शनिवार, 31 दिसंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 31 )

बेटी के पोते हरिराम को उत्तराधिकारी बनाया : जलाराम बापा ने अपना सारा जीवन घर संसार के बजाय सेवा और भक्ति संसार के नाम समर्पित कर दिया था. दीनदुखियों और अपने अनुयायियों को ही वे अपनी संतान मानते थे. यद्दपि पारिवारिक तौर पर उनकी एक मात्र संतान पुत्री जमुना बेन थी. जलाराम बापा का कोई पुत्र न था. उनकी एकलौती पुत्री जमुना बेन सर्व गुण संपन्न थी. पिताश्री जलाराम बापा की तरह वे भी भक्ति भाव से ओतप्रोत थीं. जलाराम बापा ने अपनी एकलौती पुत्री जमुना बेन का विवाह अत्यंत सादगीपूर्ण तरीके से कोटडा पीठा निवासी जसुमा के पुत्र भक्तिराम के साथ किया था. जमुना बेन के दो पुत्र काना भाई और रामजी भाई थे.  जमुना बेन के बड़े बेटे काना भाई में तुलनात्मक रूप से भक्ति और सेवा भाव अधिक था. वे एक संत पुरूष सदृश्य थे. प्रभु भक्ति और सेवा का वातावरण उन्हें अच्छा लगता था, इसलिए वे वीरपुर गाँव में अपने नाना जलाराम बापा के घर में ही रहते थे. काना भाई की चार संतान थी. पुत्र हरिराम बड़े थे. जबकि तीन पुत्री क्रमशः कुंवर फईबा, राम फईबा और कशणी फईबा थी. काना भाई के छोटे भाई रामजी भाई की कोई संतान नहीं थी.
काना भाई के पुत्र हरिराम बाल्यकाल से ही मेधावी, दयालु और प्रभु भक्त थे. जलाराम बापा अपनी एकलौती संतान जमुना बेन के पोते हरिराम को बेहद पसंद करते थे. वह जलाराम बापा के मन मानस में वात्सल्य भाव से प्रतिस्थापित हो गया था. हरिराम को ही अपना उत्तराधिकारी बनाने जलाराम बापा ने तय कर लिया था. वे अपने मन की इच्छा को सार्वजनिक तौर पर जाहिर करने के सही अवसर की प्रतीक्षा में थे. दिन बीतते गए. बालक हरिराम की उम्र बढ़ने लगी थी. आयु के साथ साथ उसकी बौद्धिक परिपक्वता और सदगुणों में भी बढ़ोत्तरी हो रही थी. पढ़ाई के प्रति लगन होने के बावजूद प्रभु भक्ति में उसका मन अधिक लगता था. जलाराम बापा उसकी हर गतिविधियों पर पैनी नजर रखते थे. इसलिए वे आत्म संतुष्ट और निश्चिन्त थे हरिराम भविष्य में भी उनके द्वारा जारी सेवा कार्यों की अलख जागृत रख सकेगा.
हरिराम ने अब तक बारह वसंत देख लिए थे. एक दिन फिर वह गौरवमयी अवसर भी आ गया जिसकी जलाराम बापा बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे. सुबह का वक़्त था. हरिराम नित्य कार्य से निवृत्त होकर स्कूल जाने के लिये घर से निकल रहा था, तब जलाराम बापा ने उसे अपने पास बुलाया और पूछा- "बेटा हरिराम, कहाँ जा रहे हो?" हरिराम ने जलाराम बापा के चरण स्पर्श करते हुए प्रत्युत्तर दिया- "बापा, विद्यालय जा रहा हूँ, मेरे लिए कोई आदेश हो तो बताइये". जवाब सुनने के बाद जलाराम बापा क्षण भर के लिए विचारमग्न हो गए. मानो वे अपने प्रभु श्रीराम से कोई गंभीर विचार विमर्श कर रहे हों. अगले ही पल उन्होंने हरिराम के सर पर स्नेहपूर्वक हाथ फेरा और आदेशपूर्ण लहजे में बोले- "बेटा हरिराम, आज से तुझे अब विद्यालय जाने की कोई आवश्यकता नहीं है. तुझे आज से ही यहाँ के सेवा कार्यों का उत्तरदायित्व सम्हालना है. आज से तू मेरा वारिस है". जलाराम बापा का यह निर्णय सुन कर हरिराम चौंक गया. उसे सुखद आश्चर्य भी हुआ, लेकिन जलाराम बापा से इस विषय में जिज्ञासा वश कोई पूछताछ करने का साहस उसमें नहीं था, इसलिए तत्काल उसने अपनी सहमति देते हुए हाथ जोड़ कर कहा- "बापा, यह मेरा सौभाग्य है जो आपने मुझे इस उत्तरदायित्व के योग्य समझा. मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ आपका प्रत्येक सेवा-आदेश मेरे प्राणों से अधिक प्रिय होगा". जलाराम बापा उसके विचार सुन कर प्रसन्न हो गए और उसे गले लगा लिया. जलाराम बापा की कोई ऐसी जमीन-जायदाद या अकूत संपत्ति नहीं थी, जिससे उन्हें वारिसदार की आवश्यकता पड़ गई हो. दरअसल, उन्होंने तो हरिराम को दीनदुखियों की सेवा करने वाला उत्तराधिकारी बनाया था. भूखे जनों का पेट भरने और उनके दुःख दूर करने का वरिसदार बनाया था. सदाव्रत-अन्नदान अभियान को उनके न रहने के बाद भी जारी रखने का वारिसदार हरिराम को बनाया था. जलाराम बापा ने हरिराम को वास्तव में कुछ पाने का नहीं वरन दूसरों को देने का उत्तराधिकारी बनाया था.
जलाराम बापा द्वारा हरिराम को अपना वारिस घोषित करने की खबर तेजी से चारों तरफ फ़ैल गई. सभी ने जलाराम बापा के इस फैसले को सराहा. जलाराम बापा के आदेश का पालन करते हुए हरिराम ने उसी क्षण से सेवा कार्यों को ज्ञान की किताबें मान कर अपना लिया. विद्यालय जाना छोड़ दिया. जलाराम बापा के सेवा घर को
ही अपना विद्यालय मान कर पूरी लगन से जुट गया. सदाव्रत-अन्नदान कार्य में सहयोग उसका नियमित अध्ययन सदृश्य बन गया. खाली समय में हरिराम धर्म ग्रंथों को पढने लगा. इस तरह खाली समय का भी सदुपयोग होने लगा. फिर तो हरिराम को प्रभु का प्रसाद ऐसा मिला, वह ह्रदय से श्रीराम का सच्चा भक्त बन गया.
वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत, गीता आदि धर्म ग्रन्थ उसे कंठस्थ हो गए. जलाराम बापा
के जीवन आदर्शों को भी उसने आत्मसात कर विचार और व्यवहार में प्रयुक्त करना प्रारम्भ कर दिया था. ( जारी )                  
                        ,                                            

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 30 )

सेवा भावी पत्नी वीर बाई का स्वर्गवास : जलाराम बापा के प्रत्येक सेवा कार्यों में पत्नी वीर बाई का योगदान अनूठा था. सदाव्रत-अन्नदान का अभियान इनके सहयोग के बिना संभव न था. आगंतुक अथितियों की संख्या अधिक होने के बावजूद इन्होने सदैव पूरी तन्मयता और प्रसन्नचित्त होकर रसोई तैयार की. सदाव्रत-अन्नदान का सिलसिला शुरू हुए ५८ वर्ष हो चुके थे, लेकिन वीर बाई का उत्साह पूर्ववत कायम था. उसमें कोई कमी नहीं आई थी.  वे तो साक्षात अन्नपूर्णा देवी सदृश्य थीं. तैयार की हुई रसोई में उनके प्रेम वात्सल्य का भी स्वाद भी समाहित रहता था. जलाराम बापा और पत्नी वीर बाई दोनों का प्रथम उद्देश्य दीनदुखियों की सेवा करना था. प्रभु भक्ति और सेवा कार्यों के कारण वे गृहस्थ होते हुए भी सांसारिक मोह माया से कोसो दूर थे. जलाराम बापा द्वारा अपनी पत्नी वीर बाई को देवी मान कर उनके प्रति हमेशा श्रद्धा भाव रखना अनुयायियों के लिए प्रेरणा जनक था.
एक दिन ऐसा भी आया, जो सबको रूला गया. इस ह्रदय विदारक क्षण की किसी को कल्पना नहीं थी. आगंतुक अथितियों, अनुयायियों, सेवकों और वीरपुर वासियों के लिए इस दिन का सूरज ताप नहीं बल्कि संताप लेकर उगा था. देवी स्वरूप वीर बाई ने बिस्तर पर अपनी अंतिम साँसें लीं. उन्होंने इस मायावी संसार से सदा के लिए अपनी विदाई ले ली. लोगों की आँखों से आंसू नहीं थम रहे थे. रो-रो कर उनका बुरा हाल था. वीरपुर के साथ साथ आसपास के क्षेत्रों में भी यह शोक समाचार वायु वेग से फ़ैल गया था. श्रद्धालु जन वीर बाई के अंतिम दर्शन के लिए वीरपुर उमड़ पड़े थे. हर कोई शोक संतप्त था. शोक में लोगों ने भोजन त्याग दिया था. लेकिन जलाराम बापा अपने प्रभु की इस इच्छा से अवगत थे. जीवन-मृत्यु के गूढ़ रहस्य को वे भलीभांति समझते थे, इसलिए उनकी आँखे नम अवश्य थीं किन्तु उनके चहेरे के भाव को पढ़ना आसान नहीं था. रोकर बेसुध से होने वाले अपने अनुयायियों को जलाराम बापा सांत्वना दे रहे थे.तो किसी को जीवन के सत्य से वाकिफ करा रहे थे. यद्दपि जलाराम बापा को इसका अहसास अवश्य था उनके सेवा यज्ञ में पत्नी वीर बाई की आहुतियाँ अत्यंत लाभकारी थीं, जिसका अभाव अब थोड़ी दिक्कत पैदा करेगा. लेकिन प्रभु के इस कठोर फैसले के समक्ष वे भी विवश थे. वीर बाई जलाराम बापा की केवल जीवन संगिनी ही नहीं थीं, बल्कि उनके सेवा कार्यों में बराबर की सहभागी भी थीं.
वीर बाई के बैकुंठ धाम प्रवास के पश्चात जलाराम बापा ने अपने यहाँ एक सप्ताह तक निरंतर राम धुन के साथ भजन कार्यक्रम जारी रखवाया. वीर बाई को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करने के लिए श्रद्धालु जन इस भजन कार्यक्रम में परिवार सहित शामिल हो रहे थे. "रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीता राम" गायन के दरम्यान अनुयायियों को इन पंक्तियों में जलाराम बापा और वीर बाई की झलक दृष्टिगोचर हो रही थी. इस तरह
सात दिन तक जलाराम बापा के सानिध्य में भजन की पावन गंगा प्रवाहित होती रही और श्रद्धालु जन भक्ति के निर्मल शीतल जल से अपने तपते शोक संतप्त शरीर तथा अंतर्मन को ठंडक देकर पवित्र करते रहे. ( जारी )                    .                               

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 29 )

कड़बी महिला की खोई नथ नारियल से निकली : जलाराम बापा की पत्नी वीर बाई अपने पति के सेवा कार्यों में सहयोग करने के साथ ही प्रभु भक्ति भी नियमित रूप से करती थीं. रोज रसोई तैयार होने के बाद वे सबसे पहले भगवान् को भोग लगाती थीं, फिर उसके बाद ही अथितियों को भोजन परोसा जाता था. एक दिन वे हमेशा की तरह पूजा पाठ करने के बाद वृद्ध महात्मा से प्राप्त झोली-डंडा के भी दर्शन कर रही थीं, तभी उन्हें उसमें एकाएक साक्षात राधा-कृष्ण के दर्शन हुए. वीर बाई हतप्रभ रह गई. फिर उनकी आँखों से खुशी के आंसू छलक उठे. दोनों हाथ जोड़ कर उन्होंने अपनी कृतज्ञता व्यक्त की. तत्पश्चात वे जब पूजा घर से बाहर वाले कमरे में आयीं तो कड़बी जात की एक
ग्रामीण महिला जो हाथ में एक नारियल रखे हुए थी, उनकी प्रतीक्षा करते हुए मिली. वीर बाई को देखते ही वह कड़बी महिला उनके पैरों में गिर कर रोने लगी. वीर बाई ने उसके सर पर वात्सल्य से हाथ फेरते हुए उसे उठाया. फिर पूछा- "बहन, ऐसे क्यों तुम रो रही हो? कोइ संकट आया हो, कोई दुख हो, तो साफ़ साफ़ बताओ, मेरे प्रभु तुम्हारी सहायता अवश्य करेंगे". अश्रुपूरित नेत्रों के साथ उस महिला ने सकुचाते हुए कहा- "देवी माँ, मैं बहुत परेशान हूँ. यदि आपकी कृपा होगी तो मेरा दुःख दूर हो जाएगा". वीर बाई ने उसे भरोसा दिलाते हुए कहा- "बहन, निःसंकोच अपनी परेशानी बताओ. घबराओ नहीं, तुम्हारा दुःख अवश्य दूर होगा". कड़बी महिला ने अपने आंसू पोछते हुए बताया- "देवी माँ, मैं रूडा पटेल की बहू हूँ. कुछ दिन पहले मैं काना पटेल के लड़के की बारात में गई थी. विवाह के समय आपाधापी में मेरे नाक की नथ गिर कर खो गई. मैंने उसे बहुत ढूंढा लेकिन कहीं न मिली. हो सकता है किसी ने उसे उठाकर खुद रख लिया हो. मेरे पति तो शांत स्वभाव के हैं, लेकिन मेरी सास गुस्सैल है. नथ को लेकर उसने मेरा जीना दूभर कर दिया है. ऐसी स्थिति में जीने से क्या लाभ?, अब आत्महत्या कर लेना ही उचित लग रहा है. इसीलिये अंतिम बार आपका आशीर्वाद लेने आई हूँ, ताकि मेरा परलोक सुधर जाए". वीर बाई ने उसे विनम्रता से समझाते हुए कहा- "बहन, ऐसा बिलकुल नहीं करना. कभी ऐसा आत्मघाती कदम नहीं उठाना. प्रभु की कृपा से हमें यह मानव शरीर मिला है. इसकी रक्षा करना हमारा दायित्व है. इस शरीर के माध्यम से ही हमें अच्छे कार्य करने हैं, फिर इसे नष्ट करने का क्या अर्थ है. तुम धैर्य रखो, तुम्हारा दुख अवश्य दूर हो जाएगा". यह समझाइश देते हुए वीर बाई ने उसे कुछ देर बैठने को कहा. फिर वे उसकी समस्या का समाधान जानने जलाराम बापा के पास गयीं.
जलाराम बापा तब प्रभु भक्ति में ध्यानमग्न बैठे थे. थोड़ी देर बाद जब वे निवृत्त हुए तो वीर बाई ने उन्हें आगंतुक कड़बी महिला की परेशानी का ब्यौरा दिया. उसके द्वारा आत्महत्या करने की मंशा से भी अवगत कराया. यह सुनने के बाद जलाराम बापा ने आँखें बंद कर हाथ जोड़ते हुए प्रभु का स्मरण किया. अगले क्षण वे वीर बाई के साथ उस महिला के पास पहुंचे. जलाराम बापा को देख कर महिला ने नारियल देकर उनके चरण स्पर्श किये और फिर वह रोने लगी. जलाराम बापा ने उसे शांत कराया. तत्पश्चात महिला द्वारा श्रद्धापूर्वक भेंट स्वरुप लाये गए नारियल को उसके सामने ही फोड़ा. नारियल फोड़ते ही चमत्कार हो गया. उस नारियल के भीतर महिला की खोई हुई नथ निकल आई. नारियल के अन्दर से निकली अपनी नथ देख कर वह महिला चौंक गई. पल भर के लिए वह स्तब्ध रह गई. फिर प्रसन्नतावश वह जलाराम बापा के जयकारे लगाने लगी. जलाराम बापा के चमत्कारों के बारे में उसने पहले सुन रखा था. इसलिए उसे यह चमत्कार प्रभु की लीला के सदृश्य लगा. उसने जलाराम बापा के पुनः चरण स्पर्श किये और आभार जताते हुए कहा- "बापा, आपकी लीला अपरम्पार है, आपकी कृपा से मेरा जीवन उजड़ने से बच गया. आपने खोई हुई इस नथ को वापस मुझे दिलवा कर मेरा खोया हुआ सम्मान भी दिलवा दिया है, आपका उपकार मैं कभी नहीं भूल पाउंगी". जलाराम बापा ने मुस्कुराते हुए कहा- "बेटी, यह लीला मेरी नहीं प्रभु की है. दुःख में वह सबकी सुनता है. प्रभु अपने दुखियारे भक्त पर कृपा करते ही हैं. जीवन बचाने वाला भी वही है और सम्मान देने वाला भी. उपकार प्रभु का ही मानो, मैं तो आप लोगों का सेवक मात्र हूँ".
जब वह महिला नथ मिलने की खुशी में जलाराम बापा के जोर से जयकारे लगा रही थी, तब इसे सुन कर वहां आये हुए अन्य अथिति भी एकत्रित हो गए. नथ संबंधी किस्सा और जलाराम बापा का चमत्कार सबको मालूम हुआ.      जलाराम बापा के यहाँ पहली बार आये एक युवक ने जिज्ञासावश उनसे पूछा- "बापा, आप नाराज न हो तो एक बात पूछू?" जलाराम बापा बोले- "नाराजगी कैसी?, पूछो भाई". उस युवक ने कहा- "बापा, यह कैसे हो सकता है? इस महिला की नथ खोई थी कहीं और किन्तु निकली इस नारियल के भीतर से. यह कैसे संभव हुआ?, समझ में नहीं आ रहा है" जलाराम बापा ने अनजान बनते हुए जवाब दिया- "भाई, यह मुझे भी समझ में नहीं आ रहा है, तो फिर तुझे कैसे समझाऊं". वह युवक निरूत्तर होकर जलाराम बापा का मुंह ताकने लगा. लेकिन वहां मौजूद पुराने अनुयायी जलाराम बापा के इस चमत्कार को समझ रहे थे.
उधर, वह कड़बी महिला ने जलाराम बापा के इस चमत्कार से प्रभावित होकर मन बना लिया अब अपने गाँव वापस नहीं जायेगी और जलाराम बापा के यहाँ रह कर सेवा कार्य में सहयोग करेगी. उसने वीर बाई से कहा- "देवी माँ, अब इस गृहस्थ संसार से मेरा मोह भंग हो गया है, मैं यहीं रह कर सेवा और प्रभु भक्ति करना चाहती हूँ, आप आज्ञा दें".वीर बाई ने उसे समझाया- "नहीं बहन, ऐसा न सोचो. गृहस्थ संसार में रहते हुए पति की सेवा करना ही प्रभु भक्ति के समान है. तुम प्रसन्नचित्त होकर अपने घर जाओ और परिवार का ध्यान रखो". फिर वह महिला वीर बाई के आदेश का आदर करते हुए अपने गाँव के लिए प्रस्थान कर गई. (जारी )           .      .        .                        
                                                               

