शनिवार, 7 जनवरी 2012

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 37 )

आथित्य सेवा की अदला बदली : जलाराम बापा जन सामान्य की तकलीफों को दूर करने और उनसे मुलाक़ात करने के लिए यदाकदा ग्रामीण दौरे पर निकल जाते थे. जब भी अगले गाँव जाना होता था, तो वे पहले से ही घुड़सवार सेवक को भेज कर अपने आगमन की सूचना दे देते थे. अक्सर उनके काफिले में कुछ सेवक अनुयायी भी साथ रहते थे. जलाराम बापा अथिति बन कर कभी भी किसी पर बोझ नहीं बनते. जो श्रद्धालु स्वेच्छा से उन्हें आथित्य सत्कार देना चाहता, उसके आमंत्रण को वे सहर्ष स्वीकार कर लेते थे. कुछ ऐसे भी प्रिय अनुयायी थे, जिनके यहाँ वे नियमित तौर पर अतिथि बनते थे. लेकिन यदि आथित्य सत्कार में किसी अनुयायी को कोई परेशानी महसूस होती थी, तो जलाराम बापा दूर से ही उनके मन की पीड़ा को भांप लेते थे. अतिथि बन कर उसे धर्म संकट में नहीं डालते थे. जलाराम बापा तो अन्तर्यामी संत थे. इसलिए वे कभी कभी अपने आथित्य सेवा की अदला बदली भी कर अनुयायी की अप्रत्यक्ष रूप से सहायता भी करते थे. सातुदड गाँव के अनुयायी वीरजी भाई और आम्बा भाई के साथ भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ.
यूं तो इस गाँव में जलाराम बापा के कई अनुयायी थे, किन्तु वीरजी भाई और आम्बा भाई उनके ज्यादा करीबी थे. इसलिए जब भी जलाराम बापा इस गाँव में पधारते तो इन्हीं के घर अपना पड़ाव डालते. पूरे गाँव के लोग इससे अवगत थे. जलाराम बापा के आगमन की जानकारी मिलते ही बाजू के ग्रामवासी भी दर्शन करने उमड़ पड़ते थे.
एक दिन वीरजी भाई और आम्बा भाई को एक ग्रामीण ने जानकारी दी- "मोटा भाई, जलाराम बापा का काफिला बाजू के गाँव में ठहरा हुआ है. वे किसी भी समय यहाँ पहुँच सकते हैं. आप उनके आवभगत के सारे प्रबंध कर लीजिये". यह सुन कर दोनों भाई चिंतित हो गए. आथित्य सत्कार के विषय को लेकर वे पशोपेश में पड़ गए. वे सोचने लगे आखिर जलाराम बापा को कहाँ ठहराया जाय, जो उनकी गरिमा और सम्मान के अनुकूल हो. दरअसल, उनकी चिंता की मुख्य वजह यह थी अब तक अपने घर में वे जिस जगह जलाराम बापा को ठहराया करते थे, वहां कपास का ढेर लगा हुआ था. इतना समय नहीं बचा था, उसे चरखे से तत्काल कात सकें. अगर कहीं जलाराम बापा एकाध हफ्ता रूक गए तो चरखे भी नहीं चल पायेंगे और कपास का ढेर यूं ही पडा रह जाएगा. यही सोच कर वे दोनों भाई विचलित हो गए. इस बात से भी वे चिंतित थे जलाराम बापा ने हमेशा की तरह इस बार घुड़सवार के जरिये अपने आगमन की विधिवत सूचना क्यों नहीं भिजवाई. यदि पहले से खबर होती तो वे साफ़ सफाई करवा लिए रहते. कपास को चरखे से कतवा कर बाजार भिजवा दिए रहते. दोनों भाइयों में अभी यह विचार मंथन हो रहा था, तभी एक ग्रामीण हाँफते हुए आया और उनसे बोला- "मोटा भाई, जलाराम बापा गाँव की सीमा तक पहुँच चुके हैं". दोनों भाई हडबडा गए. वीरजी भाई ने आम्बा भाई से कहा- "भाई, अब कुछ सोचने समझने का समय नहीं बचा है, जल्दी से कपास के ढेर को कपडे से ढकवा देते हैं. बापा आते ही होंगे". फिर उन्होंने अपने सबसे छोटे भाई पीताम्बर को आदेशित करते हुए कहा- "पीताम्बर, दौड़ते हुए जा और बापा की सम्मान के साथ अगवानी कर उन्हें यहाँ ले आ. हम भी पीछे पीछे आ रहे हैं".
वीरजी भाई और अम्बा भाई ने फुर्ती दिखाते हुए कपास के ढेर को कपडे से ढकवा दिया, आसपास हल्की साफ़ सफाई करवा दी. फिर दोनों भाई चल पड़े जलाराम बापा का स्वागत करने. वे कुछ कदम आगे बढे थे, सामने से
