बुधवार, 30 नवंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 15 )

राजा के सहयोग से धर्मशाला का निर्माण : जलाराम बापा के सेवा कार्यों से आम जनता ही नहीं बल्कि राजा महाराजा भी बेहद प्रभावित थे. वीरपुर गाँव के नामदार ठाकोर मूलराज सिंह द्वितीय उस समय गद्दी नशीन थे. जलाराम बापा के प्रति उनमें अत्यंत आदर भाव था. जलाराम बापा को वे वीरपुर का अनमोल रतन मानते थे. सदाव्रत-अन्नदान अभियान के कारण जलाराम बापा के साथ ही वीरपुर गाँव की भी प्रतिष्ठा बढ़ गई थी. इसलिए मूलराज सिंह को गर्व होना स्वाभाविक था. वे आये दिन जलाराम बापा के घर सेवा कार्य के लिए कुछ न कुछ भेंट भिजवा देते थे. बाहर से आने वाले अनुयायियों, साधुजनों, महात्माओं और भिक्षुओं की लगातार बढ़ती संख्या की जानकारी उन तक पहुँच चुकी थी. उन सबके लिए रात में विश्राम की कोई कारगर सुविधा नहीं थी, इसलिए मूलराज सिंह ने जलाराम बापा को धर्मशाला के लिए आवश्यक भूमि दान स्वरुप देने का मन बना लिया. इसके लिए जलाराम बापा की स्वीकृति जरूरी थी.
एक दिन मूलराज सिंह बगैर सूचना दिए जलाराम बापा के यहाँ पहुँच गए. उस वक़्त जरूरतमंदों को भोजन परोसा
जा रहा था.जलाराम बापा की निःस्वार्थ सेवा और लगन देखकर वे बेहद खुश हुए. जब जलाराम बापा सेवा कार्य से
निवृत्त हुए तब मूलराज सिंह ने उन्हें अपनी मंशा जाहिर की. स्वयं जलाराम बापा भी कई दिनों से सुविधा संपन्न
रहवासा रूपी एक धर्मशाला की आवश्यकता महसूस कर रहे थे. इसके लिए जमीन और धन की जरूरत थी. इन दोनों समस्याओं का निदान आज स्वतः हो गया था. जलाराम बापा तत्काल सहमत हो गए. फिर अपने वचन के अनुसार मूलराज सिंह ने जलाराम बापा को धर्मशाला बनवाने के लिए पर्याप्त जमीन और धन दान बतौर दे दिया.
वहीं दूसरी ओर गोंडल के राजा ने भी जलाराम बापा के सेवा कार्य से प्रभावित होकर धर्मशाला के लिए जमीन दान में दी. इस तरह अल्प अवधि में ही धर्मशाला का निर्माण हो गया. रात रूकने की समस्या का समाधान हो जाने से
आगंतुक अनुयायी, साधुजन, महात्मा भी गदगद हो गए. इस माकूल व्यवस्था के सन्दर्भ में जलाराम बापा लोगों से यही कहते- "प्रभु सबकी सुख सुविधा का ध्यान रखते हैं".
जलाराम बापा के निरंतर सदाव्रत-अन्नदान और उनके नाम से होने वाले चमत्कार की जानकारी ध्रांगध्रा के राजा और जूनागढ़ के नवाब तक भी पहुँची. उनको भी प्रसन्नता हुई. उन्होंने अपने राज क्षेत्र में भी सदाव्रत-अन्नदान शुरू कराने के लिए जलाराम बापा को सन्देश भिजवाया. लेकिन जलाराम बापा ने इस आग्रह को विनम्रता से ठुकरा दिया. उन्होंने जवाब भिजवाया- "मैं वीरपुर गाँव में रहकर ही सदाव्रत-अन्नदान भविष्य में भी जारी रखना चाहता हूँ, इसे अधूरा छोड़कर मैं नहीं आ सकता. आप लोग अपने स्तर पर यह सेवा कार्य स्वय करें". राजा और
नवाब जलाराम बापा की अस्वीकृति से नाराज नहीं हुए, बल्कि उनके प्रति आदर भाव अधिक बढ़ गया.