रविवार, 25 दिसंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 28 )

डूबता जहाज पार लगाया : उन दिनों सौराष्ट्र का सागर तटीय क्षेत्र गुजरात का प्रसिद्द अंतर्देशीय व्यापारिक इलाका माना जाता था. सौराष्ट्र के बंदरगाहों का व्यापारिक वर्चस्व था. जोडीया पोर्ट भी इनमें से एक था. यहाँ अमरचंद नामक एक शेठ रहता था. साहसिक सामुद्रिक व्यापारी के रूप में उसकी ख्याति थी. समीपवर्ती खाड़ी देशों में वह पानी जहाज के जरिये मौसमी वस्तुओं का व्यापार करता था.
एक बार अमरचंद पानी जहाज में मौसमी माल भर कर अपने कुछ कर्मचारियों के साथ बसरा के लिए निकल पडा. वहां उसने सारा माल बेच कर अच्छा मुनाफा कमाया. वापसी के वक़्त उस रकम के एवज में उसने बसरा से विभिन्न मसाले खरीदे. मसालों से लदा जहाज जोडीया पोर्ट की तरफ आ रहा था. कई दिनों के सामुद्रिक सफ़र के बाद सबके मन में परिजनों से मिलने की तीव्र उत्कंठा थी. समुद्र की हवाओं के खुशनुमा थपेड़े और समुद्री परिंदों के कलरव से शेठ अमरचंद सहित सबका मन प्रफ्फुल्लित था. किन्तु कुदरत कुछ और ही मंजूर था. जोडीया पोर्ट अभी भी दस मील दूर था. तभी अचानक हवाओं का रूख बदल गया. अगले ही क्षण खुशनुमा थपेड़े जानलेवा तूफ़ान में बदल गए. समुद्र में तेज लहरें उठने लगीं. जहाज डोलने लगा. सबका कलेजा काँप उठा. मौत का मंजर दिखने लगा. शेठ अमरचंद के आदेश पर सभी कर्मचारी सुरक्षा की तैयारियों में जुट गए.
इसी बीच जहाज के पिछले हिस्से में छिद्र हो गया, जिससे जहाज में पानी भरना शुरू हो गया. जान बचने की जो थोड़ी उम्मीद थी वह भी हवा हो गई. सब अपने अपने इष्ट देव को याद करने लगे. सामुद्रिक सफ़र में शेठ अमरचंद की उम्र बीतने को आई थी. कई झंझावातों को उसने साहसपूर्वक झेला था लेकिन इस तरह मौत सामने कभी नहीं मंडराई थी. किनारे आकर जहाज डूबेगा, इसका अंदेशा उसे सपने में भी कभी न हुआ था. दरिया देव की प्रार्थना भी असर नहीं दिखा रही थी. अब उसे लग रहा था कोई चमत्कार ही सबकी जान बचा सकता है. चमत्कार की बात जेहन में आते ही उसकी आँखें एकाएक चमक उठी. उसने कई लोगों के मुंह से वीरपुर के भक्त जलाराम बापा के विषय में चमत्कारिक घटनाएं सुनी थीं. यह भी सुना था यदि श्रद्धापूर्वक भक्त जलाराम बापा को याद कर कोई मन्नत माँगी जाय तो वह अवश्य पूरी होती है, चाहे बड़े से बड़ा संकट क्यों न आये, मन्नत मांगते ही वह संकट चमत्कारिक रूप से दूर हो जाता है. शेठ अमरचंद ने बगैर कोई देर किये हाथ जोड़ कर जलाराम बापा का स्मरण करते हुए मन्नत मानी- "हे जलाराम बापा, संतों के संत, दीनदुखियों के तारणहार, आज तक मैं केवल धन्धेपानी में ही डूबा रहा, आपके दर्शन कर चरण स्पर्श का सौभाग्य प्राप्त न कर सका, वीरपुर आने का समय न निकाल सका, शायद इसीलिये दंड स्वरुप आज मेरे जीवन की नैय्या डूब रही है. मजबूरी में अब आपके प्रति श्रद्धा भाव जागृत हुआ है, अतः क्षमा चाहता हूँ. आप तो सबकी रक्षा करते हैं, हमारी जान भी अब आपके हवाले है. बापा, हमारा यह डूबता जहाज यदि सकुशल किनारे पहुँच जाएगा तो मैं वीरपुर आकर सदाव्रत-अन्नदान कार्य के लिए चालीस बोरी पतला चावल भेंट करूंगा". शेठ अमरचंद आँख बंद कर जलाराम बापा की प्रार्थना करता रहा. अगले ही पल चमत्कार सा हो गया. मौसम का मिजाज अचानक सकारात्मक हो गया. देखते ही देखते स्थिति सामान्य हो गई. तेज तूफानी हवाएं थम गई, जहाज में हुए छिद्र से पानी घुसना बंद हो गया. शेठ अमरचंद द्वारा जलाराम बापा को याद कर मानी गई मन्नत का सुपरिणाम दिखने लगा. प्राणों का संकट टलता देख कर सबने चैन की सांस ली. सबके कलेजे को ठंडक पहुँची. मौत के मुंह से वापस सुरक्षित लौटने पर शेठ अमरचंद ने हाथ जोड़ कर जलाराम बापा को धन्यवाद दिया. उनके कर्मचारियों को भी तब तक जलाराम बापा की मन्नत मानने के बारे में ज्ञात हो चुका था, इसलिए उन्होंने भी मन्नत के फलीभूत होने पर जलाराम बापा के प्रति कृतज्ञता जताई.
उधर, सागर तट पर शेठ अमरचंद और उनके कर्मचारियों के परिवार वाले जहाज के किनारे लगने की प्रतीक्षा में चिंतातुर होकर खड़े थे. जैसे ही जहाज सकुशल किनारे लगा सब खुशी से उछल पड़े. जहाज से उतर कर शेठ अमरचंद और उनके कर्मचारी हर्षोल्लास के साथ परिजनों से गले मिले. आज नया जीवन मिलने पर उनकी खुशी  
दुगनी थी. परिजनों को भी सारा घटनाक्रम मालूम होने पर सुखद आश्चर्य हुआ. फिर सबने जलाराम बापा के जयकारे लगाए. शेठ अमरचंद द्वारा लाया गया सारा सामान जहाज से उतार कर कर्मचारियों ने गोदाम में पहुंचा दिया. सब लोग बस्ती पहुंचे. सकुशल वापसी होने की खुशी में रात को जश्न मनाया गया. पूरी बस्ती में जलाराम बापा की चमत्कारिक शक्ति की चर्चा होने लगी. मन्नत के फलने पर लोगो में जलाराम बापा के प्रति श्रद्धा
और भी बढ़ गई.
पुरानी आदत से लाचार शेठ अमरचंद दूसरे दिन ही जलाराम बापा की मन्नत विषयक दायित्व को भूल कर पहले की तरह धन्धेपानी में डूब गया. मन्नत फलीभूत होने के एवज में  चालीस बोरी पतला अनाज जलाराम बापा के सदाव्रत-अन्नदान कार्य हेतु वीरपुर भेजने में वह टालमटोल करने लगा. मौत का संकट झेल चुके कर्मचारियों द्वारा जब उसे इस सन्दर्भ में याद दिलाया जाता तो वह लापरवाही पूर्वक कहता- "चावल भेज देंगे, ऐसी भी क्या जल्दी है. कहाँ उनका चावल भागा जा रहा है". शेठ का यह स्वार्थी और अशिष्ट जवाब सुन कर कर्मचारी हैरान होकर चुप रह जाते. दिन गुजरते रहे. लेकिन शेठ अमरचंद को सदबुद्धि नहीं आई. "काम निकल गया, पहचानते नहीं" की तर्ज पर शेठ अमरचंद के नकारात्मक रवैये की आलोचना पूरी बस्ती में होने लगी. एक दिन उनके धर्म भीरू  मुनीम ने शेठ को खरी खरी सुनाते हुए कहा- "शेठ जी, आप यह अच्छा नहीं कर रहे हैं. पूरी बस्ती आपका मखौल उड़ा रही है". शेठ अमरचंद अपनी गद्दी पर लेट कर आराम फरमा रहा था. उसने उत्सुकतावश पूछा- "क्यों, मैंने ऐसा कौन सा गुनाह कर दिया है जो बस्ती वालों को तकलीफ हो रही है". मुनीम ने प्रत्युत्तर दिया- "हाँ, आपने वचन न निभाने का गुनाह किया है. बस्ती वालों का मानना है आप वचन के पक्के नहीं हैं". शेठ ने झल्लाते हुए कहा- "कौन सा वचन, मैंने कब, किसको, कैसा वचन दिया है, साफ़ साफ़ बताओ". मुनीम ने याद दिलाते हुए कहा- "शेठ जी, आप शायद भूल गए हैं या फिर भूलने का अभिनय कर रहे हैं. याद करिए, बसरा से लौटते समय जब आपके  जहाज के डूबने की नौबत आ गई थी तब आपने प्राणों की रक्षा के लिए जलाराम बापा को याद कर सकुशल घर पहुचने की मन्नत माँगी थी. मन्नत फलने पर आपने वीरपुर चालीस बोरी पतला चावल भेजने का प्रण किया था. इतने दिन गुजरने के बाद भी आपने अपना वचन नहीं निभाया है, यह गुनाह नहीं तो और क्या है". यह सच बात सुन कर भी शेठ को न आत्मग्लानी और न ही पश्चाताप. उसने अहसान के अंदाज में कहा- "मैं इससे कब इनकार कर रहा हूँ. बस्ती वालों को बोलने का मौक़ा चाहिए, तुम उनकी बातों पर कान मत लगाओ. वीरपुर चावल ही तो भेजना है न, कल जाकर चालीस बोरी मोटा चावल भगत के यहाँ पटक आओ". मुनीम को शेठ की यह बात अच्छी नहीं लगी. ऐसी उम्मीद उससे न थी. मुनीम ने शेठ को टोकते हुए कहा- "किन्तु शेठ जी, आपने तो पतला चावल देने का प्रण किया था तो फिर चालीस बोरी मोटा चावल ले जाने को क्यों कह रहे हैं". शेठ ने उपहास पूर्वक जवाब दिया- "भूखे लोगों के लिए क्या पतला क्या मोटा चावल, पेट भरने से मतलब होना चाहिए. मैं जो कह रहा हूँ वह करो".
दूसरे दिन भोर होते ही शेठ के आदेशानुसार मुनीम चालीस बोरी मोटा चावल बैलगाड़ी में डलवा कर वीरपुर रवाना हो गया. छः दिन बाद जब मुनीम वीरपुर पहुंचा तब जलाराम बापा प्रभु भक्ति में ध्यानमग्न थे. जलाराम बापा के चरण स्पर्श करने के बाद उसने अपना परिचय देते हुए कहा- "बापा, शेठ अमरचंद ने मुझे भेजा है". जलाराम बापा ने मुस्कुराते हुए कहा- "भाई, जोडीया से सदाव्रत के लिए चावल लेकर आये हो, अच्छी बात है, रखवा दो".यह वाक्य सुन कर मुनीम हतप्रभ रह गया. उसने जलाराम बापा को अभी तो पूरी बात बताई ही नहीं थी, फिर उन्हें आने का मकसद कैसे मालूम हो गया. उसकी हैरानी भांपते हुए जलाराम बापा ने कहा- "भाई, परेशान न हो, इतने दूर से आये हो, बैल थक गए होंगे और तुम भी. बैलों को गाडी से अलग कर छाँव में लाकर उन्हें चारा पानी दे दो और तुम भी प्रभु के दर्शन कर भोजन कर लो". जलाराम बापा ने तत्काल सेवकों को बुला कर बैलों और मुनीम की सेवा करने का आदेश दिया. मुनीम ने जलाराम बापा को शेठ का पत्र देते हुए कहा- "बापा, शेठ जी ने आपको राम राम कहा है". स्वीकारोक्ति स्वरुप उन्होंने भी कहा- "राम राम".
रात रूकने के बाद अगले दिन सुबह मुनीम ने जलाराम बापा से वापस जोडीया लौटने की आज्ञा माँगी तो जलाराम बापा बोले- "भाई, इतनी दूर से आये हो, अभी तो थकान भी नहीं उतरी होगी, दो चार दिन और यही आराम करो ,फिर भले चले जाना ".जलाराम बापा के आग्रह का आदर करते हुए मुनीम रूक गया. पांचवें दिन वापसी के समय जलाराम बापा ने मुनीम की बैलगाड़ी में रास्ते के लिए खराब न होने वाला सूखा भोजन और पीने का पानी रखवा दिया. रवाना होते समय मुनीम ने जलाराम बापा के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया फिर हाथ जोड़ कर कहा- "बापा, आथित्य सत्कार के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद. मेरे शेठ के लिए कोई जवाबी चिट्ठी देना हो तो दे दीजिये". जलाराम बापा ने कहा- "नहीं भाई, चिट्ठी तो नहीं देना है. हाँ, यह सन्देश अवश्य दे देना सेवा कार्य में प्रत्येक सहायता मायने रखती है, इसलिए अफ़सोस नहीं करना. यह भी कहना जब उनके जहाज में छिद्र हो गया था और पानी घुस रहा था तब बहाव में मेरा कुर्ता आकर छिद्र में फंस गया था, उसे निकाल कर किसी जरूरतमंद भाई को भेंट कर देंगे". यह सुन कर मुनीम सकपका गया. अपने शेठ की नासमझी पर उसे क्रोध आने लगा. जलाराम बापा उसके अंतर्द्वंद को समझ गए और कहा- "भाई, दुखी न हो, शांत रहो, प्रभु आपका सफ़र सुखद रखेगा. प्रेम से जोडीया जाओ". मुनीम जलाराम बापा से आशीर्वाद लेकर विदा हो गया.
जोडीया पहुँच कर मुनीम सीधे शेठ के पास जाकर जलाराम बापा का सन्देश सुनाया. मुनीम की बैलगाड़ी आती देख आसपास के लोग भी उत्सुकतावश एकत्रित हो गए. जलाराम बापा का सन्देश सुन कर शेठ अमरचंद एक पल के लिए जडवत सा हो गया. वह उसी क्षण सागर तीरे अपने जहाज की तरफ दौड़ा. जिज्ञासावश मुनीम सहित बस्ती वाले भी शेठ के पीछे पीछे दौड़े. जहाज के पास पहुँच कर शेठ ने मुआयना किया तो देखा जहाज के पिछले हिस्से में बने छिद्र में एक कपड़ा फंसा हुआ था. उसे निकाल कर देखा तो वह सचमुच जलाराम बापा का कुर्ता था. आश्चर्य से शेठ की आँखें फटी रह गई. कुरते की जेब से जलाराम बापा की दांत-खोद्रनी भी निकली. यह सब देख कर लोग चौक गए. शेठ आत्मग्लानी से पीड़ित हो गया. उसे पश्चाताप होने लगा. सर पर दोनों हाथ रख कर वह वहीं बैठ गया और जोर जोर से रोने लगा. वह रोते हुए कहने लगा- "हे बापा, मुझे क्षमा करना, इस नादाँ से बहुत बड़ी भूल हुई है. आपने मेरी और मेरे कर्मचारियों के जीवन की रक्षा की और मैं आपको सही अर्थ में समझ नहीं पाया". बस्ती वालों ने उसे शांत कराया और घर लेकर आये.
शेठ अमरचंद ने तत्काल बैलगाड़ी में चालीस बोरी पतला चावल डलवाया, जलाराम बापा का कुर्ता झोले में रखा.  फिर पत्नी और मुनीम को साथ लेकर वीरपुर के लिए रवाना हो गया. वीरपुर पहुचने पर शेठ जलाराम बापा के पैरों में गिर कर खूब रोया. जलाराम बापा के कहने के बावजूद वह उठने को तैयार नहीं था. काफी समझाने के बाद शेठ खडा हुआ और दोनों कान पकड़ कर माफी माँगने लगा. उसके सर पर हाथ फेरते हुए जलाराम बापा ने आशीर्वाद देकर कहा- "भाई, जब जागो तब सवेरा. दुखी न हो. प्रभु समय आने पर सब बिगड़ी बात बना देता है. प्रसन्न होकर
जोडीया जाओ और दीनदुखियों की सेवा सच्चे मन से करो, उन्हीं में तुम्हें प्रभु के दर्शन होंगे". शेठ की पत्नी और मुनीम ने भी जलाराम बापा के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया तत्पश्चात वे सभी जोडीया के लिए प्रस्थान किये. ( जारी )                                                                                                       .                                                           . .                                                                
   

शनिवार, 24 दिसंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 27 )

