रविवार, 4 दिसंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 18 )

कसौटी पर खरी उतर कर लौटने के बाद पत्नी को देवी माना : जलाराम बापा अपने सदाव्रत-अन्नदान जैसे सेवा कार्य के कारण आसपास के गाँव में लोकप्रिय तो थे ही, लेकिन जब उन्होंने वृद्ध महात्मा की मांग पर पत्नी वीरबाई का दान कर दिया तब यह खबर तेजी से पूरे गुजरात में प्रचारित हो गई. श्रद्धालु उन्हें महान त्यागमयी और चमत्कारी संत मानने लगे. कसौटी पर वीरबाई खरी उतर कर जब वापस अपने घर लौटीं तो वीरपुर गुजरात का एक अपार श्रद्धा वाला गाँव बन गया. जलाराम बापा के साथ ही अनुयायी भी अब वीरबाई को सेवाभावी गृहिणी के बजाय देवी स्वरुप मानने लगे.
चमत्कारी संत जलाराम बापा और देवी स्वरूपा वीरबाई के दर्शन करने श्रद्धालुजन उमड़ पड़े. वीरपुर गाँव में लोगों का तांता लग गया. गुजरात में वीरपुर नाम के कुछ और गाँव भी थे, किन्तु राजकोट के समीप स्थित गाँव वीरपुर को लोग अब श्रद्धावश "संत जलाराम का वीरपुर" नाम से संबोधित करने लगे थे. संत जलाराम का वीरपुर अब एक तीर्थ स्थल के रूप में परिवर्तित होता जा रहा था. जलाराम बापा और वीरबाई के चमत्कार, त्याग, सेवा और भक्तिमय जीवन पर अनुयायी श्रद्धालु भजन और गीत की रचना कर गाने लगे. इसकी जानकारी जलाराम बापा को भी हुई. मन ही मन वे दुखी हुए. श्रद्धालु उन्हें महिमामंडित करें, उनका महात्म्य गायें, यह उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था. वे चाहते थे अनुयायी श्रद्धालु उनके बजाय प्रभु पर आधारित भजन, गीत का ही गायन करें. संयोगवश एक रात उन्हीं के यहाँ होने वाले भजन-कीर्तन के दौरान जब एक युवा अनुयायी गीतकार ने जलाराम बापा पर केन्द्रित स्व रचित भजन गाया तब जलाराम बापा ने हाथ जोड़ कर उस गीतकार से कहा- "भाई, आप मेरे बदले प्रभु की महत्ता और गुणगान वाले गीत-भजन लिखकर गाओगे तो मुझे अधिक प्रसन्नता होगी. क्योंकि प्रभु ही सबका रखवाला है, वे ही सबका बेडा पार करते हैं. मुझे देवपुरूष का दर्जा मत दो, मैं तो आपके जैसा एक सामान्य व्यक्ति हूँ. प्रभु का
अदना सा सेवक हूँ". फिर उन्होंने मौजूद सभी श्रद्धालुओं से यही निवेदन करते कहा- "आप समस्त लोगों से मेरी नम्र विनती है मात्र प्रभु के ही गीत-भजन गायें. तभी मुझे आत्मिक संतोष होगा. बोलो, प्रभु श्रीराम की जय... सीताराम की जय..." तत्पश्चात सभी ने यही जयकारा लगाया.
जलाराम बापा का बडप्पन देख कर लोग और ज्यादा प्रभावित हुए. इसके पूर्व जो नास्तिक इनका उपहास उड़ाते थे
वे भी अब आस्तिक होकर जलाराम बापा के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने लगे थे. इनके दर्शन कर खुद को धन्य मानने लगे थे. अब तो गुजरात के अलावा अन्य राज्यों, रियासतों से भी काफी तादात में श्रद्धालुजन वीरपुर आने लगे थे.
लोगों की मन्नत का दायरा भी बढ़ गया था. जाहिर है, सदाव्रत-अन्नदान के लिए भेंट सामग्री की आमद भी बढ़ गई. सिद्ध वृद्ध महात्मा द्वारा वीरबाई को सौंपा गया झोली-डंडा भी अब स्थानीय और बाहरी अनुयायी श्रद्धालुओं के लिए दर्शनार्थ आकर्षण आस्था का माध्यम बन गया था. जलाराम बापा का पूजा स्थल चमत्कारों से परिपूर्ण था.
एक तरफ श्रद्धालु जलाराम बापा को अब देवपुरूष मानने लग गए थे, तो वहीं दूसरी ओर जलाराम बापा स्वयं को सामान्य सेवक समझते हुए वीरबाई को अब पत्नी के बजाय देवी मानने लगे थे. सिद्ध वृद्ध महात्मा की कसौटी पर खरी साबित होने के बाद जब से वीरबाई वापस घर लौटी थीं, तब से जलाराम बापा की नजरों में वीरबाई का स्थान
देवी स्वरुप हो गया था. अंतर्ध्यान हुए सिद्ध वृद्ध महात्मा से झोली-डंडा प्राप्त कर जिस दिन वीरबाई घर वापस आयीं