इधर, जलाराम बापा की सेवा से प्रसन्न होकर स्वयं अन्न देवता भी मानों उन पर मेहरबान थे. भोजन करने वाले अथितियों की संख्या जब बढ़ जाती थी, तब कई लोगों को आशंका होती आज निश्चित ही रसोई कम पड़ेगी. लेकिन
आश्चर्यजनक ढंग से सब लोग भर पेट खाकर पंगत से उठते. दरअसल, जलाराम बापा प्रतिदिन भोजन परोसे जाने से पहले रसोई घर में जाकर प्रभु श्रीराम की छवि के आगे दीपक जलाते, फिर भोजन सामग्री के ऊपर तुलसी के पत्ते छिड़क कर प्रभु की प्रार्थना करते. तत्पश्चात स्मित मुस्कान के साथ सेवकों से कहते- "अब आप लोग बिना चिंता किये प्रेम से खाना परोसिये, प्रभु सबका पेट भरेंगे". और वाकई ऐसा होता भी. कितनी भी भीड़ क्यों न हो, जलाराम बापा के घर कोई भी आगंतुक बिना खाए वापस नहीं जाता.अब तो लोग कहने भी लगे थे- "बापा के रसोई घर में साक्षात अन्न देवता निवास करते हैं". ( जारी .... )                                .            

सोमवार, 28 नवंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 14 )

जला सो अल्ला, वो करे सबका भला : जलाराम बापा मानव सेवा की एक प्रेरणा दायक मिसाल बन चुके थे. जात पांत और छुआछूत जैसी कुरूतियों से वे कोसो दूर थे. सर्वधर्म में उनकी आस्था थी. अपने द्वार आये दीनदुखियों और भूखेजनों की सेवा करते समय वे न तो उसकी जात पूछते थे और न ही उसका धर्म. उन्हें तो केवल अपना धर्म मालूम था, वह था मानव सेवा धर्म. इसी कारण जलाराम बापा के अनुयायी सभी धर्म के थे. कोई उन्हें भगत कहता, कोई साधु सेवक तो कोई फ़कीर मददगार के नाम से संबोधित करता. जलाराम बापा को स्मरण कर मन्नत रखने और उसके फलने का सिलसिला जारी था. प्रतिदिन कोई न कोई उपकृत श्रद्धालु मन्नत पूरी होने की खुशी में जलाराम बापा के घर भेंट लाने लगा.
वीरपुर गाँव में जमाल मियाँ नामक एक मुस्लिम रहवासी था. कई दिनों से वह दुखी था. उसका दस वर्षीय इकलौता पुत्र कोई गंभीर बीमारी के कारण बिस्तर पकड़ चुका था. उसकी तकलीफ बढ़ते ही जा रही थी. गाँव और आसपास के वैद्य तथा हकीम का इलाज भी कारगर साबित नहीं हुआ. जमाल मियाँ और उसकी बीबी हिम्मत हार चुके थे. एक दिन जमाल मियां की मुलाक़ात दरजी हीरजी से हो गयी. यह वही दरजी था, जिसका असहनीय पेट दर्द जलाराम बापा की मन्नत फलस्वरूप ठीक हो गया था. जमाल मियां को देख कर दरजी हीरजी ने पूछा- "क्या बात है जमाल मियाँ, बहुत दिनों बाद दिखाई दिए, सब खैरियत तो है ना?" जमाल मियाँ ने उदासी के साथ कहा- "हीरजी भाई, हमने न जाने कौन से करम किये हैं, अल्ला हमसे नाराज है". हीरजी ने अचंभित होकर कहा- "मियाँ खुलकर बताओगे भी". तब जमाल मियाँ के आँखों में आसूं आ गए. फिर अपने आप को सामान्य करते हुए उसने अपने बेटे की अज्ञात असाध्य बीमारी का जिक्र करते हुए कहा- "हीरजी भाई, मेरे बीमार बेटे को कोई भी इलाज नहीं फल रहा है, समझ नहीं आ रहा है क्या करू?" हीरजी ने उसे दिलासा देते हुए कहा- "मियां, एक