम नाम सत्य हो जाय. खैर,
आपको क्या चिंता है. आपके लिए तो स्वर्ग में जगह निर्धारित है". जलाराम बापा ने मुस्कुराते हुए प्रत्युत्तर दिया- "टीलाराम भाई, तुम्हारा अनुमान सही है, न जाने किस घड़ी में प्रभु श्रीराम का बुलावा आ जाय. वास्तव में प्रभु श्रीराम का नाम सत्य का पर्याय है. किन्तु स्वर्ग में मेरी जगह निर्धारित है या नहीं, यह तो मेरे प्रभु ही जानते हैं".
अनावश्यक बहस और कुतर्क करना टीलाराम के स्वभाव में शामिल था, इसलिए उसने व्यंग बाण छोड़ते हुए कहा- "क्यों बापा आप तो बेरोजगार होते हुए भी रोज भूखे और फटीचरों का पेट भरते हैं, दिन में दस बार भगवान को पूजते हैं, यह क्या कम है. फिर आपको स्वर्ग में जगह क्यों नहीं मिलेगी?". जलाराम बापा ने उसकी व्यंग भरी
जिज्ञासा को शांत करते हुए कहा- "टीलाराम भाई तुम ठहरे पक्के चंट व्यापारी. कर्म के बाद फल की चिंता करना
तुम्हारा धर्म है, किन्तु मैं  प्रभु और दीनदुखियों का निर्धन सेवक हूँ, मेरा धर्म मात्र कर्म करना है, फल की चिंता करना नहीं". टीलाराम तो तय करके आया था आज जलाराम बापा को ठीक करना है. उसने चुटकी लेते हुए कहा- "बापा, मैंने सुना है आपको लेने स्वर्ग से हवाई रथ आने वाला है?" जलाराम बापा हँसे और फिर पूछा- "क्यों तुझे मेरे साथ चलना है क्या?" टीलाराम बोला- "हाँ, बापा आपके सिवाय मुझे और कौन स्वर्ग के हवाई रथ में बैठा कर ले जाएगा. मुझे उस दिन का बेसब्री से इन्तजार रहेगा". जलाराम बापा ने यह कह कर बातचीत ख़त्म करनी चाही- "ठीक है टीलाराम भाई, स्वर्ग से जब हवाई रथ मुझे लेने आयेगा तो तुझे भी अपने साथ लेता जाउंगा".
टीलाराम की व्यंगात्मक लहजे वाली बातों को आसपास खड़े स्थानीय अनुयायी भी सुन रहे थे. हालांकि वे उसके
स्वभाव से परिचित थे, लेकिन टीलाराम द्वारा मौके की नजाकत को न समझने के कारण अनुयायी उस पर नाराज हो गए. जलाराम बापा ने सबको शांत रहने का इशारा किया. बात न बढे, इसलिए एक बुजुर्ग अनुयायी टीलाराम का हाथ पकड़ कर उसे बाहर ले गए और उसे विदा किया.
महा वदी नवमीं, मंगलवार की देर रात को टीलाराम जल्दी से नित्य कर्म से निवृत्त हुआ और जेतपुर जाने के लिए निकल पडा. वीरपुर गाँव से जेतपुर की दूरी आठ मील थी. वह जेतपुर से ही सामान लाकर बेचा करता था. वह दसमी, बुधवार की सुबह ही जेतपुर पहुँच गया. शीघ्रता से वह जरूरत का सामान खरीद कर वापस वीरपुर गाँव के लिए रवाना हो गया. वीरपुर गाँव पहुँचने के लिए अभी उसे तीन मील और चलना बाकी था, तभी उसे सामने से एक सुसज्जित रथ आता दिखाई दिया. टीलाराम सोचने लगा जरूर यह रथ किसी राजा महाराजा का होगा. अचंभित होकर वह आते हुए रथ को देखने लगा. अगले ही पल वह रथ उसके पास आकर रूक गया. गौर
से देखा तो उसकी आँखें चौंधिया गई. उसमें कोई और नहीं बल्कि स्वयं जलाराम बापा बैठे हुए थे. जलाराम बापा
को बैठा देख कर उसकी खुरापात जागृत हो गई. टीलाराम ने व्यंग कसा- "क्या बापा, किसी राजा का बुलावा आया है क्या?'. जलाराम बापा बोले- "हाँ टीलाराम भाई". उसने कहा- "आप ही की ऐश है. वैसे बताओ तो सही किस राजा के मेहमान बन कर जा रहे हो, किसने भेजा है यह रथ".जलाराम बापा ने अर्थपूर्ण मुस्कान के साथ संक्षिप्त प्रत्युत्तर दिया- "श्रीराम ने". वह मजाक उड़ाते हुए बोला- "इसका मतलब यह राजा का रथ नहीं बल्कि स्वर्ग का रथ है".जलाराम बापा ने कहा- "टीलाराम भाई, मैंने तुझसे वादा किया था स्वर्ग से जब हवाई रथ मुझे लेने आयेगा तो तुझे भी अपने साथ लेता जाउंगा, अब वह क्षण आ गया है, यह सब सामान छोड़ और बैठ मेरे साथ, हम स्वर्ग साथ चलेंगे". स्वर्ग का नाम सुनते ही टीलाराम की सिट्टी पिट्टी गम हो गई, उसकी हालत पतली हो गई, पसीने से वह तरबतर हो गया, भय से उसका पायजामा भी गिला हो गया. जलाराम बापा हंसते हुए
बोले- "चल जल्दी बैठ टीलाराम भाई , स्वर्ग जाने में देर हो रही है". उसने कन्नी काटते हुए कहा- "बापा, आपको ही मुबारक हो स्वर्ग, मुझे नहीं चलना है आपके साथ, मैं यहीं खुश हूँ". जलाराम बापा बोले- "फिर ये न कहना बापा रथ में बैठ कर अकेले स्वर्ग चले गए, और मुझे पूछा तक नहीं". टीलाराम ने टरकाने के अंदाज में जवाब दिया- "बापा, जल्दी निकल लो, आपको देर हो जायेगी. ऐसा होता है क्या स्वर्ग का रथ?" जलाराम बापा ने शांत भाव से कहा- "ठीक है, जैसी तुम्हारी इच्छा, राम-राम". फिर अगले ही पल जलाराम बापा का स्वर्ग रथ टीलाराम की नज़रों से ओझल हो गया.
टीलाराम बडबडाते हुए आखिरकार वीरपुर गाँव पहुँच गया और फिर दुकानदारी में व्यस्त हो गया. उधर, ग्रामवासी शमशान से लौट रहे थे. उन्हें देख कर टीलाराम सड़क पर आया और एक ग्रामीण से पूछा- "क्या भाई, किसका राम नाम सत्य हो गया है?". उसने भी आश्चर्य से पूछा- "अरे टीलाराम, तुझे नहीं मालूम पड़ा क्या, जलाराम बापा स्वर्ग सिधार गए हैं". यह सुनते ही टीलाराम सन्न रह गया. उसके ज्ञान-चक्षु खुल गए. उसे अपनी
गंभीर गलती समझ में आ गई. स्वर्ग जाने का सुनहरा अवसर उसने अज्ञानतावश गवां दिया. उसे बेहद पछतावा
होने लगा. वह अपना सर पटक पटक कर रोने लगा. यह अप्रत्याशित दृश्य देख कर लोग इकट्ठे हो गए. उन्हें ताज्जुब हुआ टीलाराम तो जलाराम बापा का घोर निंदक है, फिर क्यों वह उनके स्वर्गवासी होने पर दहाड़ मार मार रो रहा है. जब उससे बुजुर्ग अनुयायी ने रोने का कारण पूछा तो टीलाराम ने बताया- "भाई, मैं अपने दुर्भाग्य
पर रो रहा हूँ. मेरे कर्म ख़राब है इसीलिये मैंने जलाराम बापा के आग्रह को ठुकरा कर स्वर्ग जाने का अमूल्य अवसर खो दिया.मेरी मति भ्रष्ट हो गई थी". यह सुन कर सभी लोग अचंभित रह गए. जलाराम बापा के प्रति लोगों की श्रद्धा और अधिक बढ़ गई. उधर, घोर निंदक टीलाराम का भी ह्रदय परिवर्तन हो गया. वह अब दिन रात
जलाराम बापा के गुणगान करने लगा था. बापा के आदर्शों को अपना कर वह दीनदुखियों की सेवा में जुट गया. जलाराम बापा की स्मृतियाँ और उनके जीवन-आदर्श सेवा कार्यों के लिए प्रेरणा के स्त्रोत बन गए. (इतिश्री) ,   (लेखक- दिनेश ठक्कर "बापा"), (जलाराम बापा के प्रचलित किस्से और किवदंतियों पर आधारित)                                    .                                                                  .                          