जलाराम बापा के आशीर्वाद से वंश वृद्धि : जलाराम बापा के स्मरण मात्र से आस्थावानों के संकट दूर होने लगे थे. और यदि किसी अनुयायी को उनका साक्षात आशीर्वाद मिल जाता तो उसकी प्रसन्नता की सीमा नहीं रहती थी. उसकी अप्रत्याशित अभिलाषा चमत्कारिक रूप से फलीभूत होती थी. खम्भारिया गाँव के निवासी गागा पटेल भी ऐसे सौभाग्यशाली अनुयायियों में से एक थे. गहरे शोक के आघात के बाद जलाराम बापा के आशीर्वाद मिलने के
पश्चात उन्हें खुशियाँ वापस प्राप्त होने का अहसास हुआ.
हुआ यूं, एक दिन अनुयायी गागा पटेल का एकलौता युवा पुत्र जयराम की तेज बुखार के कारण एकाएक मृत्यु हो गई. पिताश्री गागा पटेल सहित परिजनों के लिए यह बहुत बड़ा सदमा था. गागा पटेल के वंश का चिराग ही बुझ गया. परिवार में प्रचंड शोक का वातावरण सर्जित हो गया. गागा पटेल आर्थिक रूप से संपन्न थे. हर सुख सुविधा उन्हें उपलब्ध थी. बड़ा घर, अच्छी खेती बाडी और बीस गाय-भैंस वैभव को जाहिर करते थे. लेकिन एकलौते युवा पुत्र के निधन से वे स्वयं को असहाय और निर्धन महसूस कर रहे थे. बलिष्ठ और सुन्दर शरीर होने के बावजूद वे पुत्र की मौत के गम से मानसिक तौर पर टूट गए. पुत्र-शोक के कारण उनका सब कामकाज ठप हो गया था. पुत्र के अंतिम संस्कार की सभी विधियां संपन्न हो चुकी थी. अभी भी वे इस गहरे सदमे से उबर नहीं पा रहे थे.
गागा पटेल जलाराम बापा के भक्त थे. वे हमेशा जलाराम बापा के संपर्क में रहते थे. जब भी अवसर मिलता वे जलाराम बापा का आशीर्वाद लेने वीरपुर पहुँच जाते थे. उधर, जलाराम बापा को भी अपने अनुयायी गागा पटेल के पुत्र के देहावसान का दुखद सन्देश कुछ दिनों बाद मिला तो वे सांत्वना देने तत्काल बैलगाड़ी से खम्भारिया गाँव के लिए रवाना हो गए. इनके साथ गागा पटेल के वीरपुर निवासी चार रिश्तेदार भी चल पड़े. जब रात को जलाराम बापा गागा पटेल के घर पहुंचे तब उन्हें देख कर गागा पटेल धारोधार रोने लगे. जलाराम बापा के पैरों में गिर कर वे अपना असहनीय दुःख व्यक्त करने लगे. उन्होंने कहा- "बापा, मेरा सब कुछ लुट गया. मेरा एक का एक जवान बेटा मुझे सदा के लिए छोड़ कर इस संसार से चला गया. मेरे वंश का दीपक बुझ गया. पूरे परिवार के सपने बिखर गए". जलाराम बापा ने उन्हें अपने पास बैठाया और सांत्वना देते हुए समझाया- "गागा भाई, हिम्मत रखो. परिवार का मुखिया ही यदि टूट जाएगा तो बाकी लोगों का ध्यान कौन रखेगा. जो होना था हो गया. यही विधि का विधान है. प्रभु की मर्जी के आगे किसकी चली है. जीवन मृत्यु पर हमारा कोई वश नहीं है. प्रभु के इस कठोर निर्णय के पीछे उनका कोई गूढ़ अभिप्राय अवश्य होगा".गागा पटेल अपने शोक और संवेदनाओं पर नियंत्रण नहीं रख पा रहे थे. उन्होंने रोते हुए कहा- "बापा, एकलौते बेटे के बिना मेरी पूरी जिन्दगी कैसे कटेगी? वंश कैसे आगे बढेगा?" जलाराम
बापा इस गंभीर सवाल को सुनने के बाद थोड़ी देर के लिए मौन धारण कर लिया. आँखें बंद कर प्रभु का स्मरण करने लगे. मानो अपने प्रभु श्रीराम के साथ कोई विचार विमर्श कर रहे हों.
कुछ देर बाद जलाराम बापा ने आँखें खोली. गागा पटेल से उन्होंने कहा- "गागा भाई, राम धुन प्रारंभ करवाइए, मन हल्का हो जाएगा". जलाराम बापा के आदेश का आदर करते हुए तुरंत भजन बैठक जम गई, आसपास के श्रद्धालु जन भी एकत्रित हो गए. फिर तो देर रात तक राम धुन का दौर चलता रहा. भोर होते ही जलाराम बापा ने वापस वीरपुर लौटने की इच्छा जताई. जब जलाराम बापा जाने लगे तब गागा पटेल उनके पैरों में गिर कर फिर रोने लगे.
जलाराम बापा ने उस समय आशीर्वाद देते हुए केवल इतना ही कहा- "गागा भाई, अब शोक नहीं करना. प्रभु सभी सपने पूर्ण करेंगे".
जलाराम बापा के चले जाने के बाद भी गागा पटेल पुत्र शोक डूबे रहे. जलाराम बापा का यह गूढ़ आश्वासन "प्रभु सभी सपने पूर्ण करेंगे" गागा पटेल को विचलित कर रहा था. इसके मायने उन्हें समझ से परे लग रहे थे. लेकिन दूसरी ओर जलाराम बापा के आशीर्वाद और आश्वासन पर पूरा भरोसा भी था. वंश वृद्धि की चिंता ने रात को उनकी नींद का हरण कर लिया. रात भर वे बिस्तर पर करवटें बदलते, आंसू बहाते रहे. सुबह होते ही गागा पटेल की पत्नी प्रसन्न भाव से उनके खटिये में आकर बैठ गई और पैर दबाने लगी. गागा पटेल ने पत्नी की प्रसन्न मुख मुद्रा देख कर विस्मय से पूछा- "क्या बात है, आज तुम ज्यादा ही खुश नजर आ रही हो?". उसने चहकते हुए जवाब दिया- "जयराम के बापूजी, सचमुच खुश होने वाली बात है. जलाराम बापा का दिया आशीर्वाद फल गया समझिये".गागा पटेल फुर्ती से उठ कर बैठ गए और पूछा- "जलाराम बापा का आशीर्वाद, समझा नहीं, साफ़ साफ़ बताओ क्या कहना चाहती हो".उसने खुलासा करते हुए कहा- "जयराम की पत्नी यानी हमारी बहू गर्भवती है". गागा पटेल यह खुशखबरी सुन कर चौंक गए और कहा- "सचमुच!". वे खटिये से खड़े हो गए और खुशी के मारे नाचने लगे. जलाराम बापा के गूढ़ आश्वासन का अर्थ अब उन्हें समझ में आया. पूजा घर में प्रभु श्रीराम की छवि के सामने जाकर हाथ जोड़ कर उन्होंने कहा- "हे प्रभु, आपने मेरी लाज रख ली, मेरा वंश बचा लिया, खुशियाँ लौटा दीं, आपकी लीला अपरम्पार है". तत्पश्चात जलाराम बापा का स्मरण कर आशीर्वाद के लिए उनका भी आभार जताया.
इस खुशखबरी से गागा पटेल के जीवन में पुनः उत्साह का संचार हो गया. उसका आत्मविश्वास फिर से जागृत हो गया. शरीर में पहले जैसी फुर्ती फिर लौट आई. वंश वृद्धि के सपनों को पंख लग गए.
नौ माह बाद जयराम की पत्नी ने एक सुन्दर शिशु को जन्म दिया. गागा पटेल के घर हर्षोल्लास छा गया, जश्न का वातावरण बन गया. पूरे मोहल्ले में मिठाई बांटी गई. समाज वालों को दावत दी गई. रात को भजन मंडली ने भक्ति रस से सबको आनंदित किया. नवजात शिशु का नाम रखा गया "डायो". जब डायो तीन माह का हुआ तब गागा पटेल परिजनों के साथ उसे लेकर जलाराम बापा के यहाँ वीरपुर गए. जलाराम बापा के यहाँ पहुँचते ही गागा पटेल ने सर्वप्रथम उनके चरण स्पर्श किये फिर शिशु डायो को उनके चरणों में रख कर आशीर्वाद लिया. गागा पटेल ने जलाराम बापा से आभार जताते हुए कहा- "बापा, आपके आशीर्वाद ने मेरा वंश समृद्ध कर दिया है. परिवार में फिर से खुशियाँ आ गई हैं, मेरा पूरा परिवार आपका जीवन भर आभारी रहेगा". जलाराम बापा ने कहा- "गागा भाई, यह भी प्रभु की मर्जी से ही संभव हुआ है. वह एक हाथ से लेता है तो दूसरे हाथ से देता भी है. जीवन का चक्र ऐसे ही चलता है. प्रभु पर सदा विश्वास रखना. प्रसन्नता प्राप्त होती रहेंगी". फिर जलाराम बापा ने सबको प्रेम से भोजन करवाया. गागा पटेल ने सदाव्रत-अन्नदान के लिए भेंट स्वरुप अनाज की बीस बोरियां देकर परिवार समेत विदा हो गए. ( जारी )
                                                                                                                
          

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 26 )

मृत युवा शिष्य मंगू में प्राण लौटाए : जलाराम बापा के प्रति लोगों की श्रद्धा बढ़ती ही जा रही थी. श्रद्धालु उन्हें भगवान का दूत मानने लगे थे. उनके गाँव वीरपुर में कालिदास नामक एक अनुयायी भी था. एक दिन उनके घर एक ज्योतिष जोशी महाराज आये. कालिदास ने उत्सुकतावश उन्हें अपने दस वर्षीय पुत्र मंगू का भविष्य बताने का आग्रह किया. ज्योतिष ने मंगू की हस्त रेखा देख कर भविष्यवाणी की "दस साल बाद यानी जब इस लड़के की आयु बीस वर्ष की होगी तो इसके जीवन को खतरा होगा. हाँ, यदि किसी महान परोपकारी संत की कृपा होगी तो ही इसके जीवन की रक्षा होगी".ज्योतिष की यह भविष्यवाणी सुन कर कालिदास और उसका परिवार सन्न रह गया. उस ज्योतिष जोशी महाराज को दक्षिणा देकर विदा किया गया.
कालिदास दिन भर उस ज्योतिष की भविष्यवाणी के कारण मायूस रहे. दूसरे दिन सुबह पूजा पाठ के पश्चात उन्हें एकाएक जलाराम बापा की याद आई. "यदि किसी महान परोपकारी संत की कृपा होगी तो ही उसके पुत्र के जीवन की रक्षा होगी" ज्योतिष की इस भविष्यवाणी के मद्देनजर कालिदास को जलाराम बापा ही उपयुक्त लगे. जलाराम बापा की शरण में जाना उचित समझा. वे तत्काल अपने पुत्र मंगू को लेकर जलाराम बापा के यहाँ पहुँच गए. लेकिन तय यह किया ज्योतिष की भविष्यवाणी का कोई जिक्र नहीं करेंगे. अपने अनुयायी कालिदास को देख कर जलाराम बापा ने उसका आथित्य सत्कार किया फिर पूछा- "भाई, मेरे योग्य कोई और सेवा हो तो बताओ". कालिदास ने सकुचाते हुए हाथ जोड़ कर कहा- "बापा, यह मेरा एकलौता बेटा मंगू है, आप इसे कंठी बाँध कर अपना शिष्य बना लीजिये. आप इसके गुरू बन जायेंगे तो इसका जीवन धन्य हो जाएगा". फिर उन्होंने अपने पुत्र को आदेश दिया- "बेटा मंगू इधर आ, अपने गुरूदेव के पैर छूकर आशीर्वाद ले". मंगू ने फुर्ती से जलाराम बापा के चरण स्पर्श किये. जलाराम बापा ने उसे आशीर्वाद दिया. तत्पश्चात कालिदास से कहा- "भाई, मैं तो प्रभु का एक सामान्य सा भक्त हूँ, आप लोगों का एक छोटा सेवक हूँ, कोई सिद्ध योगी संत महात्मा नहीं हूँ, जो तुम्हारे बेटे को कंठी बाँध कर उसका गुरू बन सकूं. मैं इस योग्य नहीं हूँ , इसके लिए मुझे क्षमा करिए". जलाराम बापा द्वारा इनकार किये जाने से कालिदास की मायूसी और बढ़ गई. उन्होंने निराशा भरी नज़रों से पास में बैठे जलाराम बापा के एक विशेष अथिति तेजस्वी महात्मा की ओर देखा. यह पूरा वार्तालाप वे भी सुन रहे थे. कालिदास की निराशाजनक किन्तु आग्रहयुक्त नज़रों को वे भांप गए. तेजस्वी महात्मा ने जलाराम बापा से विनम्रता पूर्वक कहा- "भगत, संकोच मत करो. इश्वर का नाम लेकर इस बच्चे को कंठी बाँध दो और अपना चेला बना लो". जलाराम बापा तेजस्वी महात्मा की बात नहीं काट सके. उनके आदेश का सम्मान करते हुए कालिदास के पुत्र मंगू को कंठी बाँध दी, तत्पश्चात उसे सत्य और सेवा के मार्ग पर चलने की सीख देते हुए आशीर्वाद दिया. मंगू ने पुनः जलाराम बापा के चरण स्पर्श किये. कालिदास अत्यंत प्रसन्न हो गए. उन्होंने जलाराम बापा से निवेदन किया- "बापा, अबसे मेरे बेटे का जीवन आपके हवाले है, इसकी रक्षा आप पर निर्भर है".जलाराम बाप ने जवाब दिया- "भाई, जीवन की रक्षा करने वाला एकमात्र प्रभु है. मेरा आशीर्वाद है प्रभु अवश्य रक्षा करेगा. घोर संकट के समय कोई सहायता की आवश्यकता हो तो इस सेवक को बुलाना, मैं उपस्थित हो जाउंगा". कालिदास हर्षित होकर अपने बेटे मंगू के साथ घर की तरफ चल पडा.
कालिदास और उसके परिवार वालों की चिंता अब समाप्त हो गई थी. अब वे चैन की नींद लेने लगे थे. वक्त बीतता गया. बेटे मंगू की उम्र बढ़ने लगी. गुणवान, सज्जन होने के साथ ही कामकाज में भी वह निपुण हो गया था. लोग उसकी तारीफ़ करने लगे. सोलह बरस पूरे होते ही उसके लिए रिश्ते आने शुरू हो गए. लेकिन पिताश्री कालिदास बेटे के लिए अच्छे रिश्ते आने पर भी साफ़ इनकार कर देते. मन में ज्योतिष की भविष्यवाणी का खटका तो था ही. उनकी इच्छा थी बेटे की आयु बीस वर्ष पूर्ण होने के बाद ही उसका विवाह करूंगा, अन्यथा क्यों किसी लडकी का जीवन भी बर्बाद हो".
अब मंगू ने १९ वसंत देख लिए थे. १९ वर्ष तक इस युवक की काया निरोगी थी. उसे किसी तरह की बीमारी ने नहीं जकड़ा था. लेकिन जैसे ही मंगू ने बीसवें वर्ष में प्रवेश किया, उसे पेट में दर्द होना शुरू हो गया. वह पेट की पीड़ा से परेशान रहने लगा. एक दिन ऐसा भी आया, जब पेट का दर्द बढ़ कर उसके लिए असहनीय हो गया. तुरंत वैद्य, हकीम बुलाये गए. सभी प्रकार का उपचार करा कर देख लिया गया, किन्तु कोई फ़ायदा नहीं हुआ. पेट की पीड़ा बढ़ती ही गई. वह छटपटाता रहा. कुछ देर बाद युवक मंगू ने अपनी आँखें सदा के लिए मूँद ली. घर में शोक का वातावरण छा गया. माता, पिताश्री और परिजनों के आंसू नहीं थम रहे थे. तब तक पड़ोसी और गाँव के परिचित जन भी शोक जताने एकत्रित हो गए. पड़ोसी कालिदास को सान्तवना देने लगे.
शोक संतप्त कालिदास को एकाएक उस ज्योतिष जोशी महाराज की भविष्यवाणी याद आ गई, जो सच सिद्ध हुई. इसके साथ ही जलाराम बापा भी याद आये. जलाराम बापा द्वारा बेटे को कंठी बांधने के बाद कहे गए यह शब्द कालिदास के कान में गूंजने लगे- "घोर संकट के समय कोई सहायता की आवश्यकता हो तो इस सेवक को बुलाना, मैं उपस्थित हो जाउंगा". कालिदास ने अपनी धोती से आँखें पोछी. समीप बैठे चचेरे भाई शामजी से उन्होंने कहा- "शामजी भाई, आप तुरंत जलाराम बापा के यहाँ जाकर उन्हें यह सूचना दीजिये "आपने जिसे कंठी बाँध कर शिष्य बनाया है, वह सेवक अंतिम यात्रा के लिए जा रहा है". शामजी तत्काल रवाना हो गए. जलाराम बापा के यहाँ पहुँच कर शामजी ने उन्हें कालिदास का सन्देश देते हुए सारा वृत्तांत सुनाया. यह सुन कर जलाराम बापा बोले- "क्या बात कर रहे हो भाई, ऐसा कैसे हो सकता है?, चलिए, मैं भी आपके साथ चलता हूँ". बिना देर किये जलाराम बापा शामजी के साथ कालिदास के घर की ओर चल पड़े.
दस मिनट बाद जलाराम बापा कालिदास के घर पहुँच गए. बाहर शोक जताने वालों की भीड़ लगी थी. घर के भीतर
महिलाओं का रूदन जारी था. कालिदास के एकलौते युवा पुत्र मंगू की अर्थी तैयार थी. जलाराम बापा को देखते ही
कालिदास रोते हुए उनके पैरों में गिर पड़े और कहा- "बापा, मैं कहीं का नहीं रहा. मेरा सब कुछ लुट गया. मेरा एकलौता जवान बेटा देखते ही देखते मुझसे दूर चला गया. भगवान् को बुलाना था तो मुझे बुला लिया होता".
जलाराम बापा ने उसे सान्तवना देते उठाया और कहा- "हिम्मत रखो भाई, एक बार मुझे अपने शिष्य मंगू का मुंह तो दिखा दो. जलाराम बापा की इच्छा का आदर करते हुए अर्थी पर लिटाये हुए मंगू के शव से उपरी हिस्से का कफ़न हटा दिया गया. अंतिम संस्कार की विधि में दक्ष समाज के एक बुजुर्ग ने मंगू के मुंह से कफ़न हटाते हुए कहा- "लीजिये बापा, अपने जवान शिष्य का मुंह अंतिम बार देख लीजिये". जलाराम बापा अर्थी के पास बैठ गए. मंगू के शव पर स्नेहपूर्वक हाथ फेरा और कहा- "मंगू, मेरे प्यारे शिष्य, अभी और कितनी देर तुझे नींद लेनी है, ज़रा आँख खोल कर मेरी ओर देख". जलाराम बापा के इतना कहते ही चमत्कार हो गया. अगले ही क्षण मंगू की आँख खुल गई. वह एकटक जलाराम बापा की तरफ देखने लगा. जलाराम बापा राम राम जपते हुए मुस्कुराए. उन्होंने कहा- "मंगू, मेरे प्यारे शिष्य, खड़े हो जा, तुझे अभी सेवा के बहुत कार्य करने शेष हैं".मंगू के शरीर में हलचल होने लगी. यह अजूबा देख कर कालिदास सहित सभी उपस्थित जन आश्चर्यचकित रह गए. समाज के बुजुर्ग व्यक्ति ने तुरंत मंगू के शरीर के बंधन खोल दिए. मंगू उठ कर खडा हो गया. उसके पिताश्री कालिदास खुशी से झूम उठे. वे हर्षित होकर जलाराम बापा के जयकारे लगाने लगे. वहां मौजूद लोग भी भक्ति भाव से "जलाराम बापा की जय" बोलने लगे.
पल भर में शोक का माहौल हर्ष के वातावरण में बदल गया. कालिदास ने जलाराम बापा के चरण स्पर्श करते आभार जताया- "बापा, आप भगवान् के अवतार हैं. आपने मेरी खुशियाँ लौटा दी. मेरे एकलौते सहारे को नया जीवन देकर बड़ा उपकार किया. मैं, मेरा बेटा और पूरा कुटुंब जीवन भर आपका आभारी रहेगा". मंगू ने भी जलाराम बापा के पैर छूकर आभार जताया. जलाराम बापा ने दोनों से कहा- "जीवन की डोर प्रभु के हाथ में रहती है, हम इंसान तो कठपुतली मात्र हैं. उनकी इच्छा ही सर्वोपरि है. इसलिए प्रभु पर सदैव आस्था रखना".
जलाराम बापा से आशीर्वाद लेने के बाद कालिदास ने प्रसन्न होकर सबका मुंह मीठा कराने के उद्देश्य से चचेरे भाई शामजी से कहा- "शामजी भाई, दो चार आदमी को साथ ले जाकर हलवाई के यहाँ जाओ और लगभग पचास लोगों
को पूरा हो उतना हलवा बनवा कर ले आओ". कुछ देर बाद हलवा लाया गया. इसी दौरान आसपास के मोहल्ले में भी मंगू के जीवित होने की चमत्कारिक घटना की जानकारी वायुवेग से फ़ैल चुकी थी. फलस्वरूप करीब पांच सौ लोग हलवा बन कर आते तक इकट्ठे हो गए. यह विकट स्थिति देख कर कालिदास घबरा गए. पचास लोगों के जितना हलवा मंगवाया गया था, जबकि मौजूद थे करीब पांच सौ लोग. हलवा किसे खिलाएं, किसे न खिलाएं. कालिदास की असमंजसता जलाराम बापा से छिपी न रही. उन्होंने कालिदास से कहा- "भाई, इसमें परेशान होने की आवश्यकता नहीं है. जिस गंज में हलवा रखा है, उस पर कपड़ा ढँक कर बाजू में घी का दीपक जला और प्रभु श्रीराम का नाम लेकर सबको हलवा परोसना प्रारम्भ कर. मैं यहीं बैठा हूँ". फिर क्या था. सभी को हलवा परोसा गया. पचास के बजाय करीब पांच सौ लोगों का मुंह मीठा हो गया. यह चमत्कार भी चर्चा का विषय बन गया. फिर
बारी बारी सबने जलाराम बापा के चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लिया और अपने अपने घर की राह पकड़ी. ( जारी )                                            
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बुधवार, 21 दिसंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 25 )