इलाज सूझ रहा है, इसके लिए तुमको न तो किसी वैद्य के पास जाना पडेगा, न ही किसी हकीम के पास. जात धरम से हटकर केवल प्रार्थना करनी पड़ेगी, तुमको अगर भरोसा हो तो कहूं". दुखी जमाल मियाँ की आँखों में कुछ चमक लौटी. उसने अधीर होकर पूछा- "हीरजी भाई आपकी मेहरबानी होगी, फ़ौरन बताओ, मुझे सब पर पूरा एतबार है. अल्ला करे, किसी तरह मेरा बेटा जल्द तंदुरूस्त हो जाए". हीरजी ने सुझाव देते हुए कहा- "मियाँ, तुम यह जानते ही हो पिछले दिनों मैं अपने पेट के दर्द से कितना परेशान था. तुम्हारे बेटे की तरह मुझे भी कोई इलाज नहीं फल रहा था. भला हो मेरे मित्र पटेल का, जिसकी सलाह पर मैंने भक्त जलाराम को याद कर दर्द ठीक हो जाने की मन्नत रखी, जो हफ्ते भर में पूरी हो गयी. अब देखो बिलकुल स्वस्थ होकर तुम्हारे सामने हूँ. मेरी मानों, तो तुम भी भक्त जलाराम बापा को दिल से याद कर बेटे के जल्द ठीक होने की मन्नत रखो. देखना कोई चमत्कार जरूर होगा". सब तरफ से हार चुके जमाल मियाँ ने मन में सोचा- "कहीं से कोई उम्मीद की रोशनी नजर नहीं आ रही है, अब इस नुस्खे को भी आजमाने में हर्ज ही क्या है?, शायद अल्ला मेहरबान हो जाए". यह सोच कर सहमति के साथ उसने हीरजी से कहा- "हीरजी भाई शुक्रिया, आपने मेरा हौंसला बढ़ा दिया. आपका मशविरा मुझे मुफीद लग रहा है". इतना कह कर जमाल मियां उसी वक़्त जमीन पर घुटने मोड़ कर इबादत की मुद्रा में बैठ गया और मन्नत मांगते हुए कहा- "हे भगत जला, मैं अपने बीमार बेटे के जीने की उम्मीद छोड़ चुका हूँ, अगर आपकी मेहरबानी से वह तंदुरूस्त हो जाता है तो मैं आपके सदाव्रत-अन्नदान के लिए चालीस बोरी अनाज भेंट स्वरुप देने आउंगा".
फिर जमाल मियाँ ने हीरजी को धन्यवाद देकर अपने घर की राह पकड़ी. घर आकर उसने सारा किस्सा अपनी बीबी को सुनाया.उसकी भी हिम्मत अफजाई हुई. रात होने को आई. इकलौते बीमार बेटे के बिस्तर के पास मियाँ
बीबी सेवा करते बैठे थे. बेटे को दर्द से कराहते देख दोनों का कलेजा फटा जा रहा था. इनकी भी आँखों से नींद काफूर हो गयी थी. बैठे बैठे रात गुज़री. अलसुबह पांच बजते ही बीमार बेटे ने पानी माँगा. माँ ने पास रखे मटके से पानी निकाल कर बेटे को पिलाया. उसे बिस्तर पर बैठाने में जमाल मियाँ ने भी मदद की. पानी पीने के बाद बेटे को गहरी नींद आ गयी. सूर्योदय होते ही बेटे की नींद खुल गयी. उसने माँ से कहा- "मुझे भूख लगी है, कुछ खाने को दीजिये". यह सुन कर माँ की आँखों से खुशी के आंसू छलक आये. कई दिनों बाद बेटे ने खुद खाने के लिए कुछ माँगा था. माँ ने प्रसन्न भाव से हलवा बनाकर उसे खिलाया. फिर तो जैसे चमत्कार हो गया. हलवा खाने के बाद बेटा बिस्तर छोड़ कर खडा हो गया. यह अजूबा देखकर माँ और जमाल मियाँ की खुशी का ठिकाना न रहा. माँ और जमाल मियाँ ने जलाराम बापा को तहे दिल से याद कर उनका शुक्रिया अदा किया. दूसरे दिन तो बेटा पूरी तरह
स्वस्थ होकर हँसते फिरते खेलने कूदने लग गया.