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 39 )

मृत्यु के बाद मुंह बोली बहन से मुलाक़ात : जलाराम बापा अपनी नश्वर देह को त्याग कर स्वर्गवासी हो चुके थे. उनकी काया की अंतिम यात्रा प्रारम्भ हो गई थी. लेकिन स्वर्ग लोक की ओर जाते जाते भी जलाराम बापा की दो मुलाकातें इस मायावी धरा पर शेष थीं, जो बाद में वीरपुर वासियों के संज्ञान में आयीं भी.
हुआ यूं, जलाराम बापा तीन भाइयों में मंझले थे, लेकिन उनकी कोई बहन नहीं थी. इसलिए उन्होंने अपने गाँव वीरपुर की निवासी गलाल बाई को अपनी मुंह बोली बहन बनाया था. वह जलाराम बापा को स्नेह से जला भाई के नाम से संबोधित करती थीं. रक्षाबंधन के दिन वे जलाराम बापा को राखी बांधना नहीं भूलती थीं. रक्षा सूत्र बाँध कर वे जलाराम बापा को लम्बी उम्र देने प्रभु से कामना करती थीं. हर प्रसंग पर वे मौजूद रहती थीं. दोनों के बीच सगे भाई-बहन से भी ज्यादा स्नेह था. जब जलाराम बापा रोगग्रस्त होकर सदा के लिए बिस्तर पर ही लेटने को विवश हो गए थे, तब गलाल बाई जलाराम बापा का कुशलक्षेम जानने उनके पास नम आँखों के साथ आयीं. बिस्तर के निकट आते ही उन्होंने रोते हुए जलाराम बापा से पूछा- "जला भाई, तबियत कैसी है?'. जलाराम बापा शांत भाव से बोले- "गलाल बेन, इस नश्वर देह की सजा स्वीकार करनी पड़ती ही है. यह तो विधि का विधान है. तुम अपना हालचाल बताओ, कैसी हो?". वह रूआंसी होकर बोली- "जला भाई, मैं तो ठीक हूँ, किन्तु आपका इस तरह गंभीर रूप से बीमार होकर बिस्तर का साथी बन जाना समझ में नहीं आ रहा है. आपके आशीर्वाद से भक्तों का बड़े से बड़ा रोग पल भर में समाप्त हो जाता है, तो फिर आपको रोग इस तरह क्यों सता रहा है?". जलाराम बापा ने संक्षिप्त जवाब दिया- "यह भी प्रभु की इच्छा है, अपनी कोई बात हो तो बताओ". उन्होंने हाथ जोड़ कर कहा- "जला भाई, आपकी तबियत देख कर कहीं जाने का मन नहीं कर रहा है. किन्तु उमरावी गाँव से मेरे भाई रूपा ने सेवक भेज कर मुझे बुलवाया है. अगर आपकी आज्ञा हो तो आज एक दिन के लिए चली जाऊं". जलाराम बापा ने अनुमति देते हुए कहा- "ठीक है गलाल बेन, जाओ, भाई ने इतने स्नेह से बुलाया है तो तुमको जाना ही चाहिए. किन्तु वहां एक दिन से अधिक नहीं रूकना, मेरा कोई ठिकाना नहीं है". तत्पश्चात गलाल बाई तुरंत अपने भाई रूपा के गाँव जाने के लिए रवाना हो गई. रूपा भाई के घर पहुंचने पर गलाल बाई का आत्मीय स्वागत हुआ. कई दिनों बाद बहन घर आई थी, इसलिए रूपा भाई बेहद खुश हुए, लेकिन उनकी बहन का पूरा ध्यान वीरपुर में लगा हुआ था, जलाराम बापा की याद उन्हें रह रह कर आ रही थी. दूसरे दिन सुबह होते ही उन्होंने रूपा भाई से वीरपुर लौटने की इजाजत माँगी. उन्होंने कहा- "भाई, मुझे अभी वीरपुर वापस जाना है. जला भाई की तबियत बहुत खराब है, इसलिए मैं यहाँ अब अधिक नहीं रूक सकती". रूपा भाई ने जिद करते हुए कहा- "बहन, इतने दिनों बाद भाई के घर आई हो. एक दिन में ही वापस लौटने की बात कर रही हो. एक दो दिन और रूक जाओ". भाई की जिद के आगे गलाल बाई को मजबूर होकर झुकना पडा. वे उस रात रूक गई.
तीसरे दिन गलाल बाई वीरपुर के लिए प्रस्थान की. शाम के करीब चार बज रहे थे. अभी भी वीरपुर दो मील दूर था. एकाएक सामने से जलाराम बापा आते हुए गलाल बाई को दिखे. वह चौंक गयीं. गलाल बाई ने देखा जलाराम बापा के हाथ में पानी की मटकी थी. गलाल बाई प्रसन्न हो गई. वह उनके पास जाकर बोली- "अरे जला भाई, आप
इस समय यहाँ?, इतनी तेज धूप में कहाँ जा रहे हैं?" जलाराम बापा ने खुलासा किया- "गलाल बेन, बिस्तर पर सोने के समय मुझे तुम्हारा ख्याल आया. तुम इतनी धूप में आ रही हो तो प्यासी होगी, इसलिए तुम्हारे लिए मटकी में ठंडा पानी लेकर आया हूँ". गलाल बाई ने गदगद होकर कहा- "भाई हो तो ऐसा, आप कितना ध्यान रखते हैं अपनी बहन का". फिर उन्होंने ठंडा पानी पीकर अपना गला तर किया. जहां जलाराम बापा गलाल बाई को पानी पिला रहे थे, वहां बाजू के खेत में उस समय कचरा भाई डोबरिया किसानी कार्य में व्यस्त थे. जलाराम बापा ने उन्हें देख कर जोर से पुकारा- "कचरा भाई, क्या कर रहे हो". जलाराम बापा की आवाज सुन कर कचरा भाई दौड़ कर आ गए और जवाब दिया- "बापा, खेत से ही हमारी रोजी रोटी चलती है. किसानी का काम तो करना ही पडेगा न, नहीं तो बाल बच्चे भूखे मरेंगे". जलाराम बापा ने हंसते हुए कहा- "ठीक बोल रहे हो कचरा भाई, अपना काम ही अपनी पूजा है. अब वीरपुर गाँव चलो, गलाल बेन को तुम्हारा साथ भी मिल जाएगा". कचरा भाई जलाराम बापा के आदेश को सम्मान देते हुए वीरपुर गाँव चलने के लिए तुरंत राजी हो गए. फिर जलाराम बापा
ने गलाल बाई से कहा- "गलाल बेन, सूर्यास्त होने वाला है, मेरे यहाँ साधुसंत आ गए होंगे, मुझे शीघ्र पहुँचना होगा, तुम दोनों आराम से पहुँचो". गलाल बाई ने जवाब दिया- जला भाई, ठीक है. जैसा आपका आदेश". तत्पश्चात जलाराम बापा तेज कदमों से आगे बढ़ गए. अगले ही क्षण वे नज़रों से ओझल हो गए.
उधर, गलाल बाई और कचरा भाई आहिस्ते आहिस्ते चलते हुए वीरपुर गाँव की सीमा में प्रवेश कर गए. सड़क से सटे शमशान की तरफ दोनों की दृष्टि गई तो देखा वहां कई लोग बैठे हैं और सामने चिता जल रही है. उत्सुकतावश दोनों वहां पहुंचे. गलाल बाई ने एक परिचित से पूछा- "भाई, किसका देहावसान हो गया है?". उसने
रूंधे गले से जवाब दिया- "अरे गलाल बेन, ताजुब्ब है आपको नहीं मालूम, आपके और पूरे गाँव के जलाराम बापा
प्रभु श्रीराम को प्यारे हो गए हैं, वे हमें अनाथ बना कर इस दुनिया से चले गए हैं". यह सुन कर गलाल बाई के पैरों तले जमीन खिसक गई. वह भौंचक रह गई, इस अशुभ समाचार पर उन्हें भरोसा नहीं हो रहा था. उन्होंने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा- "क्या बोल रहे हो, ऐसा कैसे हो सकता है, अभी कुछ देर पहले ही जला भाई से मेरी भेंट हुई,  उन्होंने मुझे ठंडा पानी भी पिलाया". इतने में दूसरा परिचित बोला- "गलाल बेन, अंतिम सांस लेने से पहले बापा
आपको बहुत याद कर रहे थे. आप तो मात्र एक दिन के लिए भाई के गाँव गई थीं, फिर आने में देर क्यों कर दीं ?". गलाल बेन रोने लगी. रोते रोते वह अपने सर पर हाथ रख कर जमीन पर बैठ गई. वह निरूत्तर हो गई. लोगों ने उसे सांत्वना देकर शांत कराया. कुछ देर बाद वे जलाराम बापा की चिता के निकट गई और परिक्रमा करने के बाद हाथ जोड़ कर कहा- "जला भाई, आपके आदेश की मैंने अवहेलना की, मुझे क्षमा कर दीजिये". यह कह कर वे फिर फूट फूट कर रोने लगीं. अग्नि संस्कार संपन्न होने के बाद सभी अपने अपने घर चले गए. स्नान आदि शुद्धिकरण के पश्चात सभी ग्रामवासी रात को जलाराम बापा द्वारा बनवाए गए मंदिर परिसर में भजन कीर्तन के लिए एकत्रित हुए. गलाल बाई और कचरा भाई भी आये. गलाल बाई ने जलाराम बापा से मुलाक़ात का पूरा वृत्तांत फिर सुनाया तो किसी को विश्वास नहीं हुआ. सबने उसे मन का वहम बताया. तब कचरा भाई ने गलाल बाई की
बात का समर्थन किया और खुद के साक्षी होने का भरोसा दिलाया. तब फिर ग्रामवासियों को गलाल बाई की बात
सत्य लगी. सबने इस घटनाक्रम को जलाराम बापा का ही चमत्कार निरूपित किया. सभी ने जलाराम बापा के जयकारे लगाए तत्पश्चात राम धुन प्रारम्भ की गई. ( जारी )                
                                                      
         

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 38 )