सेवक टीडा भगत को "रोटी में राम" के दर्शन करवाए : जलाराम बापा के यहाँ संत महात्माओं की सेवा करने के उद्देश्य से कुछ सेवक भी रहते थे. इनमें टीडा भगत नामक एक वृद्ध सेवक भी शामिल था. इसका काम था संत महात्माओं सहित आगंतुक अथितियों को पानी पिलाना. उम्र को देखते हुए इसे ज्यादा मेहनत वाला कार्य नहीं सौंपा गया था. एक दिन भरी दोपहरी में जलाराम बापा के यहाँ दो तेजस्वी योगी महाराज पधारे. आते ही उन्होंने स्वल्पाहार करने की इच्छा जाहिर की. स्वल्पाहार के बाद टीडा भगत ने उन्हें ठंडा पानी पिलाया. इसी दौरान वहां जलाराम बापा आ पहुंचे. दोनों योगी महाराज को देख कर जलाराम बापा ने स्मित मुस्कान के साथ प्रणाम किया. उन्होंने भी मुस्कुराते हुए आशीर्वाद दिया और विदा हो गए.
 जलाराम बापा ने वहां खड़े सेवक टीडा भगत से पूछा- "भाई, आपने इन दोनों तेजस्वी महाराज को पहचाना क्या?" सेवक ने प्रतिप्रश्न किया- "नहीं बापा, बिलकुल नहीं पहचाना, कौन थे ये महाराज?" जलाराम बापा ने जवाब दिया- "भाई, वे गोपीचंद और भरथरी थे. वे हमारे इस आश्रम को अपनी चरण धूलि से पवित्र करने आये थे. यह हमारा सौभाग्य है". सेवक ने आश्चर्यचकित होकर कहा- "बापा, सचमुच वे गोपीचंद और भरथरी थे. मुझे विश्वास नहीं हो रहा है". जलाराम बापा ने मुस्कुराते हुए कहा- "भाई, आपको अगर असलियत का पता लगाना है तो उनके पीछे पीछे जाओ. अभी वे अधिक दूर नहीं गए होंगे. आप देखोगे इस तेज धूप में भी उनको छाया देने ऊपर बादल साथ चल रहे होंगे". यह जान कर वह सेवक तत्काल उनके पीछे दौड़ पडा.
थोड़ी ही दूर जाने के बाद सेवक को वे दोनों योगी महाराज भजन गाते हुए जाते दिख गए. जलाराम बापा की बात याद आते ही सेवक ने आकाश की तरफ सर उंचा किया तो देखा वास्तव में भरी दोपहरी में भी बादलों का एक समूह ऊपर छाया बन कर दोनों योगी महाराज के साथ साथ चल रहा है. जबकि आसपास तेज धूप थी. सेवक ने यह अद्भुत नजारा देख कर दांतों तले उंगली दबा ली. वे उन दोनों योगी महाराज की ओर अपलक निहारते रहे. फिर
देखते ही देखते वे दोनों सेवक की नज़रों से ओझल हो गए.
वापस लौटते ही सेवक टीडा भगत ने जलाराम बापा को आँखों देखा हाल बताया. उन्होंने हाथ जोड़ कर जलाराम बापा से शिकायत भरे लहजे में कहा- "बापा, अगर ऐसा था, तो आपने मुझे उनके बारे में पहले क्यों नहीं बताया, मैं उनके चरण में गिर कर उनसे कुछ मांग लेता". जलाराम बापा हँसे और कहा- "अरे भाई, अभी भी कुछ पाना शेष  रह गया है क्या? यहाँ आपको किस चीज की कमी महसूस हो रही है, जो चाहते हैं वह सब तो यहाँ आपको मिल रहा है. इसके पश्चात भी आपको यदि ऐसा लगता है कुछ पाना और शेष रह गया है तो प्रभु श्रीराम का नाम जपते हुए सच्चे मन से अथितियों की सेवा करते रहो, अवश्य ही आपका बेडा पार हो जाएगा". जलाराम बापा के यह वचन सुन कर सेवक के ज्ञान चक्षु खुल गए. उसी पल सेवक ने अपनी समस्त तृष्णाओं को त्याग दिया. भूखे और दुखी जनों में उन्हें दरिद्र नारायण दिखने लगे. उनकी सेवा ही प्रभु की सच्ची भक्ति लगी. उनकी मन से सेवा करते करते
उन्हें यह समझ में आ गया गरीबों को जो तृप्त करता है, उस पर प्रभु की कृपा दृष्टि अवश्य होती है. जलाराम बापा द्वारा दिए गए जीवन मंत्र "भूखे को अन्नदान जैसा श्रेष्ठ दान दूसरा नहीं है" का सही अर्थ अब सेवक को समझ में आने लगा था. जलाराम बापा ने सेवक को भी "रोटी में राम" के दर्शन करवाए. ( जारी )
                                                         

सोमवार, 19 दिसंबर 2011

jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 24 )

मृत बतख और काले हिरण को जीवित किया : सौराष्ट्र के राजनैतिक एजेंट का दफ्तर राजकोट में था. उसके मातहत कुछ अधिकारी भी वहीं कार्यरत थे. एक बार किसी कार्यवश एक अंग्रेज अधिकारी जूनागढ़ के नवाब से भेंट करने गया हुआ था. कार्य संपन्न होने के बाद वह अंग्रेज अधिकारी जूनागढ़ के नवाब के साथ राजकोट वापस लौट रहा था. साथ में नवाब का काफिला भी चल रहा था. शानोशौकत के साथ इनका काफिला आगे बढ़ रहा था. इसी बीच रास्ते में एक तालाब दिखा. नवाब शिकार के बेहद शौक़ीन थे. उन्होंने तालाब में कुछ बतखों का शिकार किया. आगे जंगल आने पर उन्होंने एक काले हिरण का भी शिकार किया. रास्ते भर शिकार करने में नवाब को मजा आ रहा था.
राजकोट आने में अभी वक़्त था. दूरी काफी थी, इसलिए रात होते ही वीरपुर की सीमा पर नवाब का काफिला रूक गया. तम्बू खड़े कर वहीं डेरा डालना उचित समझा गया. सबको भूख लग गई थी, इसलिए भोजन बनाने चूल्हा
जलाने की तैयारी की जाने लगी. नवाब द्वारा शिकार किये गए बतख और काले हिरण का मांस पकाने भी सोचा गया. नवाब के इस काफिले में एक हिन्दू सेवक भी शामिल था. उसने नवाब को सलाम करते हुए विनम्रता से कहा- "नवाब साहब, क्षमा करेंगे, छोटा मुंह बड़ी बात. यह भगत जलाराम बापा का गाँव है. यहाँ आने पर कोई भी भूखा नहीं लौटता है. इसलिए निवेदन है भोजन तैयार कराने का कष्ट नहीं करें तो बेहतर होगा. जलाराम बापा प्रभु के सच्चे भक्त और सेवक हैं. यात्रियों और राहगीरों के लिए वे यहाँ सदाव्रत-अन्नदान कार्य जारी रखे हुए हैं. उनके गाँव की सीमा पर इस तरह जीव हिंसा करने के बाद अब अगर उनका मांस भी पकवाओगे तो जलाराम बापा को अत्यंत दुःख होगा". इसी दौरान अंग्रेज अधिकारी भी वहां आ पहुंचा. आते ही उसने पूछा- "क्या बात है, कोई ख़ास चर्चा हो रही है क्या?" नवाब ने उसे सारी बातचीत बताई, फिर कहा- "इस गाँव में खुदा का एक नेक बन्दा रहता है, वे चमत्कारिक संत हैं. सबको भोजन कराने के बाद ही खुद खाते हैं. सेवक का सुझाव है हमें यहाँ भोजन तैयार कराने की जहमत नहीं उठानी चाहिए. और फिर हम मांस भी तो पकवाने की सोच रहे हैं".अंग्रेज अधिकारी यह सुनकर बिफर उठा. उसने क्रोधित होकर कहा- "बिलकुल नहीं, हम लोग ये सब नहीं मानते हैं. आप भोजन की तैयारी जारी रखवाइए". उस अंग्रेज अधिकारी की नाराजगी के सामने आख़िरकार नवाब को झुकना पडा. इस बीच चूल्हे में आग
भभक उठी थी. उस पर देग चढाने की तैयारी हो रही थी. इसी दरम्यान वहां अचानक जलाराम बापा राम नाम जपते हुए आ पहुंचे. आते ही वे औपचारिकतावश न तो नवाब से मिले और न ही अंग्रेज अधिकारी से, बल्कि सीधे
जलते चूल्हों के पास पहुँच गए. पास में शिकार किये हुए मृत बतख और काला हिरण पिंजरे में रखे हुए थे. कुछ ही देर बाद इन्हें भी पकाने की तैयारी थी. जलाराम बापा ने आते ही बिना देर किये उस पिंजरे को खोल दिया और कहा- "बाहर निकलो प्यारों, अब तुम आजाद हो. अपने अपने स्थान अब जा सकते हो".जलाराम बापा के इतना बोलते ही मृत बतख जीवित होकर पिंजरे से बाहर निकल आये और वहां से चलते बने. दूसरे पिंजरे के पास भी जाकर जलाराम बापा ने ऐसा ही कहा. पल भर में मृत काला हिरण भी जीवित होकर पिंजरे से बाहर निकल आया और फिर कुलांचे मारते हुए चला गया. इस दौरान जानकारी मिलने पर नवाब और अंग्रेज अधिकारी भी सेवकों के साथ जलाराम बापा के पीछे पीछे पहुँच गए थे. यह चमत्कारिक दृश्य देख कर सभी लोग आश्चर्यचकित रह गए. नवाब को आत्मग्लानी हुई. उन्होंने हाथ जोड़ कर जलाराम बापा से माफी मांगते हुए कहा- "बापा, मुझे माफ़ कर दीजिये. मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई. आइन्दा ऐसा नहीं करूंगा.आप वास्तव में खुदा के नेक और सच्चे बन्दे हैं". फिर नवाब ने जलाराम बापा के चरण स्पर्श किये. कट्टर अंग्रेज अधिकारी को भी अपराध बोध हुआ. उसने भी
जलाराम बापा के सम्मान में अपनी टोपी उतारकर क्षमा माँगी. तत्पश्चात अदब से उन्हें सेल्यूट किया. जलाराम बापा अपने साथ पर्याप्त भोजन लेकर आये थे. सबको उन्होंने प्रेम से खिलाया. उसके बाद वे चल पड़े. ( जारी )                                                                                   

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 23 )

पुकारने से मृत लड़का जीवित हो उठा : जलाराम बापा के भक्त काया रैयानी के पुत्र की एक दिन अचानक मृत्यु हो गई. परिजन रोने लग गए. पूरा परिवार शोक में डूब गया. किसी को कुछ समझ में नहीं आया वह लड़का अचानक मौत के मुंह में कैसे चला गया. इसी बीच वहां जलाराम बापा पहुँच गए. न जाने उन्हें कैसे इस शोकमय घटना की जानकारी मिल गई. जलाराम बापा को देखते ही काया रैयानी उनके पैरों में गिर कर फफक फफक कर रोने लगे . और कहा- "बापा, भगवान् ने मेरे बेटे को इतनी जल्दी क्यों उठा लिया, उसका क्या कसूर था, उसके बदले मुझे क्यों नहीं उठाया". जलाराम बापा ने उसके सर पर हाथ फेर कर सांत्वना देते हुए कहा- "भाई, तुम क्यों रो रहे हो, शांत हो जाओ. कुछ नहीं हुआ है तुम्हारे पुत्र को".फिर जलाराम बापा ने अपने अनुयायी काना रैयानी से कहा- "भाई, मुझे तुम्हारे पुत्र का चहेरा देखना है, उस पर लपेटा कपड़ा हटा दो". उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए कफ़न खोल दिया गया. फिर जलाराम बापा ने उस मृत लडके की तरफ देख कर कहा- "बेटा, तुम क्यों इस तरह गुमसुम से सोये हुए हो. आँख खोल कर ज़रा मेरी ओर तो देखो".तत्पश्चात चमत्कार हो गया. क्षण भर में वह मृत लड़का आँख मलते हुए उठ कर बैठ गया, मानो गहरी नींद से जागा हो. इस अप्रत्याशित दृश्य से शोक का माहौल पल भर में खुशी के वातावरण में बदल गया. उस लड़के के पिताश्री काना रैयानी खुशी से झूम उठे, आँखों से खुशी के आंसू छलक उठे. काना रैयानी समेत सभी लोग भक्ति भाव से जयकारे लगाने लगे- "जलाराम बापा की जय".
जीवित हुए उस लड़के के पिताश्री ने जलाराम बापा के चरण स्पर्श कर आभार जताते हुए कहा- "बापा, आपके कारण मेरे पुत्र का पुनर्जन्म हुआ है, मैं जीवन भर आपका कर्जदार रहूँगा. आपका बहुत बहुत आभार".जलाराम बापा ने मुस्कुराते हुए कहा- "प्रभु सदैव भक्तों का साथ देता है, मेरा नहीं प्रभु का आभार मानो". इतना कह कर जलाराम बापा चुपचाप वहां से विदा हो गए.
स्मरण मात्र से आंधी थम गई : देवपरा गाँव में नानजी नामक एक किसान जलाराम बापा का कट्टर अनुयायी था.
एक बार उसका पूरा परिवार दोपहर को एक बड़े छायादार वृक्ष के नीचे बैठ कर भोजन कर रहा था. एकाएक उसी समय तेज आंधी चलना शुरू हो गयी. सभी परिवार वाले घबरा गए. उन्हें भय सताने लगा कहीं तेज आंधी से वृक्ष जड़ से ना उखड जाय. संकट से बचने किसान नानजी ने तत्काल हाथ जोड़ कर जलाराम बापा का स्मरण किया. फिर तो उसी पल तेज आंधी थम गई. स्थिति सामान्य हो गई. किसी पर कोई आंच न आई. शाम को घर पहुंचने पर किसान नानजी ने गाँव वालों को इस चमत्कारिक घटना के बारे में बताया. उसी वक्त ग्राम मुखिया की उपस्थिति में यह तय हुआ सभी किसानों की उपज का बीसवां हिस्सा जलाराम बापा के सदाव्रत-अन्नदान के लिए नियमित रूप से दिया जाएगा. अगले ही दिन अपने हिस्से का अनाज लेकर जब किसान नानजी वीरपुर गए तब उन्होंने जलाराम बापा के चरण स्पर्श करने के बाद उनसे तेज आंधी वाले घटनाक्रम का सविस्तार जिक्र किया. उन्होंने जलाराम बापा से हाथ जोड़कर कहा- "बापा, आपको सच्चे मन से याद करो तो उतने में ही सब संकट दूर हो जाते हैं. तेज आंधी वाले दिन भी ऐसा ही हुआ था. उस दिन तो हम सब मरते मरते बचे. आपकी कृपा से हम सब सुरक्षित हो गए. जीवन पर्यंत हम आपके आभारी रहेंगे".जलाराम बापा ने स्मित मुस्कान के साथ कहा- "भाई, आप लोग संकट के समय यदि मुझे याद करोगे, तो मेरा भी दायित्व है आप लोगों की रक्षा करना. बदले में मुझे ही क्यों न तकलीफ उठानी पड़े. यह देखो मेरी पीठ". किसान नानजी ने देखा जलाराम बापा की पीठ मानो पेड़ की शाखाओं से छिल गई हो. वह अचंभित रह गया. जलाराम बापा फिर मौन हो गए. किसान नानजी ने उनसे आज्ञा लेकर अपने गाँव के लिए रवानगी दर्ज की.
फसल सुरक्षित रहने की मन्नत फली : अमरेली जिले में एक बार रात को मौसम खराब हो गया. एकाएक ओले गिरने लगे. किसान उका पटेल जलाराम बापा का भक्त था. ओले गिरते देख वह चिंतित हो गया. उसे चिंता सताने लगी कहीं ओले की वजह से उसकी फसल नष्ट न हो जाए.उसने जलाराम बापा को श्रद्धापूर्वक याद कर मन्नत मानी- "हे जलाराम बापा, मेरे खेत में ओले न पड़े और फसल सुरक्षित रहेगी तो मैं आपके यहाँ आकर दो नारियल
अर्पण करूंगा". फिर सुबह होने पर जब अपने खेत जाकर किसान उका पटेल ने नजारा देखा तो आश्चर्यचकित रह गया. आसपास के खेतों में ओले की वजह से फसल पूरी तरह नष्ट हो गई थी, लेकिन उसके खेत में फसल लहलहा रही थी. ओले का नामोनिशान न था, फसल पूर्णतः सुरक्षित थी. उसने चैन की सांस ली और तुरंत जलाराम बापा के यहाँ मन्नत के मुताबिक़ धन्यवाद ज्ञापित और नारियल अर्पित करने वीरपुर रवाना हो गया. वीरपुर पहुँच कर उसने सर्वप्रथम जलाराम बापा के चरण स्पर्श किये और मन्नत फलने पर आभार जताया- "बापा, आपकी कृपा से मेरी फसल बर्बाद होने से बच गई, अन्यथा मेरा परिवार दाने-दाने को मोहताज हो जाता". जलाराम बापा ने प्रत्युत्तर में कहा- "भाई, प्रभु पर सदा भरोसा रखो, सुखी रहोगे. दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम, इसलिए
कभी मत घबराना". फिर किसान उका पटेल ने दो नारियल चढ़ाए.
गंगा-यमुना स्वयं विकलांग भक्त के घर आयीं : वीरपुर में विकलांग भीखा भाई भी जलाराम बापा के भक्तों में से एक
थे. गंगा-यमुना की यात्रा करने की उनकी दिली इच्छा थी, लेकिन इसमें विकलांगता आड़े आ रही थी. इसका उसे बहुत मलाल था. एक दिन भोर में उसकी नींद अचानक खुल गई. उसने अपने घर में पानी की गागर लिए दो तेजस्वी महिलाओं को देखा. क्षण भर में वे मटके में पानी उड़ेल कर अदृश्य हो गई. सूर्योदय के बाद भीखा भाई
जलाराम बापा के घर गए और आशीर्वाद लेकर उनको सारा वृत्तांत सुनाया. जलाराम बापा ने मुस्कुराते हुए कहा- "भीखा भाई, वे कोई सामान्य स्त्रियाँ नहीं थीं, बल्कि स्वयं गंगा-यमुना थीं. प्रभु के सच्चे और अशक्त भक्तों के पास वे स्वयं चल कर आती हैं". फिर प्रसन्न भाव से भीखा भाई अपने घर रवाना हो गए.
गोंडल नरेश और जूनागढ़ के नवाब ने भी सदाव्रत शुरू कराया : जलाराम बापा के सदाव्रत-अन्नदान से प्रेरित  होकर गोंडल के राजा ने वीरपुर से दो मील दूर स्थित चरखडी गाँव में राज्य खर्च से सदाव्रत-अन्नदान प्रारंभ करवाया. तत्पश्चात कुछ ही दिन में श्रद्धालुओं में यह जुमला प्रसिद्द हो गया "वीरपुर में मिले दाल रोटी, चरखडी में
मिले चावल".वहीं दूसरी ओर जूनागढ़ के नवाब जब जलाराम बापा की लोकप्रियता सुनकर वीरपुर आये तब उन्होंने भी यहाँ से प्ररणा पाकर समीपस्थ गाँव में सदाव्रत-अन्नदान शुरू करवाया.( जारी )                        
                                                                     