उसी वक़्त जमाल मियाँ यह खुशी का पैगाम देने दौड़ कर दरजी हीरजी की दुकान जा पहुंचा. उसे अत्यंत प्रफ्फुल्लित अवस्था में देख कर हीरजी ने उत्सुकतावश पूछा- "क्या बात है जमाल मियाँ, आज बड़े खुश नजर आ रहे हो, क्या कोई छुपा खजाना मिल गया है?" उसने आकाश की तरफ देख दोनों हाथ उठा कर कहा- "हाँ, आज मैं बहुत खुश हूँ. मुझे मेरा असली खजाना यानी मेरा बेटा भगत जला की मेहरबानी से तंदुरूस्त हालत में वापस मिल गया है. या अल्ला तेरा लाख लाख शुक्रिया. जला सो अल्ला, वो करे सबका भला". हीरजी ने कहा- "जमाल मियाँ,                
भगत जला की कृपा से तुम्हारा बीमार बेटा अब बिलकुल स्वस्थ हो गया है, यह जानकार मुझे भी अत्यंत प्रसन्नता हो रही है. मैं भी उनकी कृपा का कर्जदार हूँ. भगत जला वास्तव में चमत्कारिक संत पुरूष हैं. वे अब तो सबके बापा हैं. वे वीरपुर गाँव की अनमोल धरोहर हैं". जमाल मियाँ ने भी इस धारणा का समर्थन करते हुए कहा- "हीरजी भाई, आप सौ फीसदी सच बयान कर रहे हैं. अब जला मेरे अल्ला हैं. मैं उनका यह कर्ज जिन्दगी भर नहीं चुका सकता. आपका भी शुक्रिया, अगर आपने सलाह न दी होती तो मेरा बेटा मुझसे छीन जाता. एक मेहरबानी और कर दीजिये. भगत जलाराम के घर आप मेरे साथ चलिए. मन्नत पूरी होने के एवज में मुझे चालीस बोरी अनाज सदाव्रत-अन्नदान के लिए भेंट स्वरुप देना है". हीरजी ने कहा- "यह तो मेरा सौभाग्य होगा, जलाराम बापा के दर्शन हो जायेंगे, उनके दर्शन जितनी बार करो कम है. जल्दी चलिए, नेक काम में देर नहीं होना चाहिए".
तत्पश्चात जमाल मियाँ ने बाजार से चालीस बोरी अनाज खरीद कर उसे बैल गाडी में डलवा कर हीरजी के साथ
जलाराम बापा के घर पहुँच गए. दरवाजे के पास बैल गाडी खडी करवा कर जमाल मियाँ तेज क़दमों से घर के भीतर चले गए. उनके पीछे पीछे हीरजी भी थे. जलाराम बापा प्रभु भक्ति में ध्यान मग्न होकर बैठे थे. जमाल मियाँ
उनके पैरों में गिर गए. अश्रुपूरित होकर भक्ति भाव से हाथ जोड़ कर उसने कहा- "भगत जी, आपकी मेहरबानी से
मेरे बीमार बेटे को नयी जिन्दगी मिली है, मुझे भी जीने की राह मिली है. आपका जिन्दगी भर आभारी रहूँगा. मेरी भेंट मंजूर करने की मेहरबानी भी करें". जलाराम बाप ने आशीर्वाद देते हुए कहा- "जमाल भाई, ऊपर वाला सबका
भला करता है. उस पर सदा भरोसा रखना". हीरजी ने भी जलाराम बापा के चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लिया.