जलाराम बापा का स्वर्गवास : जलाराम बापा के सेवा का चक्र निर्बाध गति से चल रहा था. उधर, समय का पहिया भी अपनी निर्धारित गति से घूम रहा था. सदाव्रत-अन्नदान जैसे पुण्य सेवा कार्य को शुरू किये साठ साल पूरे हो चुके थे. फिर भी जलाराम बापा का सेवा के प्रति उत्साह, लगन और समर्पण भाव यथावत था. बढ़ती उम्र इसमें बिलकुल बाधक नहीं थी. युवाओं की मानिंद उनमें जोश बरकरार था. किसी की भी मदद कहीं भी जाकर करनी हो तो वे सदैव तैयार रहते थे. सेवा के लिए "नहीं" बोलना उनके शब्दकोष में शामिल न था. सेवा और प्रभु भक्ति के सम्मिश्रित जीवन में जलाराम बापा ने अब तक अस्सी वसंत देख लिए थे. हर मौसम इनके सेवा कार्यों में सहभागी था. जलाराम बापा ने अपना पूरा जीवन दीनदुखियों की सेवा और प्रभु श्रीराम की भक्ति
को समर्पित कर दिया था. वृद्धावस्था की सामान्य बीमारियों को वे सेवा कार्यों के नाम पर नजरअंदाज कर दिया करते थे. किन्तु वैशाख माह इनकी शारीरिक व्याधि को प्रतिकूल दिशा में मोड़ने का आधार बना. जलाराम बापा को बवासीर का रोग परेशान करने लगा. तमाम उपचार के बाद भी स्वास्थ्य लगातार बिगड़ते जा रहा था. साल भर तक यह रोग उन्हें पीड़ा पहुंचाते रहा. जलाराम बापा इस रोग के उत्पन्न होने और दर्द भोगने के निहित अर्थ और उसके मूल कारण को भलीभांति समझ रहे थे. विधि के विधान से वे अच्छी तरह परिचित थे. जीवन और मृत्यु के तयशुदा क्रम से वे अवगत थे. इसलिए अपने रोग की पीड़ा को भी वे प्रभु की लीला का ही एक हिस्सा मानते थे. पृथ्वी पर जो भी जन्मा है, उसे एक न एक दिन तय वक़्त में मरना ही है, इस सत्य को वे बखूबी जानते थे. उनकी रोगग्रस्त दशा और पीड़ा को देख कर सभी अनुयायी दुखी थे. रोग के कारण जलाराम बापा का शरीर निरंतर  कमजोर होते जा रहा था. शरीर में ताकत ख़त्म हो रही थी. उन्हें तो इसके अंतिम परिणाम का भी अंदाज था, लेकिन अनुयायियों के लिए उनका ज्यादा बीमार होना सदमा पहुंचाने वाला था. शारीरिक रूप से अशक्त जलाराम बापा को रोग ने आख़िरकार एक दिन बिस्तर का साथी बनने को विवश कर दिया.
जलाराम बापा की असाध्य बीमारी की खबर आसपास के गाँव में तेजी से फ़ैल चुकी थी. फिर पूरे सौराष्ट्र में श्रद्धालुओं को जानकारी मिल गई. जलाराम बापा के दर्शन करने और उनका हालचाल जानने के लिए लोगों का रोज तांता लगने लगा. सभी दिशाओं से अनुयायी वीरपुर गाँव आने लगे. जलाराम बापा के घर के बाहर प्रतिदिन दर्शनार्थियों की लम्बी कतार लगने लगी. जलाराम बापा बिस्तर पर होने के बावजूद आगंतुक सभी श्रद्धालुओं से बात कर उन्हें अपना आशीर्वाद देते. जब श्रद्धालु रोने लगते तो वे अपनी अस्वस्थता को प्रभु की सद इच्छा निरूपित करते, जीवन के असली सत्य और गति को परिभाषित करते. यहीं नहीं बल्कि उन्होंने अपने यहाँ के सदाव्रत-अन्नदान सेवा कार्य को दुगने उत्साह के साथ जारी रखने का निर्देश सेवकों को दिया था.
एक रोज जेतपुर से अनुयायी भीमजी भाई मेहता अपनी पुत्री के विवाह की निमंत्रण-पत्रिका देने जलाराम बापा के घर  आये. वे जलाराम बापा के युवाकाल से ही भक्त थे. वे पहले कई साल तक वीरपुर में रह कर जलाराम बापा के सेवा कार्यों का जिम्मा सम्हाल चुके थे. जब भीमजी भाई ने जलाराम बापा को बेहद अशक्त अवस्था में बिस्तर पर  देखा तो उनकी आँखों से आंसू बहने लगे. जलाराम बापा ने धीमे स्वर में उनसे कहा- "आइये भीमजी भाई, सब कुशल मंगल है न". उन्होंने रोते हुए कहा- "बापा, मैं तो आपकी कृपा से ठीक हूँ, किन्तु आपको यह क्या हो गया?
अब कैसी है आपकी तबियत. आपका बीमार होना हम सब भक्तों को देखा नहीं जा रहा है, आप स्वस्थ रहेंगे तो हम भक्तजन भी तंदुरूस्त रहेंगे". जलाराम बापा ने उन्हें जीवन-दर्शन समझाते हुए कहा- "भीमजी भाई, यह देह  तो नश्वर है. सबको एक न एक दिन इस मायावी संसार से सदा के लिए विदा होना है. कोई पहले जाएगा, कोई बाद में, किन्तु सभी का जाना तय है. यह काया प्रभु ने दी है, उसे समाप्त करने का अधिकार भी प्रभु को ही है. हम सब तो एक कठपुतली मात्र हैं. जीवन की डोर प्रभु के हाथ में ही है. इसलिए इस नश्वर काया को लेकर शोक संतप्त और दुखी होना व्यर्थ है". भीमजी भाई रूआंसे होकर बोले- "बापा, हम सब भक्तों की प्रभु से प्रार्थना है वे आपको शीघ्र स्वस्थ कर दें, मैं अपनी पुत्री के विवाह का आमंत्रण देने आपके पास आया हूँ, बेटी को आपका आशीर्वाद मिलेगा तो उसका वैवाहिक जीवन धन्य हो जाएगा".जलाराम बापा बोले- "भीमजी भाई, तुम मेरी हालत देख तो रहे हो. मेरा अशक्त शरीर विवाह में आने की स्थिति में नहीं है. किन्तु मेरा आशीर्वाद तुम्हारी पुत्री के साथ अवश्य रहेगा, विवाह का मंगल प्रसंग हर्षोल्लास के साथ संपन्न होगा, प्रभु से यह मेरी प्रार्थना है. मेरा अब अंतिम समय आ गया है. उत्तरायण के सूर्योदय के पश्चात यह देह साथ छोड़ देगी, ऐसा मुझे आभास हो रहा है". जलाराम बापा का कथन सुन कर भीमजी भाई समेत वहां मौजूद सभी अनुयायियों की आँखे नम हो गई. सबको अच्छे से मालूम था जलाराम बापा की वाणी की सत्यता के सम्बन्ध में. इसलिए सबके ह्रदय की धड़कने तेज हो गई. दुःख से सबका मन भरी हो गया. फिर जैसे ही भीमजी भाई ने हाथ जोड़ कर कुछ बोलना चाहा तो जलाराम बापा ने उन्हें इशारे से रोका और कहा- "भीमजी भाई, मैं समझ रहा हूँ आप क्या कहना चाह रहे हैं. यह सत्य है अभी हरिराम बच्चा है, किन्तु मेरे प्रभु हरिराम के सदैव सहायक रहेंगे. आप चिंता न करे, सदाव्रत-अन्नदान सेवा कार्य मेरे न रहने के बाद भी चलता रहेगा. हरिराम और आप सब सेवकों पर मुझे पूरा भरोसा है सेवा के इस पवित्र यज्ञ को जारी रखोगे".
महा वदी दसमी, बुधवार का दिन था. प्रतिदिन की तरह जलाराम बापा के घर-आँगन में भजन-कीर्तन चल रहा था. राम धुन चरम स्थिति पर थी. जलाराम बापा भी बिस्तर पर ही लेटकर, आँखें बंद कर अपने प्रभु श्रीराम का जाप कर रहे थे. इसी अवस्था में कुछ क्षण पश्चात जलाराम बापा अपनी नश्वर देह को सदा के लिए त्याग कर प्रभु मिलन के लिए स्वर्ग सिधार गए. श्रद्धालुओं में शोक की लहर छा गई. अनुयायियों की आँखों से आंसू थम नहीं रहे थे. कई अनुयायी जलाराम बापा के बैकुंठ धाम चले जाने पर गम बर्दाश्त नहीं कर सके, वे वहीं मूर्छित हो गए. पूरा वीरपुर गाँव अश्रुपूरित नेत्रों के साथ अंतिम दर्शन के लिए उमड़ पडा. आसपास के इलाके में भी यह शोक समाचार वायु वेग से फ़ैल गया. जलाराम बापा को श्रद्धांजलि देने अनुयायियों का तांता लग गया. सब अपने आपको अनाथ महसूस कर रहे थे. ( जारी )                                                                                    

शनिवार, 7 जनवरी 2012

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 37 )