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 22 )

सर्प दंश से पीड़ित बच्चे को स्वस्थ किया : एक तरफ जलाराम बापा के अनूठे चमत्कारों का सिलसिला जारी था, तो दूसरी ओर श्रद्धालुओं का उनके प्रति विश्वास बढ़ता ही जा रहा था. एक बार वीरपुर के समीपस्थ गाँव में सामजी सोनी के पुत्र को जहरीले सांप ने जब डंसा तो उसका शरीर नीला होने लगा. बच्चे की हालत देख कर परिजन रूआंसे हो गए. इस बीच पड़ोसी भी वहां पहुँच गए. एक पड़ोसी ने उस बच्चे के पिताश्री को सलाह दी- "सामजी भाई, बच्चे का जीवन बचाना चाहते हो तो बिना देर किये वीरपुर जलाराम बापा के पास चले जाओ." यह सलाह सामजी को भी उचित लगी. वे तत्काल बच्चे को लेकर वीरपुर रवाना हो गए.
जलाराम बापा के घर पहुंचते ही सामजी ने चरण स्पर्श कर उन्हें अपने आने का मकसद बताया. सुन कर जलाराम बापा कुछ नहीं बोले. केवल उन्होंने एक सेवक को इशारा कर चिमटा मंगवाया, तत्पश्चात उस चिमटे को तीन बार बच्चे के उस अंग पर छुवाया, जहां सांप ने डंसा था. फिर तो जैसे कोई चमत्कार हो गया. क्षण भर में उस निर्जीव से बच्चे ने आँखें खोली और उठ कर बैठ गया. यह अद्भुत नजारा देख कर सामजी सहित वहां उपस्थित सभी अनुयायी बोल उठे- "जलाराम बापा की जय". पुत्र को मौत के मुंह से वापस लौटा देख कर सामजी सोनी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा. उसकी आँखों से खुशी के आंसू छलक उठे. जलाराम बापा के पैर छूकर उसने कहा- "बापा, आपने आज मेरे बच्चे को नया जन्म दिया है, आपका यह उपकार मैं जीवन भर याद रखूंगा". जलाराम बापा ने कहा- "भाई, यह तो प्रभु की कृपा है, उपकार उनका मानो". इतना कह कर जलाराम बापा अन्य सेवा कार्य में व्यस्त हो गए. सामजी सोनी भी आज्ञा लेकर अपने गाँव रवाना हो गए.
मृत पक्षी जब जीवित हो गए : राजकोट के राजा की नौकरी छोड़ कर तीन मुस्लिम शिकारी वीरपुर के रास्ते जूनागढ़ की ओर जा रहे थे. उनके पास एक पिंजरा था, जिसमें कुछ मृत पक्षी थे. वीरपुर गाँव की सीमा पर इनकी मुलाक़ात जलाराम बापा से हो गई. जात-पांत के भेदभाव से जलाराम बापा परे थे, इसलिए आग्रहपूर्वक उन्हें भी अपने यहाँ भोजन कराने ले आये. वे मुस्लिम शिकारी आ तो गए, लेकिन पिंजरे में मरे हुए पक्षी होने के कारण मन ही मन संकोच और अपराध बोध हो रहा था. वे सोचने लगे- "कहीं खुदा के इस नेक बन्दे को हमारे पिंजरे में रखे मृत परिंदों के बारे में मालूम हो गया तो वे दुखी हो जायेंगे". इन तीनों मुस्लिम शिकारियों को भोजन कराने के बाद जलाराम बापा ने उनसे कहा- "भाइयों, आपके पिंजरे में कैद इन मूक पक्षियों को भी भूख लगी होगी, इन्हें भी दाना-पानी दिया जाना चाहिए. वे शिकारी कुछ बोल पाते, इससे पहले ही जलाराम बापा उस पिंजरे के पास गए और
उसका मुहाना खोल दिया. अन्दर मृत पड़े पक्षी जीवित होकर अपने पंख फडफडाते हुए बारी बारी उड़ गए. यह अजूबा देख कर उन शिकारियों की आँखें आश्चर्य से फटी की फटी रह गई. उन्हें आत्मग्लानी हुई और वे रोते हुए जलाराम बापा के पैरों में गिर कर माफी माँगने लगे. जलाराम बापा ने उनके सर पर हाथ रखते हुए कहा- "भाइयों,
जीव दया भी एक बड़ा धर्म है. मूक पक्षियों की सेवा करोगे तो तुम्हारा जीवन धन्य हो जाएगा". उन शिकारियों ने समवेत स्वर में कहा- "बापा, आज से हम ऐसा ही करेंगे". फिर जलाराम बापा से अनुमति लेकर अपने गंतव्य स्थान की ओर चल पड़े.
नदी का बहाव बदला : जलाराम बापा एक बार जोडीया बंदरगाह गए. उस गाँव की सीमा पर नदी का बहाव अनुकूल न होने से ग्रामीण महिलायें परेशान थीं. जलाराम बापा को उन महिलाओं ने अपनी परेशानी बताई. जलाराम बापा ने उन्हें भरोसा दिलाया- "बहनों, चिंता मत करो. समय आने पर सब ठीक हो जाएगा". जलाराम बापा का यह आश्वासन आश्चर्यजनक ढंग से फलीभूत हुआ. मानसून आते ही नदी का बहाव स्वतः बदल गया. इस तरह
ग्रामीण महिलाओं की दिक्कतें हमेशा के लिए दूर हो गई.
नवागाम में संक्रामक रोग मिटाया : नवागाम में एक बार संक्रामक बीमारी फ़ैली थी. ग्रामवासी सभी तरह का इलाज कराकर देख चुके थे.कोई फ़ायदा नहीं हो रहा था. आखिरकार गाँव के मुखिया और कुछ ग्रामीण जलाराम बापा के पास जाकर उनसे अपनी तकलीफ बताई. परेशानी सुनकर जलाराम बापा उसी पल उनके साथ नवागाम
रवाना हो गए. नवागाम पहुँच कर उन्होंने हालात का जायजा लिया. फिर जिस कुवे से ग्रामीण पीने का पानी लाते थे, उसमें भभूति डाली और प्रभु से संक्रामक रोग मिटाने की प्रार्थना की. तत्पश्चात जलाराम बापा ने ग्रामीणों से कहा- "आप लोग निश्चिन्त रहें, कुछ दिन में बीमारी दूर हो जायेगी". इतना कह कर वे वापस वीरपुर लौट गए. चार दिन बाद जब पूरे नवागाम में संक्रामक रोग दूर हो गया तो ग्रामीण अचंभित रह गए. सबने प्रसन्नतापूर्वक जलाराम बापा के जयकारे लगाए.
        
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शनिवार, 10 दिसंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 21 )

राजकोट के लकवा पीड़ित लोहाना पुरोहित को स्वस्थ किया : जलाराम बापा के सेवा कार्यों, भक्ति और चमत्कारों के कारण वीरपुर गाँव सौराष्ट्र, गुजरात का चर्चित यात्रा धाम बन चुका था. जलाराम बापा को श्रद्धापूर्वक स्मरण कर रखी गई मन्नत चमत्कारिक रूप से फलती तो थी ही, इसके अतिरिक्त यदि कोई दुखी जन वीरपुर गाँव में जलाराम बापा की शरण में पहुँच जाता तो भी उसके सारे दुःख दर्द आश्चर्य जनक ढंग से दूर हो जाते थे. वीरपुर गाँव के समीप स्थित राजकोट के एक लकवाग्रस्त लोहाना गोर महाराज (पुरोहित) गोपाल जोशी भी इसके एक उदाहरण थे.
राजकोट सौराष्ट्र की एक महत्वपूर्ण रियासत थी. यहाँ तुलनात्मक रूप से गुजराती लोहाना समुदाय के अधिक लोग निवासरत थे. गोपाल जोशी इनके वरिष्ठ पुरोहित थे. प्रत्येक शुभ या शोक अवसर पर इनकी सेवाएँ अनिवार्य होती थी. लेकिन एक लम्बे अरसे से वे खटिया पकड़ चुके थे. विवशतः बिस्तर पर ही उनका समस्त नित्य कर्म होता था. वजह थी उनका लकवाग्रस्त होना. पक्षाघात से पीड़ित होने के कारण ये पुरोहित तो तकलीफ भोग ही रहे थे, साथ ही उनका पूरा परिवार भी परेशान और दुखी था. ऐसा नहीं था राजकोट में अस्पताल, वैद्य या हकीम की कमी हो, सभी से उपचार आजमा लिया गया था, किन्तु कोई फ़ायदा नहीं हुआ. किसी की दवा उपयोगी सिद्ध नहीं हुई.
राजकोट के कई लोहाना सेठ भी गोर महाराज गोपाल जोशी के यजमान थे. वे भी उनकी पीड़ा देख कर दुखी थे. एक दिन वे सभी सेठ राज वैद्य से मिले. उन्हें गोर महाराज की बीमारी का पूरा ब्योरा सुनाया. एक वृद्ध सेठ ने राज वैद्य से कहा- "वैद्य जी, गोपाल गोर महाराज की तबियत लगातार बिगड़ती ही जा रही है. उनकी यह हालत हमसे देखी नहीं जा रही है. ऐसा कोई अस्पताल, वैद्य या हकीम बाकी नहीं है, जहां उपचार के लिए उन्हें दिखाया न गया हो. अब आपका ही सहारा शेष रह गया है. कृपया आप उनका उपचार तत्काल प्रारम्भ करेंगे तो मेहरबानी होगी". निवेदन स्वीकार करते हुए प्रत्युत्तर में राज वैद्य ने कहा- "अगर ऐसी बात थी तो आप लोग मुझसे पहले क्यों नहीं मिले?, चलिए अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है, आज ही गोपाल गोर महाराज की नाडी देख कर उनका उपचार प्रारम्भ करते हैं". फिर राज वैद्य ने अपने सेवक से कह कर दवा पेटी और बग्घी मंगवाई और सेठ लोगों के साथ चल पड़े ब्राह्मण मोहल्ले स्थित गोर महाराज गोपाल जोशी के घर.
राज वैद्य की बग्घी देख कर पूरा ब्राहमण मोहल्ला इकट्ठा हो गया. सबको उम्मीद बंध गई राज वैद्य के आने से. गोपाल गोर महाराज के अब जल्द स्वस्थ होने की संभावना बढ़ गई थी. उधर, राज वैद्य ने सबसे पहले गोपाल गोर महाराज की नाडी का परीक्षण किया फिर शरीर के हर अंग-प्रत्यंग का जायजा लिया और गर्व के साथ प्रसन्न मुद्रा में उनके परिजनों से कहा- "चिंता करने वाली कोई बात नहीं है. मैं दवा की कुछ पुडिया दे रहा हूँ, इसे शहद के साथ प्रतिदिन नियमित रूप से गोर महाराज को खिलाना, देखना हफ्ते भर में इनकी बीमारी छूमंतर हो जायेगी और ये पहले की तरह फिर से चलने फिरने लग जायेंगे". राज वैद्य की यह गर्वोक्ति और दावा सुन कर सभी के चहेरे खिल उठे. वहां मौजूद सभी व्यक्तियों को राज वैद्य पर पूरा भरोसा था.
राज वैद्य द्वारा दी गई दवा उनके आदेशानुसार परिजनों द्वारा गोपाल गोर महाराज को रोज खिलाई जाने लगी. शहद की पूरी बोतल खप गई. दवा की सभी पुडिया खिला दी गई. अब गोपाल गोर महाराज के शरीर की तेल-मालिश का वक़्त आ गया. मालिश के लिए राज वैद्य द्वारा न जाने कैसा तेल दिया गया था, जिसे लगाते ही गोपाल गोर महाराज को राहत मिलने के बजाय उनका पूरा शरीर तपने लगा. "आसमान से गिरे, खजूर के पेड़ में अटके" वाली कहावत चरितार्थ हो गई. गोपाल गोर महाराज दर्द से कराहने लगे. वे हिम्मत हार कर पुत्र से कहने लगे- "नन्दूरा, अब मैं नहीं बचूंगा. मुझे खटिया से उतार कर जमीन पर लिटा दे. मेरा अंतिम समय निकट आ गया है, गीता पाठ प्रारंभ करवा दे. मेरे बेटी-दामाद को भी यहाँ बुलवा लो". गोपाल गोर महाराज की पत्नी ने रोते हुए उन्हें दिलासा दिया- "नन्दूरा के बापूजी शुभ शुभ बोलिए, आपको कुछ नहीं होगा. क्यों अनावश्यक चिंता करते हैं. आप सौ साल जियेंगे. हो सकता है राज वैद्य की दवा का असर कुछ दिन बाद दिखे". गोपाल महाराज ने दुखी भाव से दो टूक जवाब दिया- "वह असर तो दिख रहा है. अभी ये हाल है, तो आगे क्या होगा, समझ जाओ".
देखते ही देखते पहले ब्राहमण मोहल्ले फिर पूरे राजकोट में यह अफवाह फ़ैल गई "राज वैद्य की दवा के दुष्प्रभाव के कारण गोपाल गोर महाराज की तबियत ज्यादा बिगड़ गई है. अब शायद ही वे बच पायेंगे". फलस्वरूप रिश्तेदार, यजमान, मित्र, परिचित, पड़ोसी सभी लोग गोपाल गोर महाराज को देखने उनके घर आने लगे, मानो वे कुछ ही दिन के मेहमान हो. उनकी तबियत का हाल जानने घर आने वालों में बुजुर्ग लोहाना मित्र कुंवरजी भाई भी थे. वे जलाराम बापा के पक्के अनुयायी थे. वे कई बार वीरपुर गाँव जाकर जलाराम बापा के दर्शन का लाभ ले चुके थे. उस बुजुर्ग मित्र ने गोपाल गोर महाराज से पूछा- "गोर महाराज, अब कैसी तबियत है". उन्होंने जवाब दिया- "बस अब चला चली की बेला है. जितने दिन निकल जाए, बहुत है".वृद्ध मित्र ने सुझाव देते हुए कहा- "गोर महाराज,
हिम्मत रखो. तुम्हें कुछ नहीं होगा. मेरी मानो तो वीरपुर वाले भगत जलाराम बापा की शरण में चले जाओ, देखना
पहले की तंदुरूस्त हो जाओगे". यह सुझाव सुन कर गोपाल गोर महाराज ने मन ही मन सोचा- "सब से उपचार करा कर तो देख लिया है, परिणाम शून्य रहा. अब ये अंतिम नुस्खा भी आजमा कर देख लिया जाए. शायद वह फल जाए". उन्होंने बुजुर्ग मित्र से कहा- "धन्यवाद, तुम्हारा सुझाव सही प्रतीत हो रहा है. यह बात मेरे दिमाग में पहले क्यों नहीं आई?, मैं इसी समय वीरपुर गाँव के लिए रवाना होता हूँ". इतना कह कर उन्होंने अपने पुत्र को आदेश दिया- "नन्दूरा, सब प्रबंध कर बैल गाडी ले आ, हमें तत्काल वीरपुर गाँव, भगत जलाराम बापा के यहाँ जाना है".पुत्र ने विरोध भरे स्वर में कहा- "बापूजी, यह आप क्या कह रहे हैं. खटिया से उठने की शक्ति आप में है नहीं, वीरपुर तक कैसे जा सकते हैं?" गोपाल गोर महाराज ने नाराज होते हुए कहा- "नन्दूरा, तेरे को जितना बोल रहा हूँ उतना कर, ज्यादा होशियारी मत दिखा. तू नहीं चलेगा तो मैं अकेले गाडीवान देवसी के साथ चला जाउंगा". पुत्र ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन वे नहीं माने. वहां उपस्थित एक दो नास्तिकों ने भी नन्दूरा की हाँ में हाँ मिलाते हुए गोपाल गोर महाराज को यह विचार त्यागने की सलाह देते हुए कहा- "गोर महाराज, आप भी कहाँ वीरपुर वाले जला के चक्कर में फंस रहे हैं. किसी अच्छे वैद्य से उपचार कराओ, तो शायद भला हो". गोपाल गोर महाराज ने उन्हें डांटते हुए कहा- "चुप रहो तुम लोग. क्या जानते हो भगत जलाराम के विषय में, कुछ मालूम है नहीं, चले बीच में टांग अडाने". दाल गलती न देख कर उन नास्तिकों ने बुजुर्ग मित्र कुंवरजी भाई को बरगलाना शुरू किया- "बापा, क्यों अपने मित्र की जान लेने पर तुले हो, वीरपुर गाँव जाते हुए कहीं बीच रास्ते में इनका राम नाम सत्य हो गया तो लोग आपको जीवन भर क्षमा नहीं करेंगे. इसलिए बेहतर है इन्हें जाने से रोकिये". कुंवरजी भाई ने तुनक कर जवाब दिया- "अरे मूर्खों, भगत जलाराम बापा के दर्शन और आशीर्वाद से किसी का भला होता हो तो तुम्हारा क्या बिगड़ रहा है?".
थोड़ी देर बाद चालक देवसी बैल गाडी लेकर आ गया. बुजुर्ग मित्र ने स्वयं उस बैल गाडी में गद्दे बिछाए. उस पर गोपाल गोर महाराज को लिटाया गया. रास्ते के लिए जरूरी सामान रखा गया. फिर चालक देवसी धीरे धीरे बैल गाडी हांकते हुए वीरपुर गाँव की ओर रवाना हो गया. जब बैल गाडी वीरपुर गाँव पहुँची तो गोपाल गोर महाराज ने राहत की सांस ली. चहेरे पर निश्चिंतता का भाव था. जैसे ही बैल गाडी दरवाजे पर पहुँची वैसे ही जलाराम बापा उनका स्वागत करने दौड़े चले आये. दो चार सेवक भी पीछे पीछे आ गए. जलाराम बापा ने देखते ही कहा- "पधारिये गोर महाराज". यह सुन कर गोपाल गोर महाराज अचंभित हुए और बोले- "बापा, आपको कैसे मालूम हुआ मैं गोर महाराज हूँ".जलाराम बापा ने मुस्कुराते हुए कहा- "इसमें चौंकने वाली कोई बात नहीं है,आपकी वेशभूषा ही बता रही है आप कौन हैं". परिचय की औपचारिकता के बाद गोपाल गोर महाराज ने जलाराम बापा को
अपनी बीमारी और अब तक के सभी उपचार के बारे में विस्तार से बताया. जलाराम बापा ने उनकी बात ध्यान से सुनी. फिर बोले- "गोर महाराज, मैं वैद्य तो नहीं हूँ जो आपका उपचार कर सकूं, किन्तु हाँ, इतना विश्वास के साथ कह सकता हूँ यहाँ रह कर प्रभु श्रीराम की श्रद्धा से भक्ति करोगे, दुखीजनों और संत महात्माओं की सेवा करोगे तो आपकी बीमारी अपने आप दूर हो जायेगी. मेरी बात पर विश्वास हो तो अन्दर चले आओ". इतना कह कर जलाराम बापा अन्य आगंतुक अथितियों का सत्कार करने भीतर चले गए. बिना देर किये गोपाल गोर महाराज ने गाडीवान
देवसी से कहा- "देवसी देख क्या रहा है, चल जल्दी मुझे नीचे उतार". गाडीवान सोचने लगा "इन्हें मैं कैसे गाडी से नीचे उतारूंगा, भीतर भी कैसे ले जाउंगा. कहीं से खटिया और एक दो मददगार मिल जाए तो काम आसान हो जाएगा". इसी दौरान अचानक वहां जलाराम बापा फिर आ गए और कहा- "चलिए गोर महाराज, मैं आपको सहारा देता हूँ". इतना कह कर वे गाडी के पास आकर खड़े हो गए. यह सुन कर गोपाल गोर महाराज का हाथ स्वतः जलाराम बापा के कंधे की तरफ बढ़ गया. फिर तो मानो चमत्कार सा हो गया. एक लम्बे अरसे से बिस्तर से न उठ पाने वाले अशक्त गोपाल गोर महाराज एकाएक उठ खड़े हुए और आहिस्ते आहिस्ते जलाराम बापा के पीछे चल पड़े.        
यह चमत्कार देख कर गोपाल गोर महाराज फूले नहीं समाये. उनकी आँखों से खुशी के आंसू छलक उठे. यह सब अजूबा देख कर गाडीवान देवसी की आँखें भी आश्चर्य से फटी की फटी रह गई. आखिरकार जलाराम बापा का कथन शत प्रतिशत सत्य सिद्ध हुआ. छः माह के भीतर ही गोपाल गोर महाराज पूर्णतः स्वस्थ हो गए. अब वे पहले की तरह चलने फिरने लग गए थे. उनकी खुशी का ठिकाना ना रहा. जलाराम बापा के चरण स्पर्श कर आभार जताते हुए उन्होंने कहा- "बापा, आपने मुझे नया जीवन देकर बड़ा उपकार किया है, आपका मैं जीवन भर आभारी रहूँगा".
जलाराम बापा बोले- "यह सब प्रभु श्रीराम की कृपा है, आपको उनकी सेवा करने का प्रतिफल मिला है. प्रभु की भक्ति करते हुए आप भी दीनदुखियों की सेवा सदैव करना". फिर जलाराम बापा से आज्ञा और आशीर्वाद लेकर गोपाल गोर महाराज जयकारे लगाते हुए प्रसन्नतापूर्वक अपने घर राजकोट के लिए रवाना हो गए. ( जारी .... )                                                                                                                                        
       