जाते जाते जमाल मियाँ ने जयकारा लगाया- "जला सो अल्ला ... वो करे सबका भला". ( जारी )      
                                                    
                                 

रविवार, 27 नवंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 13 )

उधारी चुकाते समय चूहे को गवाह बनाया : दरजी हीरजी द्वारा भक्त जलाराम के नाम की रखी मन्नत फलने की खबर न केवल वीरपुर गाँव बल्कि आसपास के गाँव में भी प्रचारित हो गयी थी.अब श्रद्धालुजन उन्हें अत्याधिक आदर, श्रद्धा भाव से भक्त जलाराम बापा के नाम से संबोधित करने लगे थे. संकट के समय श्रद्धालु जनों द्वारा जलाराम बापा को याद कर उनके नाम की मन्नत रखने का सिलसिला शुरू हो गया. किसी श्रद्धालु की कोई कीमती वस्तु यदि गुम हो जाती, तो उसके द्वारा वस्तु वापस मिलने के लिए मन्नत रखी जाती.तो कई लोग छोटी बड़ी तकलीफ दूर होने की मन्नत रखने लगे. कुछ बीमार जन अपने असाध्य रोग के खात्मे की मन्नत रखने लगे.और तो और निःसंतान दंपती भी संतान प्राप्ति के लिए मन्नत रखने लगे. प्रभु के चमत्कार स्वरुप जलाराम बापा को याद कर श्रद्धालुओं द्वारा रखी जाने वाली सभी प्रकार की मन्नतें फलने लगी. मन्नत पूरी होने के फलस्वरूप सम्बंधित श्रद्धालु जन जलाराम बापा के सदाव्रत-अन्नदान अभियान के लिए भेंट बतौर अनाज अथवा नकद राशि प्रदान करने लगे. धीरे धीरे जलाराम बापा के अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी.
उधर, जलाराम बापा अपने अनुयायियों और श्रद्धालुओं द्वारा रखी जाने वाली तमाम मन्नतों से अनभिज्ञ रहते. उनके यहाँ जब वे लोग भेंट देने आते तब उन्हें सारी बातें पता लगती. मन्नत पूरी होने का आभार और धन्यवाद स्वीकार करने में वे सकुचाते थे. उन सभी को वे यही कहते-"मन्नत पूरी हो जाने के लिए आप लोग मुझे नहीं, बल्कि प्रभु श्रीराम को धन्यवाद दीजिये और उन्हीं का आभार मानिए. मैं तो एक तुच्छ सेवक भक्त हूँ".
अब सदाव्रत-अन्नदान के दौरान बेहद भीड़ होने लगी थी. जलाराम बापा इस विकट स्थिति से कतई विचलित न थे. उन्होंने सब कुछ प्रभु की मर्जी पर छोड़ दिया था. उन्हें पूरा विश्वाश था अगर कोई रूकावट आयेगी भी तो प्रभु श्रीराम क्षण भर में उसे स्वयं दूर कर देंगे.
बढ़ती भीड़ को ध्यान में रखते हुए जलाराम बापा ने अपने सिद्धांतों को थोड़ा लचीला बना दिया था. पहले वे सदाव्रत-अन्नदान के लिए किसी से नकद या बाजार से अनाज उधार में लेने के पक्षधर नहीं थे.लेकिन दुखियों और भूखेजनों की खातिर उन्हें समझौता करना पडा. इस दौरान बाजार में उनकी साख बढ़ चुकी थी, इसलिए कोई दिक्कत भी नहीं हुई. धन की जरूरत होने पर वे गाँव के साहूकार से रकम उधार में ले आते, या बाजार में पंसारी से उधार में अनाज ले आते. फिर जब किसी श्रद्धालु की मन्नत फलती तब उसके द्वारा दी गयी भेंट की रकम से वे पुराना उधार चुकता कर देते. किन्तु एक दिन अप्रत्याशित रूप से जलाराम बापा के लिए अपमान जनक स्थिति निर्मित हो गयी. वीरपुर गाँव के एक खोजा दुकानदार परभू रवजी की उधारी का चुकारा बहुत दिनों से हुआ नहीं था.