आथित्य सेवा की अदला बदली : जलाराम बापा जन सामान्य की तकलीफों को दूर करने और उनसे मुलाक़ात करने के लिए यदाकदा ग्रामीण दौरे पर निकल जाते थे. जब भी अगले गाँव जाना होता था, तो वे पहले से ही घुड़सवार सेवक को भेज कर अपने आगमन की सूचना दे देते थे. अक्सर उनके काफिले में कुछ सेवक अनुयायी भी साथ रहते थे. जलाराम बापा अथिति बन कर कभी भी किसी पर बोझ नहीं बनते. जो श्रद्धालु स्वेच्छा से उन्हें आथित्य सत्कार देना चाहता, उसके आमंत्रण को वे सहर्ष स्वीकार कर लेते थे. कुछ ऐसे भी प्रिय अनुयायी थे, जिनके यहाँ वे नियमित तौर पर अतिथि बनते थे. लेकिन यदि आथित्य सत्कार में किसी अनुयायी को कोई परेशानी महसूस होती थी, तो जलाराम बापा दूर से ही उनके मन की पीड़ा को भांप लेते थे. अतिथि बन कर उसे धर्म संकट में नहीं डालते थे. जलाराम बापा तो अन्तर्यामी संत थे. इसलिए वे कभी कभी अपने आथित्य सेवा की अदला बदली भी कर अनुयायी की अप्रत्यक्ष रूप से सहायता भी करते थे. सातुदड गाँव के अनुयायी वीरजी भाई और आम्बा भाई के साथ भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ.
यूं तो इस गाँव में जलाराम बापा के कई अनुयायी थे, किन्तु वीरजी भाई और आम्बा भाई उनके ज्यादा करीबी थे. इसलिए जब भी जलाराम बापा इस गाँव में पधारते तो इन्हीं के घर अपना पड़ाव डालते. पूरे गाँव के लोग इससे अवगत थे. जलाराम बापा के आगमन की जानकारी मिलते ही बाजू के ग्रामवासी भी दर्शन करने उमड़ पड़ते थे.
एक दिन वीरजी भाई और आम्बा भाई को एक ग्रामीण ने जानकारी दी- "मोटा भाई, जलाराम बापा का काफिला बाजू के गाँव में ठहरा हुआ है. वे किसी भी समय यहाँ पहुँच सकते हैं. आप उनके आवभगत के सारे प्रबंध कर लीजिये". यह सुन कर दोनों भाई चिंतित हो गए. आथित्य सत्कार के विषय को लेकर वे पशोपेश में पड़ गए. वे सोचने लगे आखिर जलाराम बापा को कहाँ ठहराया जाय, जो उनकी गरिमा और सम्मान के अनुकूल हो. दरअसल, उनकी चिंता की मुख्य वजह यह थी अब तक अपने घर में वे जिस जगह जलाराम बापा को ठहराया करते थे, वहां कपास का ढेर लगा हुआ था. इतना समय नहीं बचा था, उसे चरखे से तत्काल कात सकें. अगर कहीं जलाराम बापा एकाध हफ्ता रूक गए तो चरखे भी नहीं चल पायेंगे और कपास का ढेर यूं ही पडा रह जाएगा. यही सोच कर वे दोनों भाई विचलित हो गए. इस बात से भी वे चिंतित थे जलाराम बापा ने हमेशा की तरह इस बार घुड़सवार के जरिये अपने आगमन की विधिवत सूचना क्यों नहीं भिजवाई. यदि पहले से खबर होती तो वे साफ़ सफाई करवा लिए रहते. कपास को चरखे से कतवा कर बाजार भिजवा दिए रहते. दोनों भाइयों में अभी यह विचार मंथन हो रहा था, तभी एक ग्रामीण हाँफते हुए आया और उनसे बोला- "मोटा भाई, जलाराम बापा गाँव की सीमा तक पहुँच चुके हैं". दोनों भाई हडबडा गए. वीरजी भाई ने आम्बा भाई से कहा- "भाई, अब कुछ सोचने समझने का समय नहीं बचा है, जल्दी से कपास के ढेर को कपडे से ढकवा देते हैं. बापा आते ही होंगे". फिर उन्होंने अपने सबसे छोटे भाई पीताम्बर को आदेशित करते हुए कहा- "पीताम्बर, दौड़ते हुए जा और बापा की सम्मान के साथ अगवानी कर उन्हें यहाँ ले आ. हम भी पीछे पीछे आ रहे हैं".
वीरजी भाई और अम्बा भाई ने फुर्ती दिखाते हुए कपास के ढेर को कपडे से ढकवा दिया, आसपास हल्की साफ़ सफाई करवा दी. फिर दोनों भाई चल पड़े जलाराम बापा का स्वागत करने. वे कुछ कदम आगे बढे थे, सामने से
पीताम्बर आता दिखा. उसके चहेरे की रंगत उडी थी. वीरजी भाई ने उससे पूछा- "अरे पीताम्बर, तू अकेला कैसे आ गया. बापा कहाँ हैं?. रूआंसा होकर पीताम्बर बोला- "बापा इस बार खोजावाले दरवाजे के बजाय बड़े दरवाजे से
होकर गाँव में आये हैं". दोनों भाई हतप्रभ हो गए और दुखी भी. आम्बा भाई ने कहा- "ऐसा पहली बार हुआ है जब बापा के स्वागत करने का सौभाग्य हमें नहीं मिला". उधर, बड़े दरवाजे के पास वीरजी भाई के चाचा प्रेमजी भाई
का घर था. जैसे ही प्रेमजी भाई को जलाराम बापा के काफिले के आने की जानकारी मिली, वे घर से बाहर निकले और स्वागत करने के लिए मार्ग के बीचोंबीच खड़े हो गए. उन्हें सड़क के मध्य खडा देख कर जलाराम बापा ने काफिला रूकवा दिया. प्रेमजी भाई ने हाथ जोड़ कर जलाराम बापा से निवेदन किया- "बापा, इस बार मुझे सेवा करने का अवसर प्रदान कीजिये. आपके चरणों की धूलि से मेरा घर पवित्र हो जाएगा". जलाराम बापा ने स्मित
मुस्कान के साथ निमंत्रण स्वीकार करते कहा- "ठीक है भाई, मेरी दृष्टि में तो सभी लोग बराबर हैं. इस बार तुम्हारे घर रूक जाते हैं". जलाराम बापा की स्वीकारोक्ति से प्रेमजी भाई प्रसन्न हो गए. वे आदरपूर्वक जलाराम बापा और उनके काफिले को ठहराने अपने घर के भीतर ले गए. प्रेमजी भाई के एक इशारे पर उनके कर्मचारियों ने तत्काल आथित्य सत्कार का समस्त प्रबंध कर दिया.
इसी बीच प्रेमजी भाई के तीनों भतीजे भी वहां आ गए. आते ही वीरजी भाई ने दुखी भाव से पूछा- "काका, आदरणीय बापा कहाँ बैठे हैं". प्रेमजी भाई ने सामने के कमरे की तरफ उंगली दिखाई. वे फुर्ती से कमरे में दाखिल हुए. जलाराम बापा विश्राम की मुद्रा में बैठे हुए थे. तीनों भतीजों ने जलाराम बापा के चरण स्पर्श किये. फिर वीरजी भाई ने हाथ जोड़ कर उदासी भरे स्वर में कहा- "बापा, हमसे कोई गलती हो गई है क्या? आपने हमें इस बार ऐसी सजा क्यों दी? इस बार आप हमारे घर नहीं पधारे, जबकि हर बार हमें आपके आथित्य का सौभाग्य नसीब होता  है". जलाराम बापा ने हंसते हुए प्रत्युत्तर दिया- "भाई, और कुछ कहना हो तो कह दो, संकोच नहीं करो. तुमको बोलने का पूरा अधिकार है". वीरजी भाई ने सर झुकाते हुए कहा- "बाकी बात तो आप जानते ही हैं, आपसे से कौन सी बात कभी छिपी है". जलाराम बापा बोले- "मैं सब बात जानता हूँ, इसीलिये तो तुम्हारे घर न आकर प्रेमजी भाई के घर रूका हूँ". वीरजी भाई ने आश्चर्यचकित होकर पूछ- "आपको किसने हमारी समस्या से अवगत कराया?'  जलाराम बापा ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया- "मुझे मेरे प्रभु ने तुम्हारी दुविधा के विषय में सब बता दिया है. कपास का ढेर पडा है तुम्हारे यहाँ, मेरे रूकने से तुम्हें परेशानी होती. मैं अपने भक्तों को कभी परेशान होते देख नहीं सकता. अतिथि तो भगवान् होता है, बोझ नहीं. मैं भगवान् नहीं हूँ किन्तु भक्तों पर कभी बोझ नहीं बनता. इसीलिये इस बार बड़े दरवाजे से होकर गाँव में प्रवेश किया. प्रेमजी भाई ने प्रेम से बुलाया तो इनके घर रूक गया. यह घर भी तो तुम्हारे ही काका का है". यह सुन कर वीरजी भाई निरूत्तर हो गए. आगे वे कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थे. फिर जब तक जलाराम बापा का पड़ाव रहा तब तक प्रेमजी भाई के तीनों भतीजे भी सारा कामकाज छोड़ कर चाचा के यहाँ रह कर जलाराम बापा की सेवा में दिन रात जुटे रहे. ( जारी )                              
                                                                            
             

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 36 )