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 20 )

अंग्रेज एजेंट सदाव्रत-अन्नदान देख कर चमत्कृत : जलाराम बापा द्वारा जारी चमत्कारिक सदाव्रत-अन्नदान कौतुहल का केंद्र बन चुका था. इसकी जानकारी राजा महाराजाओं के अलावा अंग्रेज अधिकारियों और राजदूत तक
पहुँच चुकी थी. जलाराम बापा द्वारा कम संसाधनों और अल्प खाद्य सामग्री के बावजूद आगंतुक सभी अथितियों को भर पेट भोजन कराने की सच्चाई जानने और परखने के उद्देश्य से एक दिन राजकोट रियासत के राजनैतिक एजेंट वीरपुर गाँव आये. अब तक राजा महाराजाओं की मेहमाननवाजी का लाभ उठाने वाले इस अंग्रेज एजेंट को अपने यहाँ आया देख जलाराम बापा ने उनका भी आथित्य सत्कार किया. दरअसल, उस अंग्रेज एजेंट की पूर्व नियोजित योजना थी हर तीस मिनट के अंतराल में बगैर सूचना के तीस-तीस घुड़सवार जवानों की सात टुकड़ी भोजन करने जलाराम बापा के यहाँ आयेगी, ताकि भोजन सामग्री घट जाए. आखिरकार योजना के तहत वे आये भी, लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से सभी ने भर पेट भोजन किया. जबकि काफी संख्या में अन्य अतिथि पहले से मौजूद थे. जलाराम बापा ने आग्रह पूर्वक सबको खिलाया. सभी सुस्वादु भोजन की प्रसंशा कर रहे थे. अंग्रेज एजेंट कनखियों से सारा नजारा देख रहा था. उसकी धारणा गलत निकली. वह सोचने लगा अतिथियों की अत्याधिक संख्या के बावजूद भोजन सामग्री कम क्यों नहीं पडी. यही नहीं बल्कि वह जल्द तैयार भी कैसे हो गयी, यह माजरा उसकी समझ से परे था. फिर मन ही मन उसने जलाराम बापा की तारीफ़ की. सभी अतिथि भोजन करने के बाद जलाराम बापा से आशीर्वाद लेकर जयकारे लगाते विदा हो रहे थे. यह देख कर अंग्रेज एजेंट भी खुद को न रोक पाया. जलाराम बापा के पास पहुँच कर उन्हें सम्मान देते हुए उसने सर से टोपी उतार कर झुकते हुए अभिवादन किया, और फिर आभार जताते हुए कहा- "आप वास्तव में भगवान् के सच्चे सेवक हैं. आपकी महिमा का मैं कायल हो गया हूँ. स्वादिष्ट भोजन कराने के लिए धन्यवाद". इतना कहकर वह अपने जवानों के साथ विदा हो गया.
ध्रांगध्रा नरेश ने बैल चालित चक्की भेंट की : गुजरात के विभिन्न राज दरबारों में अब आये दिन जलाराम बापा के
चमत्कारों और उनके सेवा कार्यों की चर्चा होने लगी थी. एक दिन ध्रांगध्रा नरेश का राज दरबार लगा हुआ था. प्रजा
की शिकायतों का समाधान और न्याय कर्म पूर्ण करने के बाद राजा ने दरबारियों से पूछा- "और आसपास की कोई विशेष बात या जानकारी देना बाकी रह गई हो बताओ". एक दरबारी ने उल्लासपूर्वक कहा- "महाराज श्री, आपकी आज्ञा हो तो वीरपुर के भगत जलाराम बापा के विषय में कुछ बताऊँ". राजा ने अनुमति दी. दरबारी ने कहा- "महाराज श्री, भगत जलाराम बापा के यहाँ जारी सदाव्रत-अन्नदान चमत्कार से युक्त है. बिना सूचना के वहां कितने व्यक्ति क्यों न पहुँच जाए, किसी को भोजन कम नहीं पड़ता है. हमारे कई सिपाही भी इसके प्रत्यक्ष साक्षी हैं". राजा ने आश्चर्य पूर्वक कहा- "अच्छा तो यह बात है, लेकिन न जाने मुझे क्यों इस पर भरोसा नहीं हो रहा है. एक बार स्वयं वीरपुर जाकर सच्चाई का पता लगाना पडेगा".
दूसरे ही दिन ध्रांगध्रा नरेश कुछ दरबारियों और घुड़सवार अंगरक्षकों के काफिले के साथ जलाराम बापा के यहाँ ठीक भोजन के समय पहुँच गए. जलाराम बापा ने उन सबका आदरपूर्वक स्वागत किया. फिर हाथ जोड़ कर उनसे पंगत में बैठ कर भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया. राजा ने इनकार करते हुए कहा- "भगत क्षमा करिए, हम जूनागढ़ जाने के लिए निकले हैं, रास्ते में वीरपुर आया तो सोचा आपके दर्शन कर तत्काल आगे बढ़ जायेंगे. अगर हम सब भोजन करने बैठेंगे तो बहुत देर हो जायेगी". जलाराम बापा ने विनम्रता से कहा- "महाराज श्री, प्रभु के इस दरबार में आया अतिथि राजा हो या रंक, कोई भी प्रसाद लिए बिना वापस नहीं जाता". राजा ने सोचा यह परखने में
क्या हर्ज है, इतनी जल्दी भोजन कैसे परोसा जाएगा. वे अपने काफिले के साथ भोजन करने बैठ गए. जलाराम बापा ने उसी क्षण सबको पर्याप्त भोजन परोस दिया.सभी भोजन कर तृप्त हो गए. राजा आश्चर्यचकित हुए और प्रसन्न भी. उन्होंने जलाराम बापा से आशीर्वाद लेकर कहा- "भगत, किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो बताइये".
जलाराम बापा ने कहा- "महाराज श्री, वैसे तो प्रभु की कृपा से अभी यहाँ सब कुछ है, केवल बड़ी घरेलू चक्की की कमी है. आपके ध्रांगध्रा में अच्छे पत्थर निकलते हैं, वे चक्की बनाने के लिए बहुत उपयोगी होंगे. उसे भिजवा देंगे तो गेहूं, बाजरा आदि पिसने में कठिनाई न होगी". राजा ने खुश होकर कहा- "भगत, मैं भी यही सोच रहा था. सदाव्रत के लिए बैल से चलने वाली एक बड़ी चक्की का प्रबंध कर शीघ्र भिजवाता हूँ". इतना कहकर उन्होंने विदाई ली. तत्पश्चात कुछ ही दिनों के भीतर ध्रांगध्रा नरेश ने अपना वादा पूरा करते हुए बैल चलित बड़े पत्थरो वाली चक्की जलाराम बापा के यहाँ भिजवा दी. ( जारी .... )                                                          

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 19 )

किसान की पत्नी की नेत्र दृष्टि लौटाई : जलाराम बापा के अनुयायियों में किसानों की संख्या अच्छी खासी थी. अब तो वीरपुर के अलावा आसपास के गाँव के किसान भी इनके प्रति श्रद्धा भाव रखने लगे थे. वीरपुर के समीप स्थित खोखरी गाँव में तुलनात्मक रूप से किसानों की संख्या अधिक थी. ये लोग भी जलाराम बापा के अनुयायी थे. जब भी इनको कोई तकलीफ होती तो जलाराम बापा का स्मरण कर मन्नत रखते, जो फलीभूत भी होती. जलाराम बापा के प्रति श्रद्धा को लेकर गांववासियों में कभी कभी प्रश्न प्रतिप्रश्न भी होते. आस्था की मनः स्थिति भी टटोली जाती. एक बार ऐसा हुआ भी. खोखरी गाँव में मानसून दगा दे गया था. बारिश न होने से अकाल की स्थिति निर्मित हो गयी थी. मानसून आधारित खेती होने से गाँव के किसानों में चिंता व्याप्त हो गयी. गाँव में सिंचाई का कोई अन्य साधन भी उपलब्ध नहीं था. किसी को कुछ नहीं सूझ रहा था.
एक दिन एक मंदिर के पुजारी ने सोचा क्यों न बारिश के लिए जलाराम बापा को याद कर प्रभु आस्था का सहारा लिया जाय. उन्होंने गाँव में मुनादी करवाई "मंदिर में संध्या आरती के समय बरसात के लिए प्रभु के नाम सामूहिक प्रार्थना की जायेगी". शाम को मंदिर में सब लोग परिवार समेत इकट्ठा हो गए. पुजारी ने सब पर पैनी दृष्टि डाली, फिर कहा- "सज्जनों, मुझे ऐसा आभास हो रहा है अभी प्रभु प्रार्थना का सही समय नहीं आया है. इसलिए आज इसे स्थगित करना पडेगा". पुजारी के इस गूढ़ अभिमत से सभी हतप्रभ रह गए. लोग एक दूसरे का मुंह ताकने लगे. इस बीच एक युवा ग्रामीण ने नाराजगी भरे शब्दों में कहा- "ये क्या बोल रहे हैं आप!, आपकी सूचना के अनुसार हम अपना कामकाज छोड़कर यहाँ इकट्ठा हुए हैं और अब आप कह रहे हैं प्रभु प्रार्थना का सही समय नहीं आया है. ये तो कोई बात नहीं हुई". पुजारी ने जवाब दिया- "मैं बिलकुल सही कह रहा हूँ. प्रभु प्रार्थना के लिए श्रद्धा होना पहली अनिवार्यता है. इस समय मुझे आप लोगों में श्रद्धा का नितांत अभाव दिख रहा है".एक अन्य युवक ने तैश में आकर कहा- "ये क्या अनाप-शनाप बोल रहे हैं. ये आप कैसे कह सकते हैं हमारे में श्रद्धा की कमी है. अगर ऐसा होता तो हम यहाँ आते ही क्यों?" पुजारी ने अपनी बात स्पष्ट करते हुए कहा- "अगर आप लोगों में प्रभु प्रार्थना के लिए सच्ची श्रद्धा होती तो अपने साथ छाता अवश्य लेकर आते. इसका मतलब साफ़ है आप लोगों को यह भरोसा नहीं था प्रभु प्रार्थना से बरसात होगी, अन्यथा खाली हाथ आने का और दूसरा कारण क्या हो सकता है".पुजारी का यह उलाहना सुनकर लोगों को अपनी गलती का अहसास हुआ साथ ही आत्मग्लानि भी हुई. फिर सर झुका कर सभी लोग चुपचाप अपने अपने घर चले गए.
हालांकि खोखरी गाँव में जलाराम बापा का एक ऐसा अनुयायी किसान भी था, जिसने अपनी पत्नी की तकलीफ के समय भी श्रद्धा भाव में कोई कमी न आने दी. दरअसल एक दिन उस किसान की पत्नी की आँखों में अचानक पीड़ा
हुई. कुछ ही पलों में उसे दिखना बंद हो गया. एकाएक उसकी नेत्र दृष्टि चली गई. उसकी आँखों के सामने अन्धकार छा गया. आँख है तो जहां है. किसान की पत्नी दुखी होकर स्वयं को असहाय महसूस करने लगी. पत्नी के अनायास अंधत्व की स्थिति देख कर किसान भी दुखी हो गया, लेकिन उसे यह भी भरोसा था जलाराम बापा की कृपा हुई तो
पत्नी की खोई हुई नेत्र ज्योति जरूर लौट आयेगी.
उधर, पूरे गाँव में किसान की पत्नी के अंधत्व संबंधी खबर फ़ैल गई. गाँव के कतिपय नास्तिकों को जलाराम बापा
के विरूद्ध बोलने का मौक़ा मिल गया. एक नास्तिक ग्रामीण ने उस किसान से चुनौती भरे शब्दों में कहा- "अरे भाई, तुम और तुम्हारी पत्नी बहुत धार्मिक प्रवृत्ति के हो, फिर ये विपदा अचानक क्यों आई?, इसके बावजूद तुम्हारा
विश्वास अभी भी जलाराम बापा पर बना हुआ है. अगर तुम्हारे भगत जला में दम है तो तुम्हारी पत्नी को वे ठीक क्यों नहीं कर देते?" कुछ अन्य नास्तिक भी इसी तरह के ताने मारने लगे. अनुयायी किसान को भला यह सब कैसे बर्दाश्त होता. उसने भी पलटवार कर जवाब दिया- "मुझे अपने जलाराम बापा पर पूरा भरोसा है, उनकी कृपा
से मेरी पत्नी को अवश्य दिखने लगेगा. तुम लोगों की बोलती अवश्य बंद हो जायेगी.
दूसरे ही दिन वह किसान अपनी पत्नी को साथ लेकर वीरपुर गाँव पहुँच गया. जलाराम बापा के पास पहुँच कर किसान ने उनके चरण स्पर्श किये और फिर सारा वृत्तांत सुनाया. नास्तिकों के ताने के बारे में बताया. हाथ जोड़ कर उसने विनती की- "बापा, अगर आपकी कृपा होगी तो मेरी पत्नी को पुनः दिखने लगेगा". जलाराम बापा ने उससे स्नेह पूर्वक कहा- "किसान भाई, लोगों के ताने से दुखी होने की आवश्यकता नहीं है. तुम्हारी पत्नी का सब कष्ट दूर हो जाएगा, प्रभु श्रीराम पर विश्वास रखो". तत्पश्चात वे किसान की पत्नी की आँखों की तरफ पलक झपकाए बगैर देखते रहे. क्षण भर बाद जलाराम बापा ने वीरबाई को बुलवाया और उनसे कहा- "देवी, किसान की पत्नी की आँखों पर प्रभु के चरणामृत डालो, और उसे सीताराम के दर्शन कराओ". वीरबाई ने ऐसा ही किया. फिर उन्होंने किसान की पत्नी से कहा- "बेन, अब सीताराम के दर्शन करो". किसान की पत्नी की पलकों में हलचल हुई, अगले ही क्षण ठीक सामने सीताराम की प्रतिमा दिखी. वह खुशी से फूले नहीं समाई. उसकी आँखों में खुशी के आंसू छलक गए. किसान भी यह चमत्कार देखकर खुशी से झूम उठा. फिर पति पत्नी ने जलाराम बापा और वीरबाई के चरण स्पर्श कर आभार जताया. यथाशक्ति भेंट अर्पित कर जयकारे लगाते हुए किसान दंपती अपने गाँव रवाना हो गए. अपने गाँव खोखरी पहुँच कर किसान दंपती ने जब जलाराम बापा की कृपा का ब्यौरा दिया तो श्रद्धालुओं में आस्था और बढ़ गई. इस चमत्कार की जानकारी होने पर नास्तिकों की बोलती भी बंद हो गई. अब वे भी जलाराम बापा के अनुयायी बन गए. ( जारी ..... )                                                      

रविवार, 4 दिसंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 18 )