पीताम्बर आता दिखा. उसके चहेरे की रंगत उडी थी. वीरजी भाई ने उससे पूछा- "अरे पीताम्बर, तू अकेला कैसे आ गया. बापा कहाँ हैं?. रूआंसा होकर पीताम्बर बोला- "बापा इस बार खोजावाले दरवाजे के बजाय बड़े दरवाजे से
होकर गाँव में आये हैं". दोनों भाई हतप्रभ हो गए और दुखी भी. आम्बा भाई ने कहा- "ऐसा पहली बार हुआ है जब बापा के स्वागत करने का सौभाग्य हमें नहीं मिला". उधर, बड़े दरवाजे के पास वीरजी भाई के चाचा प्रेमजी भाई
का घर था. जैसे ही प्रेमजी भाई को जलाराम बापा के काफिले के आने की जानकारी मिली, वे घर से बाहर निकले और स्वागत करने के लिए मार्ग के बीचोंबीच खड़े हो गए. उन्हें सड़क के मध्य खडा देख कर जलाराम बापा ने काफिला रूकवा दिया. प्रेमजी भाई ने हाथ जोड़ कर जलाराम बापा से निवेदन किया- "बापा, इस बार मुझे सेवा करने का अवसर प्रदान कीजिये. आपके चरणों की धूलि से मेरा घर पवित्र हो जाएगा". जलाराम बापा ने स्मित
मुस्कान के साथ निमंत्रण स्वीकार करते कहा- "ठीक है भाई, मेरी दृष्टि में तो सभी लोग बराबर हैं. इस बार तुम्हारे घर रूक जाते हैं". जलाराम बापा की स्वीकारोक्ति से प्रेमजी भाई प्रसन्न हो गए. वे आदरपूर्वक जलाराम बापा और उनके काफिले को ठहराने अपने घर के भीतर ले गए. प्रेमजी भाई के एक इशारे पर उनके कर्मचारियों ने तत्काल आथित्य सत्कार का समस्त प्रबंध कर दिया.
इसी बीच प्रेमजी भाई के तीनों भतीजे भी वहां आ गए. आते ही वीरजी भाई ने दुखी भाव से पूछा- "काका, आदरणीय बापा कहाँ बैठे हैं". प्रेमजी भाई ने सामने के कमरे की तरफ उंगली दिखाई. वे फुर्ती से कमरे में दाखिल हुए. जलाराम बापा विश्राम की मुद्रा में बैठे हुए थे. तीनों भतीजों ने जलाराम बापा के चरण स्पर्श किये. फिर वीरजी भाई ने हाथ जोड़ कर उदासी भरे स्वर में कहा- "बापा, हमसे कोई गलती हो गई है क्या? आपने हमें इस बार ऐसी सजा क्यों दी? इस बार आप हमारे घर नहीं पधारे, जबकि हर बार हमें आपके आथित्य का सौभाग्य नसीब होता  है". जलाराम बापा ने हंसते हुए प्रत्युत्तर दिया- "भाई, और कुछ कहना हो तो कह दो, संकोच नहीं करो. तुमको बोलने का पूरा अधिकार है". वीरजी भाई ने सर झुकाते हुए कहा- "बाकी बात तो आप जानते ही हैं, आपसे से कौन सी बात कभी छिपी है". जलाराम बापा बोले- "मैं सब बात जानता हूँ, इसीलिये तो तुम्हारे घर न आकर प्रेमजी भाई के घर रूका हूँ". वीरजी भाई ने आश्चर्यचकित होकर पूछ- "आपको किसने हमारी समस्या से अवगत कराया?'  जलाराम बापा ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया- "मुझे मेरे प्रभु ने तुम्हारी दुविधा के विषय में सब बता दिया है. कपास का ढेर पडा है तुम्हारे यहाँ, मेरे रूकने से तुम्हें परेशानी होती. मैं अपने भक्तों को कभी परेशान होते देख नहीं सकता. अतिथि तो भगवान् होता है, बोझ नहीं. मैं भगवान् नहीं हूँ किन्तु भक्तों पर कभी बोझ नहीं बनता. इसीलिये इस बार बड़े दरवाजे से होकर गाँव में प्रवेश किया. प्रेमजी भाई ने प्रेम से बुलाया तो इनके घर रूक गया. यह घर भी तो तुम्हारे ही काका का है". यह सुन कर वीरजी भाई निरूत्तर हो गए. आगे वे कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थे. फिर जब तक जलाराम बापा का पड़ाव रहा तब तक प्रेमजी भाई के तीनों भतीजे भी सारा कामकाज छोड़ कर चाचा के यहाँ रह कर जलाराम बापा की सेवा में दिन रात जुटे रहे. ( जारी )                              
                                                                            
             

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