भूतों का भय दूर किया : जलाराम बापा के चरण जहाँ पड़ते थे, वह जगह स्वतः पवित्र हो जाती थी. उनकी उपस्थिति मात्र से हर किसी का कल्याण हो जाता था, फिर चाहे वह इंसान हो या कोई और. एक रोज जलाराम बापा अपने कुछ सेवकों के साथ झींझुडा गाँव जा रहे थे. वहां महात्मा कानडगर की स्मृति में संत मेले का आयोजन किया गया था. इसमें शामिल होने जलाराम बापा को भी निमंत्रण मिला था.
जलाराम बापा सुबह से ही झींझुडा गाँव जाने के लिए घर से निकल गए थे. दोपहर को जब सफ़र के दौरान रास्ते में जाडिया कोटडा गाँव आया, तब कुछ देर आराम करने के उद्देश्य से जलाराम बापा अपने सेवकों के साथ एक पुराने बरगद के पेड़ के नीचे रूक कर डेरा डाल दिया. जलाराम बापा के रूकने की खबर अन्य राहगीरों के जरिये पूरे गाँव में तेजी से फ़ैल गई. उनके दर्शन के लिए श्रद्धालु ग्रामवासी उमड़ पड़े. गाँव के मुखिया सहित कुछ लोग भोजन भी साथ लाये थे. जलाराम बापा ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया. भोजन उपरान्त जलाराम बापा से श्रद्धालुओं ने गाँव के भीतर चलने का अनुरोध किया. मुखिया ने हाथ जोड़ कर कहा- "बापा, आप हमारे गाँव के अन्दर पधारेंगे तो हम सब गाँव वालों के भाग्य खुल जायेंगे. हमारा गाँव धन्य हो जाएगा". जलाराम बापा बोले- "भाइयों, मैं संत मेले में सम्मिलित होने के लिए झींझुडा गाँव जा रहा हूँ. वहां मुझे शीघ्र पहुँचना है. इसलिए मैं अभी आप लोगों के साथ चलने में असमर्थ हूँ. हाँ, लौटते समय अगर आप लोग कहेंगे तो अवश्य आ सकता हूँ". मुखिया ने मायूस होकर कहा- "बापा, ठीक है जैसा आप उचित समझे. वापसी के समय हम लोग आपका सानिध्य ले लेंगे. बापा, आपसे एक और विनती है, आप आदेश दे तो कहूं". जलाराम बापा ने विनम्रता से कहा- "भाई, मैं तो आप लोगों का ही सेवक हूँ, कोई भी कार्य हो, संकट हो, बताओ. कहने में संकोच मत करो". मुखिया के चहेरे पर भय का भाव झलकने लगा. उसने दबी जुबान में कहा- "बापा, आप अभी जिस बरगद के पेड़ के नीचे बैठे हैं, दरअसल उस पर भूतों का वास है. भूतीया पेड़ होने के कारण राहगीर यहाँ से गुजरने पर कतराते हैं, वे डरते हैं. गाँव वालों का मानना है कुछ लोग जो पागल हुए हैं उसकी वजह यही पेड़ है. कुछ लोगों की मौत भूतों के भय के कारण भी हो चुकी है. बापा, अब आप ही हमें इस संकट से छुटकारा दिला सकते हैं".
जलाराम बापा थोड़ी देर मौन रहे. तत्पश्चात खड़े होकर उन्होंने सर ऊपर किया और पेड़ पर अपनी दृष्टि दौड़ाई. फिर जलाराम बापा ने मुस्कुराते हुए कहा- "भाई, डरने वाली कोई बात नहीं है. आप लोगों के भीतर का भय मैं अभी सदा के लिए दूर किये देता हूँ". इतना कहकर जलाराम बापा ने अपनी आँखें बंद की और प्रभु श्रीराम का जप करने लगे. इसके बाद उन्होंने पेड़ की परिक्रमा प्रारम्भ की. उन्होंने जैसे ही पेड़ के सात फेरे पूरे किये, वैसे ही जोर की गडगडाहट हुई. बरगद के पेड़ की शाखाएं हिलने लगी. पुनः गडगडाहट होने से वहां मौजूद ग्रामवासी सहम गए. लोग भय से कांपते हुए एक दूसरे का हाथ पकड़ लिए. अगले ही क्षण जलाराम बापा ने हंसते हुए कहा- "भाइयों, अब से आप लोग भूतों के भय से सदा के लिए मुक्त हो गए हैं और इन भूतों को भी मुक्ति मिल गई है. आपके साथ साथ इन भूतों का भी उद्धार हो गया है. अब डरने की कोई आवश्यकता नहीं है. आप लोग बिना डरे अब यहाँ से आनाजाना कर सकते हैं. कोई किसी को अबसे परेशान नहीं करेगा. यहाँ भूतों का वास सदा के लिए समाप्त हो गया है". यह खुशखबरी सुन कर ग्रामवासी प्रसन्न होकर झूमने लगे, सबने जलाराम बापा के जयकारे लगाए. फिर सभी ने क्रमवार जलाराम बापा के चरण स्पर्श कर आभार जताया. कुछ देर बाद जलाराम बापा अपने सेवकों के साथ गंतव्य स्थान के लिए रवाना हो गए. ( जारी )
                                                            

शुक्रवार, 6 जनवरी 2012

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 35 )

संत मेले में वस्त्र दान का चमत्कार : जलाराम बापा संकट अथवा अभाव की स्थिति में हर किसी की मदद करने के लिए हमेशा तत्पर रहते थे. राजा हो या रंक, जो भी उनसे सहायता करने का आग्रह करता, उसे कभी निराश नहीं करते. राजा रणमलजी भी जलाराम बापा से सहायता प्राप्त करने वालों में से एक थे.
हुआ यूं, एक दिन राज ज्योतिषी ने राजा रणमलजी की जन्म कुण्डली और हस्त रेखा का अध्ययन कर भविष्यवाणी की- "महाराज, आपकी कुण्डली और हाथ की रेखाओं से ज्ञात होता है, आपकी आयु अधिक नहीं है. आपके जीवन पर ख़तरा मंडरा रहा है. राजदरबारियों को भी इस भविष्यवाणी की जानकारी हो गई थी, इसलिए राजा की तरह वे भी चिंतित हो गए. संयोगवश कुछ दिन बाद राजा ग्राम जाम खंभालिया गए, जहां उनकी मुलाक़ात मोरार भगत से हुई. संकट के वक़्त राजा इनसे सदैव मार्गदर्शन लिया करते थे. सो, राजा ने मोरार भगत को राज ज्योतिषी द्वारा की गई भविष्यवाणी के सम्बन्ध में विस्तार से बताया. अपनी चिंता से भी उन्हें अवगत कराया. उन्होंने हाथ जोड़ कर निवेदन किया- "भगत जी, अब आप ही मेरा कल्याण कर सकते हैं. मेरी आयु बढ़ जाय, ऐसा कोई उपाय हो तो कृपया बताइये". मोरार भगत ने शांतचित्त होकर प्रत्युत्तर दिया- "महाराज, विधि के विधान को बदलना आसान नहीं है. जो भाग्य में लिखा रहता है, वह होकर रहता है, किन्तु हम जो भी पुण्य कर्म करते हैं, उसका प्रभाव भी भाग्य परिवर्तन में देखने को मिलता है. अच्छे कार्य का फल मिलता अवश्य है. और अगर संत महात्माओं का आशीर्वाद मिल जाय तो सोने में सुहागा हो जाता है. हो सकता है पुण्य कर्म करने से आपका संकट दूर हो जाय". राजा की आँखें चमक उठी. उन्होंने तपाक से पूछा- "भगत जी, इसका अर्थ है मेरी आयु बढ़ सकती है, मुझे क्या करना होगा, कृपया बताइए". उन्होंने सुझाव देते हुए कहा- "महाराज, आप अपने यहाँ भव्य संत मेले का आयोजन कराइए, उनकी सच्चे मन से सेवा कीजिये, इसका लाभ आपको अवश्य मिलेगा". राजा ने सहमत होकर जवाब दिया- भगत जी, मैं आपकी सलाह का पालन अवश्य करूंगा. संत मेले का आयोजन आपके ही नेतृत्व में होगा, आप अनुमति दीजिये". मोरार भगत ने राजा के आग्रह को स्वीकार कर लिया. तत्पश्चात वे दोनों राजमहल के लिए प्रस्थान कर गए.
राजा ने जलाराम बापा सहित सभी संत महात्माओं को निमंत्रण भिजवाया. नियत तिथि को संत मेला प्रारंभ हो गया. इस मेले में सैकड़ों संत, महात्मा, साधु, सन्यासी, वैरागी, ब्रम्हचारी और भक्त जन शामिल हुए. वीरपुर से जलाराम बापा और जोड़ीया गाँव से धरमशी भगत विशेष तौर पर निमंत्रित किये गए थे. मोरार भगत अपनी देखरेख में इस मेले का सुचारू संचालन कर रहे थे. अतिथियों की आवभगत में कोई कमी न हो इसलिए राजा ने कई सेवकों को तैनात कर रखा था. रहने और खाने का माकूल प्रबंध किया गया था. संत मेले में सेवा के जरिये राजा सबका दिल से आशीर्वाद लेने को लालायित थे. संत मेले में रोज भजन कीर्तन का क्रम जारी रहा.
मेले के समापन अवसर पर भजन-कीर्तन मंच से संचालक मोरार भगत ने अपने आभारयुक्त संबोधन में कहा- "आप सभी अतिथियों का मैं महाराज की ओर से आभार प्रकट करता हूँ. आप सबने यहाँ पधार कर महाराज को
उपकृत कर दिया है. आप लोगों के दर्शन और सानिध्य पाकर महाराज धन्य हो गए हैं. महाराज को मैं दीर्घायु होने का आशीर्वाद देता हूँ. आशा है आप लोग भी महाराज को अपना आशीर्वाद देंगे, जिससे वे लम्बे समय तक
सेवा कार्य कर सकें". इनके संबोधन के बाद जलाराम बापा समेत सभी लोगों ने महाराज को दीर्घायु होने का आशीर्वाद दिया. संत मेले का विधिवत समापन "वस्त्र दान" से होना निर्धारित था. राजा ने पहले से ही वस्त्र मंगवा
लिए थे. लेकिन संत मेले में अनुमान से कई गुना ज्यादा अतिथियों के आगमन से वस्त्रों की कमी महसूस होने लगी. राजा चिंतित हो गए. उनका दिमाग काम नहीं कर रहा था. कोई उपाय नहीं सूझने पर उन्होंने मोरार भगत
को अपनी परेशानी बताई. सुन कर मोरार भगत मुस्कुराए और आत्मविश्वास के साथ कहा- "जलाराम बापा के रहते आप क्यों परेशान हो रहे हो. जहां जलाराम बापा उपस्थित रहते हैं, वहां किसी वस्तु की कमी नहीं रहती है".
राजा ने जिज्ञासा वश पूछा- "क्या सचमुच ऐसा संभव है?". मोरार भगत ने भरोसा दिलाते हुए कहा- "मैं सच कह रहा हूँ, चाहो तो आप परख कर देख सकते हैं. मेरी मानो तो आप वस्त्र दान जलाराम बापा के हाथों से ही करवाइए, फिर देखना उनका चमत्कार कैसा होता है". राजा प्रसन्न हो गए और कहा- "भगत जी, अगर ऐसा होता है तो मेरी प्रतिष्ठा पर कोई आंच नहीं आयेगी". इस विचार-विमर्श के तुरंत बाद राजा जलाराम बापा के पास गए. उन्होंने हाथ जोड़ कर निवेदन किया- "बापा, आप अगर मेरी सहायता करेंगे तो मेरी लाज बच जायेगी. मैं चाहता हूँ अतिथियों को वस्त्र दान आपके हाथों से संपन्न हो". जलाराम बापा राजा के अंतर्मन को भांप चुके थे. उन्होंने कहा- "ठीक है महाराज, जैसी प्रभु की इच्छा, चलिए". फिर राजा के साथ मेले में पहुँच कर जलाराम बापा ने एक एक कर अतिथियों को वस्त्र बांटना शुरू किया. एक भी अतिथि वस्त्र पाने से वंचित न रहा. सभी वस्त्र पाकर प्रसन्न हो गए. जलाराम बापा का यह चमत्कार देख कर राजा आश्चर्यचकित रह गए. मोरार भगत का अनुमान सत्य साबित हुआ. राजा ने जलाराम बापा के चरण स्पर्श किये और आभार जताया- "बापा, आप कोई साधारण संत नहीं हैं, बल्कि भगवान् श्रीराम के अवतार हैं. सौराष्ट्र की भूमि धन्य हो गई है. आपका उपकार मैं सदैव याद  रखूंगा. अपना शेष जीवन परोपकार और सेवा कार्यों को समर्पित कर दूंगा". तत्पश्चात राजा ने जलाराम बापा सहित सभी अतिथियों को नम आँखों से विदाई दी. ( जारी )                                      
 