कसौटी पर खरी उतर कर लौटने के बाद पत्नी को देवी माना : जलाराम बापा अपने सदाव्रत-अन्नदान जैसे सेवा कार्य के कारण आसपास के गाँव में लोकप्रिय तो थे ही, लेकिन जब उन्होंने वृद्ध महात्मा की मांग पर पत्नी वीरबाई का दान कर दिया तब यह खबर तेजी से पूरे गुजरात में प्रचारित हो गई. श्रद्धालु उन्हें महान त्यागमयी और चमत्कारी संत मानने लगे. कसौटी पर वीरबाई खरी उतर कर जब वापस अपने घर लौटीं तो वीरपुर गुजरात का एक अपार श्रद्धा वाला गाँव बन गया. जलाराम बापा के साथ ही अनुयायी भी अब वीरबाई को सेवाभावी गृहिणी के बजाय देवी स्वरुप मानने लगे.
चमत्कारी संत जलाराम बापा और देवी स्वरूपा वीरबाई के दर्शन करने श्रद्धालुजन उमड़ पड़े. वीरपुर गाँव में लोगों का तांता लग गया. गुजरात में वीरपुर नाम के कुछ और गाँव भी थे, किन्तु राजकोट के समीप स्थित गाँव वीरपुर को लोग अब श्रद्धावश "संत जलाराम का वीरपुर" नाम से संबोधित करने लगे थे. संत जलाराम का वीरपुर अब एक तीर्थ स्थल के रूप में परिवर्तित होता जा रहा था. जलाराम बापा और वीरबाई के चमत्कार, त्याग, सेवा और भक्तिमय जीवन पर अनुयायी श्रद्धालु भजन और गीत की रचना कर गाने लगे. इसकी जानकारी जलाराम बापा को भी हुई. मन ही मन वे दुखी हुए. श्रद्धालु उन्हें महिमामंडित करें, उनका महात्म्य गायें, यह उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था. वे चाहते थे अनुयायी श्रद्धालु उनके बजाय प्रभु पर आधारित भजन, गीत का ही गायन करें. संयोगवश एक रात उन्हीं के यहाँ होने वाले भजन-कीर्तन के दौरान जब एक युवा अनुयायी गीतकार ने जलाराम बापा पर केन्द्रित स्व रचित भजन गाया तब जलाराम बापा ने हाथ जोड़ कर उस गीतकार से कहा- "भाई, आप मेरे बदले प्रभु की महत्ता और गुणगान वाले गीत-भजन लिखकर गाओगे तो मुझे अधिक प्रसन्नता होगी. क्योंकि प्रभु ही सबका रखवाला है, वे ही सबका बेडा पार करते हैं. मुझे देवपुरूष का दर्जा मत दो, मैं तो आपके जैसा एक सामान्य व्यक्ति हूँ. प्रभु का
अदना सा सेवक हूँ". फिर उन्होंने मौजूद सभी श्रद्धालुओं से यही निवेदन करते कहा- "आप समस्त लोगों से मेरी नम्र विनती है मात्र प्रभु के ही गीत-भजन गायें. तभी मुझे आत्मिक संतोष होगा. बोलो, प्रभु श्रीराम की जय... सीताराम की जय..." तत्पश्चात सभी ने यही जयकारा लगाया.
जलाराम बापा का बडप्पन देख कर लोग और ज्यादा प्रभावित हुए. इसके पूर्व जो नास्तिक इनका उपहास उड़ाते थे
वे भी अब आस्तिक होकर जलाराम बापा के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने लगे थे. इनके दर्शन कर खुद को धन्य मानने लगे थे. अब तो गुजरात के अलावा अन्य राज्यों, रियासतों से भी काफी तादात में श्रद्धालुजन वीरपुर आने लगे थे.
लोगों की मन्नत का दायरा भी बढ़ गया था. जाहिर है, सदाव्रत-अन्नदान के लिए भेंट सामग्री की आमद भी बढ़ गई. सिद्ध वृद्ध महात्मा द्वारा वीरबाई को सौंपा गया झोली-डंडा भी अब स्थानीय और बाहरी अनुयायी श्रद्धालुओं के लिए दर्शनार्थ आकर्षण आस्था का माध्यम बन गया था. जलाराम बापा का पूजा स्थल चमत्कारों से परिपूर्ण था.
एक तरफ श्रद्धालु जलाराम बापा को अब देवपुरूष मानने लग गए थे, तो वहीं दूसरी ओर जलाराम बापा स्वयं को सामान्य सेवक समझते हुए वीरबाई को अब पत्नी के बजाय देवी मानने लगे थे. सिद्ध वृद्ध महात्मा की कसौटी पर खरी साबित होने के बाद जब से वीरबाई वापस घर लौटी थीं, तब से जलाराम बापा की नजरों में वीरबाई का स्थान
देवी स्वरुप हो गया था. अंतर्ध्यान हुए सिद्ध वृद्ध महात्मा से झोली-डंडा प्राप्त कर जिस दिन वीरबाई घर वापस आयीं
तो पहले की तरह तत्काल घरेलू और पति के सेवा कार्यों में व्यस्त हो गयीं. लेकिन जलाराम बापा अंतर्द्वंद से घिर
गए. मन में विचार आया- "एक बार जब मैंने सेवा कार्य के लिए पत्नी का दान कर दिया है, तब उसे पुनः स्वीकार करने का क्या औचित्य?, वीरबाई को दोबारा पत्नी के रूप में अंगीकार करना धर्म-नीति के विरूद्ध होगा. वृद्ध महात्मा को सौपने के पश्चात अब वीरबाई पर पति बतौर मेरा कोई अधिकार नहीं रह गया है". भजन-कीर्तन की समाप्ति के बाद देर रात को जब जलाराम बापा सोने के लिए अपनी खटिया पर आये तब वे फिर सोच में डूब गए.
रोज की तरह पत्नी वीरबाई उनके निद्रा में जाने से पहले पैर दबा कर सेवा करने लगी तो जलाराम बापा ने उन्हें ऐसा करने से मना किया और सकुचाते हुए अपने पाँव सिकोड़ लिए. वीरबाई चौंकी ,फिर पूछा- "नाथ, क्या बात है.
मुझसे अप्रसन्न हो, कोई भूल हुई है क्या?" जलाराम बापा ने बात टालते हुए कहा- "नहीं ऐसी कोई बात नहीं है. आज तुम बहुत थक गई होगी. जाओ, अपनी खटिया पर सो जाओ". इतना कहकर उन्होंने प्रभु का स्मरण कर आँखें मूँद लीं. वीरबाई उनके इस व्यवहार से हैरान हुई, क्योंकि पहले ऐसा कभी न हुआ था. अधिक पूछताछ से कहीं पति की नींद में कोई बाधा न पहुंचे, यह सोच कर वीरबाई स्वयं भी अपने बिस्तर पर जाकर सो गई.
जलाराम बापा हमेशा की तरह सूर्योदय से पहले उठ गए. मन विचलित होने के बजाय प्रफ्फुलित था. मानों नींद में ही प्रभु श्रीराम ने समस्या का समाधान कर दिया हो. नित्य कर्म और पूजा पाठ से निवृत्त होने के बाद वीरबाई ने जलाराम बाप का अच्छा मूड देख कर पूछा- "नाथ, कल रात को आप कुछ गुमसुम दिख रहे थे, क्या मेरी वापसी
आपको पसंद नहीं आई". जलाराम बापा बोले- "नहीं नहीं, ऐसा क्यों सोच लिया. तुम तो साक्षात देवी हो. देवी के पधारने से भला कोई दुखी होता है क्या?" वीरबाई ने बात काटते हुए कहा- "नाथ, आप ऐसा क्यों बोल रहे हैं?, मैं  कोई देवी नहीं हूँ. मुझे अपने बारे में सब पता है. मैं मात्र आपकी सेवक पत्नी हूँ. देव तो आप हैं मेरे". जलाराम बापा
ने कहा- "तुम अपने बारे में स्वयं नहीं जानती हो. मुझे पता है तुम कौन हो". वीरबाई ने प्रश्न किया- "आज आप
ऐसी बात क्यों कह रहे हैं?" जलाराम बापा ने जवाब दिया- "ऐसा कहने के लिए मेरे प्रभु का आदेश हुआ है. वीरबाई
ने आश्चर्य से पूछा- "मैं कुछ समझी नहीं". उन्होंने बात स्पष्ट करते हुए कहा- "प्रभु ने कहा है वीरबाई का दान करने के बाद तुम्हारा उस पर अब कोई अधिकार नहीं रह गया है. अब वह तुम्हारी पत्नी न होकर मात्र साथी है. इसलिए         
अब से तुम पति सेवा नहीं करोगी". रूआंसी होकर वीरबाई ने पूछा- "नाथ, क्या इसीलिये कल रात आपने मुझे अपने पैर दबाने नहीं दिए?" जलाराम बापा ने सर हिलाते हुए कहा- "हाँ". फिर वीरबाई ने दृढ़ता के साथ कहा- "नाथ, क्षमा करें, आप भले माने आपका मेरे पर कोई अधिकार न रह गया हो, किन्तु मेरा आप पर पूरा अधिकार है और यह मरते दम तक बना रहेगा. मेरे लिए पहले और आज भी पति ही परमेश्वर हैं, यानी मेरे परमेश्वर
की सेवा करने से मुझे कोई नहीं रोक सकता, यहाँ तक स्वयं परमेश्वर भी नहीं". यह सुनने के बाद जलाराम बापा ने आगे कुछ न बोलना उचित समझा. अपने निर्णय के मुताबिक़ जलाराम बापा ने उसी क्षण से अपने पति रूप को तिलांजली दे दी. पति का अधिकार त्याग दिया. लेकिन वीरबाई ने अपना पत्नी धर्म निभाना पूर्ववत जारी रखा.( जारी .... )                    
                                             
    
     
                                  

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 17 )

वृद्ध महात्मा की मांग पर पत्नी वीरबाई का दान किया : जलाराम बापा दीनदुखियों, भिक्षुकों, संत महात्माओं की सेवा करते हुए सदाव्रत-अन्नदान अभियान और प्रभु भक्ति में इतने व्यस्त  हुए उन्हें समय बीतने का आभास ही नहीं होता. समय का चक्र घूमता रहा. अब वे तीस बरस के हो गए थे. उम्र के इस पड़ाव में उनका सेवा भावी और धार्मिक व्यक्तित्व अत्यंत परिपक्व हो गया था. गृहस्थ जीवन का निर्वाह केवल बाहरी और सामाजिक आवरण था. भीतर का सच तो यह था जलाराम बापा और उनकी पत्नी वीरबाई, दोनों ने ही सांसारिक मौज मस्ती, मोह माया, लोभ, मान-अपमान आदि से परे होकर निःस्वार्थ सेवा और भक्ति को ही जीवन का मुख्य लक्ष्य बना लिया था. जलाराम बापा के समस्त सेवा कार्यों में पत्नी वीरबाई का प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष सहयोग लोगों के लिए प्रेरणादायक था. उनकी प्रभु भक्ति में
वे सदैव सहायक होतीं. वीरबाई अपने पति को प्रभु तुल्य मान कर उनके हर आदेश और इच्छा का सम्मान करते हुए
उसे तत्काल पूर्ण करती थीं. जलाराम बापा के अनुयायी और
गांववासी वीरबाई को गृह देवी मान कर आदर सम्मान देते.
जलाराम बापा के सदाव्रत-अन्नदान कार्य की वे प्रमुख प्रभारी थीं. रसोई तैयार करने का दायित्व भी इन्हीं का था. भोजन के लिए आये अथितियों की संख्या अधिक होने पर भी वे जिम्मेदारी से कतराती और थकती नहीं. सदाव्रत-अन्नदान अभियान को प्रारम्भ हुए बीस वर्ष हो चुके थे, लेकिन वीरबाई के चहेरे पर कभी भी थकान के कोई लक्षण नहीं दिखे. और न ही जलाराम बापा कभी इससे ऊबे नजर आये. बल्कि दोनों में दिन प्रतिदिन उत्साह और लगन में वृद्धि दृष्टिगोचर होती.
यूं तो भक्ति और सेवा कार्यों के चलते जलाराम बापा को कई बार कठिन परीक्षा और विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पडा था. किन्तु लक्ष्य के पक्के होने के कारण वे हर कसौटी पर खरे उतरे थे. लेकिन आज मामला
कुछ हटकर था. धर्म संकट की यह विषम और अप्रत्याशित परिस्थिति किसी और ने नहीं, बल्कि घर आये एक वृद्ध महात्मा ने उत्पन्न कर दी थी. दरअसल हुआ यूं, एक वृद्ध महात्मा ने आँगन में कदम रखते ही जोर से आवाज लगाईं- "जला भगत कहाँ है?, बुलाओ उसे". जलाराम बापा उस समय अथिति साधुसंतों को भोजन परोसने में व्यस्त थे. एक सेवक ने उन्हें वृद्ध महात्मा द्वारा पुकारे जाने की जानकारी दी. जलाराम बापा तत्काल उस वृद्ध महात्मा के पास पहुँच गए. उन्होंने पहले उनके चरण स्पर्श किये फिर दोनों हाथ जोड़ कर निवेदन किया- "बाबा जी, आइये आपके हाथ धुला देता हूँ, तत्पश्चात भोजन ग्रहण कीजिये". उस वृद्ध महात्मा ने व्यंगात्मक लहजे में कहा- "बच्चा, अच्छा तो तू है भगत जला!, सुना है आजकल बहुत बड़ा भगत बन गया है". जलाराम बापा ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया- "ऐसा नहीं है बाबा जी, मैं तो प्रभु श्रीराम और आप लोगों का तुच्छ सेवक मात्र हूँ".
वृद्ध महात्मा ने जलाराम बापा के जवाब से असंतुष्ट होकर कहा- "बच्चा, मुझसे मत कुछ छिपा, मैं तेरे बारे में सब जानता हूँ". फिर उन्होंने जलाराम बापा को आशीर्वाद देते हुए कहा- "प्रसन्न रहो बच्चा, इश्वर तेरा कल्याण करे".
जलाराम बापा ने वृद्ध महात्मा को सम्मानपूर्वक आसन पर बैठाया और कहा- "बाबा जी, मैं यहीं आपके हाथ धोने
के लिए पानी ले आता हूँ, तत्पश्चात आप भोजन ग्रहण कीजिएगा". लेकिन उन्होंने हठपूर्वक प्रत्युत्तर दिया- "बच्चा, मैं भोजन तो क्या, अन्न का एक दाना भी ग्रहण नहीं करूंगा". जलाराम बापा यह सुन कर दुखी हो गए. पहली बार उनके यहाँ किसी आगंतुक अथिति ने भोजन करने से साफ़ इनकार कर दिया. उन्होंने निराशा भरे स्वर में कहा- "बाबा जी, यहाँ से कभी भी कोई संत महात्मा भूखे नहीं लौटे हैं. आपको भी मैं बिना भोजन कराये कैसे जाने दे सकता हूँ. यदि आप भूखे रहेंगे तो मैं भी भूखा रहूँगा". वृद्ध महात्मा अपनी जिद पर अड़े रहे. नाराज होते हुए उन्होंने कहा- "बच्चा, कान खोल कर सुन ले, मैं दूसरों की तरह यहाँ भोजन करने नहीं आया हूँ. मैं तो गिरनार
की ओर तीर्थ यात्रा पर निकला हूँ. रास्ते में वीरपुर आया, इसलिए रूक गया. तेरा नाम बहुत सुना है, इस कारण मिलने यहाँ चला आया". इतना कह कर वे खड़े ही हुए थे अचानक गिर पड़े. जलाराम बापा ने उन्हें उठाया और आदर के साथ आसन पर पुनः बैठाया. फिर सेवा स्वरुप उनके पैर की मालिश करने लगे. वृद्ध महात्मा ने खुश होने के बजाय नाराज होते हुए कहा- "बच्चा, यह सब करने की आवश्यकता नहीं है, अभी तो तू मेरी सेवा कर देगा, किन्तु बाद में इस बूढ़े की सेवा कौन करेगा, न कोई मेरे आगे है न पीछे. इसलिए मैं कहता हूँ अपना समय मत खराब कर, थोड़ी देर आराम करने के बाद मैं स्वयं यहाँ से चला जाउंगा". यह उलाहना सुन कर जलाराम बापा ने उन्हें टटोलते हुए पूछा- "बाबा जी, सेवा करना मेरा धर्म है. भोजन के अतिरिक्त यदि आपकी कोई और इच्छा है तो कृपया बताइये, मैं उसे पूर्ण करने का हर संभव प्रयास करूंगा". वृद्ध महात्मा क्षण भर शांत रहने के बाद गंभीर होकर बोले- "बच्चा, तू क्यों पीछे पडा है, मेरी इच्छा ऐसी है, जो कभी पूरी होने वाली नहीं है". जलाराम बापा ने दृढ़ता पूर्वक कहा- "बाबा जी, आप बताइये तो सही, क्या मेरे पर विश्वास नहीं है". अधिक आग्रह होता देख अंततः वृद्ध महात्मा ने कहा- "तो सुन बच्चा, इस वृद्धावस्था में मेरी देखभाल करने वाला कोई नहीं है. इस बुढापे की जो लाठी बन सके, वैसा एक सेवक मुझे चाहिए". जलाराम बापा ने प्रसन्न होकर कहा- "बाबा जी, इतनी सामान्य बात कहने में आप संकोच कर रहे थे. आप आदेश करें तो मैं आपके साथ सेवक बन कर चलने को तैयार हूँ. आपकी सेवा कर मैं धन्य हो जाउंगा". जलाराम बापा के इस प्रस्ताव को खारिज करते हुए वृद्ध महात्मा ने दो टूक कहा- "नहीं बच्चा, तेरे स्तर का यह काम नहीं है. यदि तू सेवक बन कर मेरे साथ चलेगा तो तेरा यहाँ का सदाव्रत बाधित होगा. मैं तेरे इस पुण्य कार्य में बाधक नहीं बनना चाहता". जलाराम बापा ने जोर देते हुए कहा- "बाबा जी, क्षमा करिएगा, छोटा मुंह बड़ी बात, सेवा कार्य में स्तर नहीं देखा जाता. मेरे साथ चलने से यहाँ का सदाव्रत प्रभावित नहीं होगा, क्योंकि यह तो भगवान भरोसे चल रहा है, मैं तो निमित्त मात्र हूँ". वृद्ध महात्मा ने अपनी बात पर अडिग रहते हुए कहा- "नहीं बच्चा, मैंने जो कह दिया उसे अंतिम समझ". जलाराम बापा ने जिज्ञासावश उनसे पूछा- "बाबा जी, तो फिर बताइये मैं और क्या कर सकता हूँ?" उन्होंने धीमे स्वर में कहा- "बच्चा, मैंने सुना है तेरी पत्नी भी अत्यंत सेवाभावी है. इस बुढापे में ऐसी सेवाभावी स्त्री मुझे सेवक के रूप में मिल जाए तो मेरी सब परेशानी दूर हो जायेगी. तू  दानी भगत है, अपनी पत्नी तू मुझे दान कर दे. बता, स्वीकार है".यह अप्रत्याशित मांग सुन कर पल भर के लिए जलाराम बापा सन्न रह गए. ऐसा लगा मानो उनके पैरों तले धरती खिसक गई हो. उन्होंने अब तक जरूरतमंदों को कई वस्तुओं का दान किया था, लेकिन धर्मपत्नी का दान करने कोई कहेगा, यह कल्पना से परे था. उनकी ह्रदय की धड़कने बढ़ गई. वीरबाई उनकी केवल पत्नी ही नहीं थीं, वरन हर सेवा कार्य और भक्ति में निकटवर्ती प्रमुख सहायक भी थीं. उनके बिना कोई भी कार्य आसानी से पूर्ण नहीं होता था. क्षण भर बाद दिल पर पत्थर रखते हुए उन्होंने अपने को सामान्य किया. फिर प्रभु श्रीराम का स्मरण कर जलाराम बापा ने वृद्ध महात्मा को स्वीकृति देते हुए कहा- "ठीक है बाबा जी, जैसा आपका आदेश. आपकी इस इच्छा को पूरी करने से वृद्धावस्था की सभी परेशानी समाप्त हो जायेगी, तो मुझे भी प्रसन्नता होगी. आप थोड़ा रूकिये, मैं वीरबाई को राजी कर बुला लाता हूँ".
जलाराम बापा सीधे वीरबाई के पास गए, और उन्हें सारा वृत्तांत सुनाया. सुन कर पत्नी वीरबाई सहज रहीं. अभी  तक पति का हर आदेश उन्हें सिरोधार्य रहा, तो अब कैसे न होता. पति उनके लिए प्रभु की तरह थे. वीरबाई ने सहमति जताते हुए कहा- "नाथ, इसके लिए पूछने की क्या बात है. आपकी आज्ञा प्रभु की आज्ञा सदृश्य है. आप जैसा कहेंगे वैसा मैं करूंगी". यह सुन कर जलाराम बापा की आँखों में खुशी के आंसू आ गए. उन्होंने रूंधे गले से कहा- "धन्य हो तुम, जो इतना साहसिक निर्णय लिया है. संत महात्माओं की सेवा करना बहुत पुण्य का काम है. जाओ, पिताश्री तुल्य वृद्ध महात्मा की सेवा कर धर्म का मान रखो. मुझे विश्वास है तुम प्रसन्न भाव से अपना कर्त्तव्य निभाओगी". वीरबाई ने जलाराम बापा के चरण स्पर्श कर नम आँखों से कहा- "जो आज्ञा नाथ. आपकी सेवा में कभी मुझसे कोई कमी या भूल हो गई हो तो मुझे क्षमा कीजिएगा. मैं कहीं भी रहूँ, मेरे ह्रदय में सदैव आप बसे रहेंगे".
उधर, सदाव्रत-अन्नदान कार्यक्रम में उपस्थित साधुजन, महात्मा भी इस पूरे घटनाक्रम के साक्षी थे. उस वृद्ध महात्मा के साथ वीरबाई को सेवक बतौर दान कर भेजने जलाराम बापा का फैसला जान कर सभी अचंभित थे.
एक दो अनुयायियों के जरिये यह बात तत्काल पूरे गाँव में आग की तरह फ़ैल गई. वीरपुर के नामदार ठाकोर मूलराज सिंह द्वितीय की हवेली तक भी यह बात पहुँच गई. मूलराज सिंह हतप्रभ रह गए. वे बिना वक़्त गवाए
समझाइश देने जलाराम बापा के घर पहुँच गए. उन्हें देख कर जलाराम बापा ने पूछा- "ठाकोर साहेब, इस समय आप यहाँ?, मेरे लिए कोई सेवा हो तो बताइये".उन्होंने तपाक से कहा- "भगत, मैंने जो सुना, क्या वह सत्य है?"
जलाराम बापा बोले- "जी हाँ, सत्य है".उन्होंने कहा- "लेकिन ऐसा निर्णय उचित नहीं है, एक बार फिर से सोच लो".
जलाराम बापा ने अटल भाव से कहा- "प्रभु की यही इच्छा है, इसमें सोच विचार की कोई आवश्यकता नहीं है"
देर होते देख वृद्ध महात्मा ने आवाज लगाईं- "अब चलो, विलम्ब हो रहा है". वीरबाई ने कहा- "बाबा जी, दो मिनट,
ठहरिये, मैं अभी आती हूँ". यह कह कर वे घर के भीतर गई और पूजा स्थल में प्रभु की छवि के सामने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया. आँगन में बने हनुमान मंदिर में अर्चना की, फिर पाली हुई गाय को चारा खिला कर उसे गले लगाया. और पहुँच गई वृद्ध महात्मा के पास. उन्होंने प्रसन्न भाव से कहा- "बाबा जी चलिए". तत्पश्चात दोनों चल पड़े.
पूरे गाँव वालों की आँखों में आंसू थे. शुभचिंतक महिलायें दहाड़ मार कर रो रहीं थीं. अनुयायी राम धुन गा रहे थे.
विदा होते वक़्त पूरे रास्ते लोग खड़े होकर वीरबाई पर नम आँखों से फूल बरसा रहे थे. चलते चलते वीरबाई और वृद्ध महात्मा वीरपुर गाँव के बाहर सरियामती नदी के किनारे जंगल आ गए. फिर वृद्ध महात्मा ने वीरबाई से कहा- "देवी, तुम यहीं बैठो, मैं अभी आता हूँ. मेरी यह झोली और डंडा का ध्यान रखना, जब तक मैं वापस न लौटूं तब तक इसे किसी को देना नहीं". वीरबाई ने जवाब दिया- "बाबा जी, शीघ्र आइयेगा, आपके सामान की सही देखभाल करूंगी". "अभी आया" इतना कह कर वह वृद्ध महात्मा अंतर्ध्यान हो गए. समय बीतने लगा. वीरबाई आतुरता से वृद्ध महात्मा की प्रतीक्षा कर रही थीं, किन्तु वे कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे. काफी देर राह देखने के बाद वीरबाई का सब्र टूट गया. उनकी आँखों से आंसू बहने लगे. इतने में आकाशवाणी हुई- "देवी, धन्य है तेरी पति भक्ति. धन्य है तेरा उदार मनोबल. मैं तो तुम दोनों की परीक्षा लेने आया था. तुम पति पत्नी दोनों मेरी कसौटी पर
पूरे खरे उतरे हो. अब तुम सहर्ष अपने घर प्रस्थान करो. मेरे दिए हुए झोली-डंडे को पूजा स्थल में रख कर उसकी भी वन्दना-अर्चना करना".यह आकाशवाणी सुन कर वीरबाई को सुखद आश्चर्य और आनंद की अनुभूति हुई. प्रभु की यह अनोखी लीला देख कर वह गदगद हो गई. वीरबाई खुशी से फूले नहीं समाई. वह तेज कदमों से अपने घर की तरफ दौड़ पडी. वीरपुर गाँव वापस आते देख कर लोग भी खुशी से उछल पड़े. जब वीरबाई घर पहुँची तो उन्हें देखकर जलाराम बापा मुस्कुराए और केवल इतना ही कहा- "पधारो, चलो अब प्रभु के झोली-डंडे को पूजा स्थल में रख कर वन्दना करते हैं". वीरबाई फिर चौंकी. उनके मन में सवाल उठा- "इन्हें झोली-डंडे के बारे में कैसे जानकारी हुई".इसे भी उन्होंने प्रभु की लीला ही समझी. उधर, पूरे गाँव में उत्सव सा वातावरण बन गया. चारों तरफ वीरबाई और जलाराम बापा के जयकारे लग रहे थे. ( जारी .... )                      
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गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 16 )