तो पहले की तरह तत्काल घरेलू और पति के सेवा कार्यों में व्यस्त हो गयीं. लेकिन जलाराम बापा अंतर्द्वंद से घिर
गए. मन में विचार आया- "एक बार जब मैंने सेवा कार्य के लिए पत्नी का दान कर दिया है, तब उसे पुनः स्वीकार करने का क्या औचित्य?, वीरबाई को दोबारा पत्नी के रूप में अंगीकार करना धर्म-नीति के विरूद्ध होगा. वृद्ध महात्मा को सौपने के पश्चात अब वीरबाई पर पति बतौर मेरा कोई अधिकार नहीं रह गया है". भजन-कीर्तन की समाप्ति के बाद देर रात को जब जलाराम बापा सोने के लिए अपनी खटिया पर आये तब वे फिर सोच में डूब गए.
रोज की तरह पत्नी वीरबाई उनके निद्रा में जाने से पहले पैर दबा कर सेवा करने लगी तो जलाराम बापा ने उन्हें ऐसा करने से मना किया और सकुचाते हुए अपने पाँव सिकोड़ लिए. वीरबाई चौंकी ,फिर पूछा- "नाथ, क्या बात है.
मुझसे अप्रसन्न हो, कोई भूल हुई है क्या?" जलाराम बापा ने बात टालते हुए कहा- "नहीं ऐसी कोई बात नहीं है. आज तुम बहुत थक गई होगी. जाओ, अपनी खटिया पर सो जाओ". इतना कहकर उन्होंने प्रभु का स्मरण कर आँखें मूँद लीं. वीरबाई उनके इस व्यवहार से हैरान हुई, क्योंकि पहले ऐसा कभी न हुआ था. अधिक पूछताछ से कहीं पति की नींद में कोई बाधा न पहुंचे, यह सोच कर वीरबाई स्वयं भी अपने बिस्तर पर जाकर सो गई.
जलाराम बापा हमेशा की तरह सूर्योदय से पहले उठ गए. मन विचलित होने के बजाय प्रफ्फुलित था. मानों नींद में ही प्रभु श्रीराम ने समस्या का समाधान कर दिया हो. नित्य कर्म और पूजा पाठ से निवृत्त होने के बाद वीरबाई ने जलाराम बाप का अच्छा मूड देख कर पूछा- "नाथ, कल रात को आप कुछ गुमसुम दिख रहे थे, क्या मेरी वापसी
आपको पसंद नहीं आई". जलाराम बापा बोले- "नहीं नहीं, ऐसा क्यों सोच लिया. तुम तो साक्षात देवी हो. देवी के पधारने से भला कोई दुखी होता है क्या?" वीरबाई ने बात काटते हुए कहा- "नाथ, आप ऐसा क्यों बोल रहे हैं?, मैं  कोई देवी नहीं हूँ. मुझे अपने बारे में सब पता है. मैं मात्र आपकी सेवक पत्नी हूँ. देव तो आप हैं मेरे". जलाराम बापा
ने कहा- "तुम अपने बारे में स्वयं नहीं जानती हो. मुझे पता है तुम कौन हो". वीरबाई ने प्रश्न किया- "आज आप
ऐसी बात क्यों कह रहे हैं?" जलाराम बापा ने जवाब दिया- "ऐसा कहने के लिए मेरे प्रभु का आदेश हुआ है. वीरबाई
ने आश्चर्य से पूछा- "मैं कुछ समझी नहीं". उन्होंने बात स्पष्ट करते हुए कहा- "प्रभु ने कहा है वीरबाई का दान करने के बाद तुम्हारा उस पर अब कोई अधिकार नहीं रह गया है. अब वह तुम्हारी पत्नी न होकर मात्र साथी है. इसलिए         
अब से तुम पति सेवा नहीं करोगी". रूआंसी होकर वीरबाई ने पूछा- "नाथ, क्या इसीलिये कल रात आपने मुझे अपने पैर दबाने नहीं दिए?" जलाराम बापा ने सर हिलाते हुए कहा- "हाँ". फिर वीरबाई ने दृढ़ता के साथ कहा- "नाथ, क्षमा करें, आप भले माने आपका मेरे पर कोई अधिकार न रह गया हो, किन्तु मेरा आप पर पूरा अधिकार है और यह मरते दम तक बना रहेगा. मेरे लिए पहले और आज भी पति ही परमेश्वर हैं, यानी मेरे परमेश्वर
की सेवा करने से मुझे कोई नहीं रोक सकता, यहाँ तक स्वयं परमेश्वर भी नहीं". यह सुनने के बाद जलाराम बापा ने आगे कुछ न बोलना उचित समझा. अपने निर्णय के मुताबिक़ जलाराम बापा ने उसी क्षण से अपने पति रूप को तिलांजली दे दी. पति का अधिकार त्याग दिया. लेकिन वीरबाई ने अपना पत्नी धर्म निभाना पूर्ववत जारी रखा.( जारी .... )                    
                                             
    
     
                                  

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