                                              

गुरुवार, 5 जनवरी 2012

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 34 )

चोर का ह्रदय परिवर्तन किया : जलाराम बापा अपने त्रिकाल ज्ञानी गुरू भोजल राम के प्रति अगाध श्रद्धा भाव रखते थे ही, साथ ही गुरू भक्ति स्वरुप उनके गाँव फतेहपुर के सभी निवासियों को भी स्नेह और सम्मान देते थे. फिर चाहे वह व्यक्ति किसी भी प्रवृत्ति का क्यों न हो. वह कार्य से अच्छा हो या बुरा, सबके प्रति गुरू के कारण लगाव था. वे सबका भला चाहते थे. जलाराम बापा के गाँव वीरपुर के रहवासियों को भी उनकी यह धारणा पता थी. इसीलिये एक दिन वीरपुर का एक करीबी अनुयायी रहवासी जलाराम बापा के घर पहुंचा और उनके चरण स्पर्श करने के बाद कहा- "बापा, आप को तो समाचार मिल गया होगा?" जलाराम बापा ने अनभिज्ञता जताते हुए पूछा- "भाई, कैसा समाचार!, मुझे कुछ नहीं मालूम. तुम बताओ" उस अनुयायी ने जानकारी दी- "कल एक शातिर और दुस्साहसी चोर पकडाया है. कई दिनों से वह चोर लोगों को चकमा देकर अपना काम तमाम कर भाग जाता था. आखिर राजा के सुरक्षा कर्मियों ने उसे गिरफ्तार कर ही लिया". जलाराम बापा बोले- " मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूँ उस चोर को सदबुद्धि मिले, ताकि वह अपना गलत काम छोड़ दे और सही मार्ग पर चले. किन्तु भाई, तुम मुझे उस चोर के पकड़े जाने का समाचार क्यों दे रहे हो, इसके पीछे तुम्हारा क्या उद्देश्य है?". उसने खुलासा करते हुए बताया- "बापा, दरअसल वह चोर आप के गुरू के गाँव का ही रहने वाला व्यक्ति है, राज दरबार में उसने अपना अपराध स्वीकार करते समय यह जानकारी दी है". जलाराम बापा यह सुनते ही तत्काल दरबार गढ़ के लिए रवाना हो गए.
जलाराम बापा ने दरबार गढ़ पहुँचते ही पहरेदार को अपने आने का ध्येय बताया. राजा को जब उनके पधारने की सूचना मिली तब वे स्वयं उनकी अगुआनी करने मुख्य द्वार पर आ गए. जलाराम बापा को सम्मान के साथ भीतर ले जाया गया. राजा ने उनसे पूछा- "भक्तराज, आपके यहाँ आने से हम धन्य हो गए. आप तो सभी की सेवा करते हैं. आज मुझे अवसर मिला है, बताइये मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ". जलाराम बापा ने कहा- "आपने जिस चोर को बंदीगृह में कैद कर रखा है, उसे कृपया छोड़ दीजिये". राजा ने विस्मय से पूछा- "भक्तराज, आपका उस चोर से क्या वास्ता?, क्या आप उससे परिचित हैं?" जलाराम बापा ने सहजतापूर्वक प्रत्युत्तर दिया- "नहीं, उससे मेरी कोई जान-पहचान नहीं है. हाँ, मुझे यह अवश्य जानकारी मिली है वह मेरे गुरू के गाँव फतेहपुर का निवासी है". राजा ने बीच में टोकते हुए कहा- "ठीक है भक्तराज, मैंने माना वह आपके गुरू के गाँव का वासी है, किन्तु आप इसे अपनी प्रतिष्ठा का विषय क्यों बना रहे हैं, वह भी एक कुख्यात चोर की खातिर?" जलाराम बापा ने रूंधे गले से जवाब दिया- "इसमें मेरे जैसे शिष्य की प्रतिष्ठा दांव में लगी है. मेरे श्रद्धेय गुरू के गाँव का प्रत्येक व्यक्ति मेरे गुरू भाई जैसा है. फिर चाहे वह चोर हो या सिपाही, मेरे लिए तो सब बराबर हैं. उसे गलत काम की सजा समय आने पर स्वयं प्रभु दे देंगे. अगर वह चोर बेड़ियों में जकड़ा हुआ बंदीगृह में सो नहीं पा रहा है तो फिर मैं कैसे चैन की नींद सो सकता हूँ". राजा ने पल्ला झाड़ते हुए तर्क दिया- "भक्तराज, आपकी गुरू भक्ति की इस भावना की मैं कद्र करता हूँ, लेकिन इस चोर ने सबका जीना हराम कर रखा था, कई दिनों बाद बड़ी मुश्किल से वह पकड़ में आया है. उसे कैसे छोड़ा जा सकता है".
जलाराम बापा के समस्त तर्कों और अनुनय-विनय को खारिज करते हुए राजा ने उस चोर को रिहा करने से साफ़ इनकार कर दिया. जलाराम बापा कुछ क्षण मौन रहे. तत्पश्चात उन्होंने राजा को सुझाव देते हुए हाथ जोड़ कर कहा- "चोरी के अपराध में आपको बंदीगृह में एक व्यक्ति रखना ही है तो उसके बदले मुझे रख लीजिये. उसके समस्त अपराध मैं स्वीकार करता हूँ. उसके बदले मुझे सजा दीजिये". इतना कहने के बाद जलाराम बापा की आँखें नम हो गई. याचना स्वरुप वे अपनी पगड़ी उतारने लगे, तो कुछ दरबारी तुरंत उनके नजदीक पहुँच कर ऐसा न करने का अनुरोध किया. राजा भी अपने सिंहासन से उतर कर जलाराम बापा के पास आये और क्षमा
मांगते हुए कहा- "भक्तराज, आप इज्जत की पगड़ी उतार कर हमें शर्मिन्दा कर रहे हैं. मुझे क्षमा कर दीजिये. आपकी बात मुझे नहीं काटनी थी. आपकी गुरू भक्ति धन्य है. मैंने आपकी गुरू भावना को सही अर्थ में नहीं समझा, यह मेरी बड़ी भूल है". राजा ने ताली बजा कर बंदी गृह के प्रभारी को बुलाया और उस कैदी चोर को तत्काल रिहा करने का हुक्म दिया. अगले ही पल उस चोर को दरबार में हाजिर किया गया. सारा वृत्तांत जान कर
वह चोर जलाराम बापा के पैरों में गिर कर फूट फूट कर रोने लगा. जलाराम बापा ने उसे स्नेहपूर्वक उठाया और
समझाइश दी- "गुरू भाई, अब से अपने सारे गलत काम को त्याग कर सत्य, सेवा और धर्म के मार्ग पर चलना. सदा सुखी रहोगे". उस चोर ने प्रायश्चित करते हुए कहा- "बापा, मैं भटक गया था. आपने मेरी आँखें खोल दी. आज से ही मैं आपके बताये रास्ते पर चलूँगा. मेरा ह्रदय परिवर्तन कर आपने मुझ पर बड़ा उपकार किया है, जीवन भर मैं आपका कर्जदार रहूँगा". तत्पश्चात राजा को धन्यवाद देते हुए जलाराम बापा उस चोर को अपने साथ लेकर गुरू के गाँव फतेहपुर के लिए रवाना हो गए. ( जारी )
                       
                                           

मंगलवार, 3 जनवरी 2012

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 33 )