अन्नदान सेवा क्षेत्र का विस्तार वीरपुर की सीमा तक किया : जलाराम बापा अब दिन प्रतिदिन अपने सदाव्रत-अन्नदान सेवा कार्य में अधिक व्यस्त होते जा रहे थे. उन्हें अपने परिवार से ज्यादा दुखीजनों, भूखे व्यक्तियों,
साधुजनों और संत-महात्माओं की सेवा करने में अधिक आनंद की प्राप्ति होती थी. इनके प्रति वे सदैव चिंतित रहते थे. वे विकलांग और निराश्रित व्यक्तियों की देखभाल विशेष तौर पर करते थे. जलाराम बापा का यह सेवा क्षेत्र एक आश्रम जैसा स्वरुप ले चुका था. उनका सदाव्रत-अन्नदान सेवा क्षेत्र अब केवल घर आँगन तक सीमित नहीं रह गया था, बल्कि उन्होंने इसका विस्तार वीरपुर गाँव की सीमा तक कर दिया था. जलाराम बापा रोज सुबह शाम गाँव की सीमा पहुँच जाते. फिर वहां से गुजरने वाले राहगीरों और तीर्थ यात्रियों को बड़े प्रेम से प्रसाद स्वरुप लड्डू और गाठियाँ खिलाते.
जिस रफ़्तार से सदाव्रत-अन्नदान सेवा कार्य जारी था, उसके अनुपात में जलाराम बापा के यहाँ भेंट बतौर अनाज और धन की आवक कम थी. इसके बावजूद वे कोई चिंता नहीं करते थे. उन्हें अपने प्रभु पर पूरा भरोसा था. भंडार में कितना अनाज बाकी है, इसकी जांच पड़ताल उन्होंने कभी नहीं की. हालांकि कुछ किसानों की तरफ से नियमित तौर पर अनाज आ जाता था. किसी की मन्नत पूरी होती तो वह भी भेंट स्वरुप कुछ ना कुछ ले आता. अब तो राजा और नवाब की ओर से भी सहायता मिलने लगी थी. लेकिन कई दफे ऐसा भी अवसर आता जब भोजन सामग्री का अभाव उत्पन्न हो जाता, तब भण्डार प्रभारी व्याकुल हो जाता. फिर वह जलाराम बापा के पास आकर हाथ जोड़ कर निवेदन करता- "बापा, भण्डार में अब कुछ नहीं बचा है, कल रसोई कैसे बनेगी?, भोजन सामग्री का प्रबंध तत्काल करिए न". तब जलाराम बापा बिना चिंतित हुए कहते- "भाई, चिंता मत करों. प्रभु थोड़ी देर में समस्त प्रबंध कर देंगे". कुछ देर बाद ऐसा होता भी. कोई न कोई भेंट देने आ ही जाता. दूसरे दिन पूरी रसोई बनती. जलाराम बापा भण्डार प्रभारी को यह समझाइश जरूर देते- "भाई, भण्डार में सामान जब भी कम लगे तो इसकी चर्चा दूसरों से नहीं करना".
जलाराम बापा रोज रात को भजन कीर्तन के बाद सोने से पहले एक छोटे से कागज़ में अगले दिन लगने वाले सामान की सूची  लिखते थे. फिर उसे अपने तकिये के नीचे रख कर निश्चिन्त होकर सो जाते थे. मानों वे अपने
प्रभु के लिए सन्देश लिखे हों. सुबह होते ही चमत्कारिक रूप से कोई न कोई श्रद्धालु बैल गाडी में अनाज और अन्य
सामग्री लेकर पहुँच जाता था. लेकिन एक बार आसपास अकाल की स्थिति निर्मित हो जाने के कारण हाहाकार मच गया. सब तरफ अनाज की किल्लत पैदा हो गयी. जलाराम बापा के यहाँ भूखेजनों का तांता लग गया. जिससे इनके यहाँ भी अब अनाज कम पड़ने लगा. जलाराम बापा से यह देखा नहीं गया. धन की समस्या का समाधान करने वे एक दिन घर से निकल पड़े. गंतव्य स्थान तय नहीं था.
पद यात्रा करते हुए वे गलोर गाँव पहुंचे. यहाँ उनका एक अनुयायी जीवराज पटेल रहता था. जलाराम बापा को अचानक अपने घर आया देख कर वह अत्यंत प्रसन्न हुआ. उसने जलाराम बापा के चरण स्पर्श कर कहा- "बापा,
आपने मुझे स्वयं आकर दर्शन दिया, इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ. मेरा घर तो पवित्र हुआ ही साथ ही मैं भी धन्य हो गया. इस सेवक के लिए क्या आदेश है". जलाराम बापा ने कहा- "जीवराज भाई, अकाल के कारण सदाव्रत में अथितियों की संख्या बढ़ गयी है, इसलिए कुछ धन की आवश्यकता है, दे दो. कुछ दिन बाद वापस लौटा दूंगा". जीवराज पटेल ने कहा- "बापा, इसके लिए आपने यहाँ आने का कष्ट क्यों उठाया, किसी सेवक को भेज देते या सन्देश भिजवा देते तो मैं धन दे देता". जलाराम बापा ने जवाब में कहा- "जीवराज भाई, सदाव्रत की जिम्मेदारी मैंने ली है तो इसका सब काम भी मुझे ही करना है, इसमें कष्ट की कोई बात नहीं है, बल्कि इसमें मुझे आनंद मिलता है". अनुयायी ने हाथ जोड़ कर कहा- "बापा, जैसा आपका आदेश". इतना कहकर उसने जलाराम बापा का
आथित्य सत्कार कर उनकों सम्मान पूर्वक बैठाया. फिर वह धन लेने बाजू के कमरे में चला गया.
अनुयायी जीवराज पटेल बाजू के कमरे में पहुँच कर चिन्हित जमीन को खोद कर एक छोटा सा बक्सा निकाला,
जिसमें एक थैली में बचत की हुई मुद्राएँ सुरक्षित रखी हुई थीं. इसमें से कुछ मुद्राएँ निकाल कर बाकी को पहले की तरह सुरक्षित रख दिया. फिर उसने वह मुद्राएँ जलाराम बापा को दे दीं. उधर जीवराज पटेल की पत्नी दरवाजे के पीछे छिपकर सारा नजारा देख कर दुखी हो रही थीं. लेकिन जुबान से कोई शब्द नहीं निकल रहे थे. जैसे ही जलाराम बापा मुद्राएँ लेकर और आशीर्वाद देकर चले गए, वैसे ही जीवराज की पत्नी का गुस्सा फट पडा. वह अपने  पति से उलझ पडी. पति द्वारा जलाराम बापा को मुद्राएँ देना उसे नहीं सुहाया. पत्नी द्वारा हाय तौबा मचाने के बाद भी जीवराज ने मौन रहने में ही अपनी भलाई समझी. जीवराज की पत्नी की चिल्लपों सुन कर पास पड़ोस के लोग भी इकट्ठा हो गए. एक पड़ोसी औरत ने जिज्ञासावश उससे पूछा- "क्या बात है बेन, क्यों अपने पति पर नाराज हो रही हो?, क्या उन्होंने कोई गलत बात कह दी है या फिर मारापिटा है?" जीवराज की पत्नी ने रोते हुए कहा- "अरे बेन, कुछ मत पूछो. मेरे तो करम ही फूट गए हैं. न जाने किस जनम का ये मुझसे बदला ले रहें हैं. ये पति कहलाने के लायक नहीं हैं. कितने दिनों से मैं साडी और गहने के लिए इनसे मुद्राएँ मांग रही हूँ लेकिन ये अनसुना कर देते हैं  या कभी कहते धन की किल्लत है. और आज जब वीरपुर वाला भगत जला आया तो उसने जितनी मुद्राएँ माँगी उतनी इन्होने झट से दे दी. अब मैं चिल्लाऊं नहीं तो क्या करू?" इतना कह कर वह दहाड़ मार कर रोने लगी. पड़ोसियों को समझते देर नहीं लगी. उनकी नजर में तो जीवराज ने यह पुण्य का काम किया था. लेकिन पत्नी को
सुहाया नहीं, इसीलिये वह  झूठा प्रपंच कर रही है. यह सोच कर पड़ोसियों ने वहां से हट जाना बेहतर समझा. पड़ोस की एक सहेली ने उसे समझाने की बेहद कोशिश की लेकिन उसका गुस्सा शांत नहीं हुआ. उसने अपने पति को कोसते हुए कहा- "अरे बेन, अब क्या बताऊँ, ये मेरे पति बहुत खराब स्वभाव के हैं. जब इनसे मुद्राएँ मांगो तब ये न होने का बहाना बनाते हैं. यहीं नहीं बल्कि मेरे मायके से मिले गहने को गिरवी रख कर धन लाने की गलत सलाह देते हैं. अब बताओ बेन, मैं इनसे लडूं नहीं तो क्या करू, देखना भगत जला को दिया गया धन डूब जाएगा. उसमें उधार लौटाने की ताकत कहाँ है?" जीवराज की पत्नी का यह उलाहना आसपास प्रचारित भी हो गया.
उधर, जलाराम बापा खुशी खुशी अपने गाँव वीरपुर पहुँच गए. जीवराज से मिली मुद्राओं से उन्होंने जरूरत का अनाज खरीद कर सदाव्रत- अन्नदान अभियान जारी रखा. दिन बीतने लगे. जलाराम बापा की तरफ से अब तक बकाया धन वापस न आने से जीवराज पटेल के कुछ पड़ोसियों को यह आशंका होने लगी जीवराज की पत्नी का अंदेशा कहीं सही न निकले. जीवराज की पत्नी तो पहले से ही आशंकित थी. कुछ समय बाद एक श्रद्धालु सेठ की मन्नत फली तो उसने जलाराम बापा को भेंट स्वरुप मुद्राओं की एक बड़ी थैली उनके चरणों में रख दी. दरअसल, उस सेठ के एक युवा पुत्र की अचानक आवाज चली गयी थी. किसी शुभचिंतक के सुझाव पर उस सेठ ने जलाराम बापा को याद कर बेटे की आवाज लौटने की मन्नत रखी, जो दूसरे दिन ही फल गयी. इसीलिये वह सेठ अपने पुत्र के साथ जलाराम बापा के पास भेंट के साथ आभार जताने आया था.
जलाराम बापा ने उस सेठ और उसके पुत्र को आशीर्वाद देने के तत्काल बाद एक सेवक के जरिये अनुयायी जीवराज पटेल को उसकी उधारी मुद्राएँ और प्रसाद भिजवा दिया. यहीं नहीं वरन जीवराज पटेल की झगडालू पत्नी के लिए एक नयी साडी भी भेंट स्वरुप भिजवाई. यह सब देख कर जीवराज पटेल खुशी से फूला नहीं समाया. जलाराम बापा की प्रसाद और भेंट पाकर उसने खुद को सौभाग्यशाली समझा. उसकी पत्नी को भी अपनी गलती समझ में आ गई. उसे बेहद आत्मग्लानि हुई. लेकिन साडी को लेकर पति से नाराजगी वाली बात जलाराम बापा तक कैसे पहुँची, यह उसे समझ में नहीं आया. उसने फिर भक्ति भाव से हाथ जोड़ कर जलाराम बापा का स्मरण कर अपनी भूल के लिए क्षमा प्रार्थना की. पास पड़ोस वालों को भी जब इसकी जानकारी हुई तब सबने मिलकर एक साथ जलाराम बापा का जयकारा लगाया. ( जारी .... )                               .