खाली अन्न कोठियों को भर कर अंतर्ध्यान हुए : जलाराम बापा अपने सदाव्रत-अन्नदान सेवा कार्य के लिए श्रद्धालुओं और अनुयायियों से केवल अनाज की भेंट सहयोग स्वरुप स्वीकार ही नहीं करते थे, बल्कि इन्हीं सहयोगियों को कभी अनाज का संकट महसूस होता था तो वे चमत्कारिक तौर पर उनका खाली अन्न भण्डार भी भर देते थे. वीरपुर के पड़ोसी गाँव में रहने वाले अनुयायी किसान जीवा पटेल के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ.
अकाल के कारण आम आदमी को खाने के लाले पड़ ही रहे थे, बड़े किसानों की हालत भी खराब हो गई थी. कोठारों में संग्रहित किया हुआ अनाज भी उपयोग में लाया जा चुका था. एक दिन सुबह सुबह किसान जीवा पटेल की पत्नी अभाव से परेशान होकर अपने पति पर बिफर उठी. उसने ताने मारते हुए कहा- "तंग आ गई हूँ आपके दानी रवैये से. अपना घर लुटा कर अब स्वयं आपको हाथ फैलाने की नौबत आ गई है. यह दुर्दिन आपके दोनों हाथ खुले होने के कारण देखना पड़ रहा है. बहुत सहयोग किये हो जला भगत को. कहाँ है आपका जला भगत, अब बुलाओ उसे, ताकि अपनी परेशानी दूर हो". जलाराम बापा के विषय में ऐसे गलत शब्द सुन कर जीवा पटेल अपनी पत्नी पर झल्लाए और कहा- "क्यों आज सुबह होते ही मुझ पर अपनी भड़ास निकाल रही हो. मुझ पर जितना गुस्सा उतारना है उतार लो लेकिन जलाराम बापा के बारे में तो कम से कम ऐसा मत बोलो. जाओ रसोई घर में और मेरे लिए कुछ नाश्ता बनाओ". उसकी पत्नी ने झिडकते हुए जवाब दिया- "कोई नाश्ता नहीं मिलेगा. दोपहर को भी खाना नहीं बनेगा. कोठार में अन्न का एक दाना भी नहीं बचा है. लगता है हमें भी अब वीरपुर जाकर सदाव्रत की पंगत में बैठ कर पेट भरना पडेगा". जीवा पटेल ने फिर शांत होकर उसे समझाया- "देखो, जलाराम बापा के यहाँ अन्न ग्रहण करना कोई शर्म की बात नहीं है, वह तो प्रभु के प्रसाद स्वरुप है. ठीक है आज हमारे यहाँ अन्न ख़त्म हो गया है, किन्तु जलाराम बापा हमें कभी भूखे मरने नहीं देंगे. तुम चिंता मत करो".
जीवा पटेल एक स्वाभिमानी और सेवा भावी किसान था. उसने कभी दूसरों के आगे हाथ नहीं फैलाया था, बल्कि हमेशा जलाराम बापा के आदर्शों को अपना कर दीनदुखियों की सेवा को ही अपना धर्म माना था. अनाज का  अनावश्यक संग्रहण करना उसे पसंद नहीं था. जितनी जरूरत होती, उतना अनाज ही अपने कोठार में रखता. अतिरिक्त अनाज वह कभी जलाराम बापा के यहाँ दे आता या कभी भिक्षुओं में बाँट देता था.
अभाव की स्थिति और पत्नी की नाराजगी दूर करने के उद्देश्य से उसने माला उठायी फिर श्रद्धापूर्वक जलाराम बापा का नाम जपने लगा. उधर दूसरी ओर उसकी पत्नी के भुनभुनाने का क्रम जारी था. किन्तु जीवा पटेल तो पूरे मनोयोग से जलाराम बापा के स्मरण में जुटा हुआ था. एकाएक उसे अपने सामने जलाराम बापा का संबोधन सुनाई दिया- "जीवा भाई, कैसे हो. हालचाल ठीक है न. कोई परेशानी तो नहीं है न, यदि हो बताओ?". जीवा पटेल ने आँखें खोली तो देखा सामने जलाराम बापा खड़े थे. वह चौंक गया. वह सोचने लगा, याद करते ही जलाराम बापा इतनी जल्दी वीरपुर से यहाँ कैसे पहुँच गए. वह फुर्ती से खडा हुआ और जलाराम बापा के चरण स्पर्श किये.
इस बीच जीवा पटेल की पत्नी भी जलाराम बापा की आवाज सुन कर आ गई. जलाराम बापा को अपने घर में देख कर उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा. उसने तो आवेश वश जलाराम बापा को बुलाने कहा था. यहाँ सचमुच जलाराम बापा सशरीर हाजिर हो गए. जीवा पटेल ने अपनी पत्नी से कहा- "देखो भाग्यवती, यह हैं मेरे जलाराम बापा. तुम इन्हें बुलाने को कह रही थी, लो वे हमारी पुकार सुन कर उपस्थित हो गए हैं, जो सहायता मांगनी हो अभी मांग लो, फिर अफ़सोस न करना". जलाराम बापा उससे बोले- "बेटी, बताओ क्यों मुझे याद कर रही थी. कोई परेशानी हो तो निःसंकोच बताओ". जीवा पटेल की पत्नी सकपका गई. उसकी जुबान पर मानो ताला लग गया हो, मुंह से एक शब्द नहीं निकले. तत्पश्चात मौन का वातावरण भंग करते हुए जलाराम बापा स्वयं बोले-
"अच्छा ठीक है. जीवा भाई, चलो मुझे अपना अन्न भण्डार दिखाओ. इसे ही देखने ही मैं तुम्हारे यहाँ आया हूँ".
अब साहस जुटा कर जीवा पटेल की पत्नी ने जलाराम बापा को असलियत बताते हुए हाथ जोड़ कर कहा- "बापा,
सच तो यह है कोठार में चूहे भागमभाग कर रहे हैं". जलाराम बापा ने मुस्कुराते हुए दार्शनिक अंदाज में कहा- "बेटी, प्रभु के सच्चे भक्त के कोठार में ऐसा ही होता है. दाने दाने पर लिखा होता है खाने वाले का नाम. यदि चूहे भी खा रहे हैं, तो इसमें क्या बुरा है. चलो, शीघ्र कोठार दिखाओ, मुझे दूसरे गाँव भी जाना है". जलाराम बापा का आदेश मान कर जीवा पटेल आगे बढ़ा और उसकी पत्नी भी पीछे पीछे चल पडी.
कोठार में दाखिल होते ही जलाराम बापा बोले- "जीवा भाई, तुम्हारा यह अनाज का कोठार तो अच्छा है. बहुत सारी कोठियां रखी हुई हैं". यह कहते हुए उन्होंने एक बंद कोठी को देख कर पूछा- "इसमें क्या गेहूं भरा है?". फिर दूसरी कोठी के पास जाकर कहा- "लगता है इसमें बाजरा भरा है". वे क्रमवार सभी बंद पडी कोठी के पास गए. वे कहते गए-"इसमें तो ज्वार है". "इसमें तो चावल है". इसमें तो चना है". इसमें तो मूंग है". अंत में जलाराम बापा ने जीवा पटेल को समझाइश देते हुए कहा- "सुनो जीवा भाई, मेरे यहाँ से जाने के बाद ही इन सभी कोठियों को खोलना. जितना आवश्यक हो उतना ही इसमें से निकालना, और अकेले नहीं खाना".गरीब भूखे जनों का भी पेट भरना ".जीवा पटेल जलाराम बापा की बातें सुन कर हतप्रभ था. वह विचारमग्न हो गया. उधर, उसकी पत्नी को सब्र न रहा. उत्सुकता वश वह प्रत्येक कोठी के पास गई और खोल कर देखा तो वैसा ही हुआ जैसा जलाराम बापा
का अनुमान था. सभी कोठियां विभिन्न अनाज से भरी हुई थी. वह खुशी से उछल पडी. और आनंदित स्वर में आभार जताते हुए कहा- "बापा, यह तो आपने चमत्कार कर दिखाया. वास्तव में आपको समझने में मेरी भूल हुई. मुझे क्षमा कर दीजिये. आप सचमुच महान परोपकारी संत हैं, आपके हम जीवन भर आभारी रहेंगे". यह कहते हुए वह पीछे मुडी तो देखा जलाराम बापा अंतर्ध्यान हो चुके थे. उनका अचानक अदृश्य हो जाना उसे समझ नहीं आया. अपनी पत्नी की झुंझलाहट देख कर जीवा पटेल ने हंसते हुए कहा- "क्यों भाग्यवती, देखा मेरे बापा का
चमत्कार. अब तो सब कुछ जान गई हो न उनके बारे में. भविष्य में अब उनके विषय में कोई गलत बात नहीं  करना. बापा किसी को भूखा नहीं रखते हैं. जा अब जल्दी से मेरे लिए नाश्ता बना". उसकी पत्नी ने प्रायश्चित करते हुए माफी माँगी और विश्वास दिलाया आगे कभी भी वह जलाराम बापा के विषय में कोई गलत बात नहीं करेगी. जीवा पटेल अपनी पत्नी के ह्रदय परिवर्तन को देख कर प्रसन्न हो गया. ( जारी )                                            
                                                             

रविवार, 1 जनवरी 2012

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 32 )

छोटे गंज से छः सौ लोगों को दूध परोसने का चमत्कार : जलाराम बापा जितने अपने श्रद्धालुओं के बीच लोकप्रिय थे, उतने ही संत महात्माओं के भी प्रिय पात्र थे. चलाडा गाँव के दाना भगत जलाराम बापा के प्रति अपार श्रद्धा रखते थे. एक दिन दाना भगत के साथ ऐसी घटना घटी, जिससे उनका मन दुखी हो गया. शाम ढल रही थी. दाना भगत अपने घर में अथितियों को स्वल्पाहार करा रहे थे.  कुछ अनुयायी उनके दर्शनार्थ आंगन में बैठ कर प्रतीक्षा कर रहे थे. एकाएक दरवाजे पर दाना भगत को जोर की हुंकार सुनाई दी. अगले ही पल धडधडाते हुए कुछ सशस्त्र काठी दरबारी घर के भीतर जबरिया तौर पर घुस आये. आते ही इनके तलवार धारी मुखिया ने दाना भगत से पूछा- "कहाँ है तुम्हारा दाना भगत?, बुलाओ उसे, बहुत माल इकट्ठा कर रखा है उसने". दाना भगत ने शांतचित्त होकर कहा- "यहाँ कैसे आना हुआ आप लोगों का?, मुझे नहीं पहचानते हो क्या? मैं ही दाना भगत हूँ. बताइये मैं आप लोगों की क्या सेवा कर सकता हूँ". काठी दरबारी के मुखिया ने तलवार को हवा में लहराते हुए व्यंगात्मक लहजे में कहा- "ऐसा क्या, तो तुम हो दाना भगत. ढोंगी  भगत बन कर पूरे गाँव को बेवकूफ बना कर बहुत धन जमा कर लिए हो. बाहर निकालो उसे". दाना भगत उन्हें उलाहना देते हुए बोले- "अरे दुष्टों, लूटपाट करने के लिए तुम्हें और कोई घर नहीं मिला, जो मेरे जैसे फक्कड़ भगत के यहाँ चले आये. अपना समय क्यों बर्बाद करने यहाँ आ गए. यहाँ तुम्हें निराशा ही हाथ लगेगी". मुखिया ने अपनी मूछों को ऐठते हुए कहा- "ढोंगी भगत, हमने सुना है बहुत माल है तुम्हारे पास. उसे आज और अभी हल्का किये देते हैं". दाना भगत ने खुलासा करते हुए जवाब दिया- "हाँ, बहुत धन मैंने एकत्रित किया है, किन्तु वह ज्ञान और धर्म का धन है. इसे तो मैं सबको खुले हाथों से बांटता हूँ. चाहो तो तुम भी ले लो, हो सकता है इससे तुम्हारा भी जीवन सुधर जाए". मुखिया ने झल्लाते हुए गुस्से से कहा- "ये सब गोलमाल बातें करना बंद करो और माल मेरे सामने लाकर रखो", दाना भगत बोले- "तुमको जब मेरी बात पर विश्वास ही नहीं हो रहा है तो मैं क्या कर सकता हूँ". मुखिया ने उन्हें धमकाते हुए कहा- "अब जो करना हैं, हम ही करेंगे. तुम चुपचाप यहीं खड़े रहो". इतना कहकर मुखिया ने अपने साथियों को भीतर जाकर धन ले आने का आदेश दिया. फिर उसके साथी जबरन अन्दर घुस कर तलाशी करने लगे. जो भी कीमती सामान दिखा, उसे गठरी में बाँध कर बाहर ले आये.
जब वे लुटेरे काठी दरबारी और मुखिया सामान लूट कर जाने लगे तो दाना भगत ने दुखी होकर उन्हें श्राप दिया- "यहाँ लूटमार कर तुम लोगों ने अच्छा नहीं किया है. तुम लोगों ने केवल सामान ही नहीं लूटा है, बल्कि यहाँ की प्रतिष्ठा भी लूटी है. भगवान् तुम लोगों को कभी क्षमा नहीं करेंगे. भगवान् तुम लोगों को इसका दंड अवश्य देंगे. तुम लोग जेतपुर के दबंग कर्णधार हो, इस भ्रम में न रहना. तुम्हारे यहाँ भी ऐसी लूट होगी, जीवन भर तुम लोग याद रखोगे. आज ही मैं अपने भगवान् से प्रार्थना कर तुम लोगों को दण्डित करवाउंगा". लुटेरों के मुखिया ने दाना भगत का उपहास उड़ाते हुए कहा- "हमें भगवान् से दंड दिलाओगे. ठीक है, वो भी देख लेंगे तुम्हारा भगवान् हमारा क्या बिगाड़ता है". अपने मुखिया के समर्थन में काठी दरबारियों ने भी जोर से ठहाके लगाए फिर हवा में तलवार लहराते हुए लूटा हुआ सामान उठा कर घोड़े में लादा और जेतपुर की तरफ सरपट भाग गए.
अभी कुछ ही दिन बीते थे, दाना भगत के श्राप का असर दिखना शुरू हो गया. लुटेरे मुखिया सहित काठी दरबारियों के घर रोज कोई न कोई परेशानी पैदा होने लगी. आर्थिक संकट उत्पन्न होने लगा. परिवार के सदस्यों
की क्रमशः मृत्यु होने लगी. मुखिया के दोनों पुत्रों की मौत हो गई. इनका वंश ख़त्म होने लगा. सभी लुटेरों को दाना भगत द्वारा दिए गए श्राप का अहसास होने लगा. फिर सबने मिल कर यह तय किया दाना भगत से लूटा सारा सामान उन्हें सम्मान के साथ वापस लौटा दिया जाय और उनसे माफी मांग ली जाय. तत्काल वे सभी सामान लेकर दाना भगत के गाँव के लिए रवाना हो गए.
जब वे लोग दाना भगत के घर पहुंचे तब दाना भगत भगवान के नाम की माला जप रहे थे. आते ही सबने दाना भगत के चरण स्पर्श किये और सामान लौटाते हुए अपने कृत्य की माफी माँगी. मुखिया ने हाथ जोड़ कर प्रायश्चित करते हुए कहा- "भगत जी, आपके यहाँ लूटपाट कर हमसे बहुत बड़ी भूल हो गई, हम सबको क्षमा कर दीजिये. भगवान् ने हमें दंड दे दिया है. हमें अपने इस गलत काम के लिए बहुत पछतावा हो रहा है, आप जो सजा देंगे हमें मंजूर है, किन्तु अपना श्राप वापस ले लीजिये और जेतपुर आकर आप हमें उपकृत कीजिये.". दाना भगत ने शांत भाव से जवाब दिया- "सुनो भाइयो, मैंने तुम लोगों को पहले चेताया था लूटमार मत करो, तुम्हारा ही नुकसान होगा. परन्तु तुम लोग माने नहीं. श्राप मैंने नहीं, भगवान् ने दिया है, मैं तो केवल एक माध्यम हूँ. मैं तुम लोग की सहायता नहीं कर सकता". मुखिया उनके पैरों में गिर कर रोते हुए मान मनौव्वल करने लगा. दाना भगत पसीज गए. उन्होंने उनका आग्रह स्वीकार करते हुए कहा- "ठीक है, भगवान की जैसी इच्छा. मैं तुम लोगों की सहायता करूंगा. अगले सप्ताह मैं तुम्हारे गाँव जेतपुर आउंगा, लेकिन तुम लोगो को वीरपुर जाकर जलाराम बापा को भी जेतपुर आने का ससम्मान निमंत्रण देना होगा". मुखिया ने राहत भरी सांस ली फिर उसने आभार जताते हुए कहा- "भगत जी, आपका हर आदेश हमें स्वीकार है, आपने हमारी सहायता करने का वचन देकर बड़ा
उपकार किया है, हम आपके जीवन भर आभारी रहेंगे". तत्पश्चात वे सभी दाना भगत की आज्ञा लेकर लौट गए.
एक सप्ताह बाद दाना भगत अपने वचन के मुताबिक़ जेतपुर के काठी दरबारियों के यहाँ पहुँच गए. उधर, वीरपुर से जलाराम बापा भी जेतपुर पहुँच गए. जेतपुर वीरपुर गाँव की सीमा के समीप होने के कारण जलाराम बापा को आने में ज्यादा समय नहीं लगा. सौराष्ट्र के प्रख्यात दो संतों के मिलन से पूरा जेतपुर गाँव प्रसन्नचित्त था. जेतपुर के काठी दरबारियों के श्राप का निवारण करने के लिए दाना भगत और जलाराम बापा जैसे दो महान संत पधारे हैं, यह जान कर आसपास के क्षेत्रों से भी करीब छह सौ लोग श्रद्धा वश इकट्ठे हो गए.
दोपहर का समय था. सब लोग भोजन करने बैठे थे. काठी दरबारियों में भोजन के वक़्त दूध पिलाने का चलन था. मुखिया चिंतित था. उसे समझ नहीं आ रहा था सबको दूध कैसे पिलाया जाय. करीब छः सौ लोग इकट्ठे हो जायेंगे, इसकी कल्पना न थी. एक सेवक ने मुखिया को दूध का छोटा गंज दिखाते हुए पूछा- "इतना दूध सबको कैसे पूरेगा". उधर, दाना भगत और जलाराम बापा खटिया में बैठे हुए थे. दोनों संत मुखिया की परेशानी भांप गए. दाना भगत ने मुखिया को इशारे से अपने पास बुलाया और उससे बोले- "भाई, मेहमानों को दूध जल्दी परोसो".        
मुखिया ने चिंतित होते जवाब दिया- "लेकिन भगत जी, इतना कम दूध सबको कैसे पूरेगा?". दाना भगत ने मुस्कुराते हुए कहा- "दूध का गंज जलाराम बापा को दे दो, वे स्वयं सबको परोस देंगे". फिर जलाराम बापा को दूध का गंज परोसने के लिए सौंप दिया गया. जलाराम बापा ने प्रभु श्रीराम का नाम लेकर पंगत में बैठे लोगों को दूध परोसना शुरू किया. शुरूआत दाना भगत से की. देखते ही देखते जलाराम बापा ने उस छोटे गंज से ही करीब छः सौ लोगों को दूध परोस दिया. यह अजूबा देख कर मुखिया समेत सभी लोग आश्चर्यचकित रह गए. जलाराम बापा के इस चमत्कार की खबर पूरे जेतपुर गाँव में तेजी से फ़ैल गई. ग्रामवासी जलाराम बापा के दर्शन के लिए उमड़ पड़े. शाम को भजन कार्यक्रम शुरू हुआ, जो रात भर चला. सुबह विदाई के समय दाना भगत ने मुखिया समेत काठी दरबारियों को समझाइश देते हुए कहा- "अब से किसी को परेशान नहीं करना. सारे गलत काम को त्याग कर धर्म और सेवा के मार्ग पर चलना. यह आप लोगों का सौभाग्य है जलाराम बापा जैसे महान परोपकारी संत आपके बाजू के गाँव वीरपुर में रहते हैं. कभी कोई संकट आये तो बापा से मिलना. उनका चमत्कार आज तुम लोगों ने स्वयं अपनी आँखों से देख लिया है". फिर सभी लोगों ने दोनों संतों के चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लिया और उनके जयकारे लगाए. जब दोनों संत विदा हो रहे थे, तब श्रद्धालुओं की आँखों से आंसू बह रहे थे. ( जारी )