जलाराम बापा द्वारा उधार में लाये जाने वाले अनाज की बकाया रकम बढ़ते ही जा रही थी. न जाने क्यों एकाएक उस खोजा दुकानदार के मन में जलाराम बापा के प्रति अविश्वाश की भावना जागृत हो गयी. उसने मन ही मन सोचा- "ऐसे भगत का क्या भरोसा, अगर कल यह अपना बोरिया बिस्तर लपेट कर, झोला झंडा उठाकर गाँव से
रफूचक्कर हो गया तो मैं लुट जाउंगा". फिर वह अपना धैर्य और आपा खोते हुए तुरंत जलाराम बापा के घर पहुँच गया. उस वक़्त आँगन में साधुजनों की एक मंडली भोजन के उपरान्त विश्राम कर रही थी.जबकि जलाराम बापा
सबसे निवृत्त होकर घर के भीतर भोजन ग्रहण कर रहे थे. साधुओं को देखते ही खोजा दुकानदार परभू रवजी ने तैश
में आकर पूछा- "कहाँ हैं तुम्हारा भगत जला?, बुलाओ उसको. न जाने कब उधारी चुकाएगा?". साधुजनों को कुछ समझ में न आया. विस्मय से वे एक दूसरे का मुंह ताकने लगे. जवाब मिलता न देख परभू रवजी तमतमाते हुए
हुए सीधे घर के अन्दर चला आया. जलाराम बापा को भोजन करता देख उसने आवेश में कहा- "रूक जाओ भगत.
खबरदार, तुमने एक कौर भी मुंह में डाला. पहले मेरा उधार चुकता करो, तुमको कसम है राम की. उधार ले लेते हो,
चुकाने की चिंता नहीं". यह कटुवचन सुनकर जलाराम बापा श्रीराम... श्रीराम ... बोलते हुए खाना अधूरा छोड़कर खड़े हो गए. पत्नी वीरबाई भी यह अपमानजनक स्थिति देख कर भौचक्की रह गयी. तब तक वहां साधुजन और अनुयायी भी पहुँच गए. परभू रवजी के व्यवहार से सभी दुखी और अचंभित थे. क्षण भर बाद जलाराम बापा हाथ
धोकर आये. उन्होंने शांत चित्त होकर पूछा- "सेठ जी, गुस्सा मत करें. आपके उधार को चुकाने जितनी रकम इस समय मेरे पास नहीं है. प्रबंध होते ही शीघ्र चुका दूंगा". उस खोजा दुकानदार का क्रोध फिर भी शांत न हुआ. उसने
क्रोधित होकर कहा- "गुस्सा नहीं करू तो क्या तुम्हारी आरती उतारूं? जब उधार चुकता करने की ताकत नहीं है तो
अनाज उधार में लिए क्यों? अब ले लिए हो तो देने का नाम नहीं ले रहे हो. ऐसे उधार का सदाव्रत चलाने का क्या मतलब?".जलाराम बापा ने उसे भरोसा दिलाते हुए कहा- "सेठ जी, जब इतने दिन कृपा की तो कुछ दिन और कर
दीजिये. विश्वाश रखिये शीघ्र ही आपकी पाई पाई चुका दूंगा". परभू रवजी ने अपनी बात पर अडिग रहते हुए कहा- "
कैसी कृपा? मैं तो धंधा करने बैठा हूँ, सेवा करने नहीं. अब मैं अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकता. मुझे आज ही अपनी रकम चाहिए, शाम तक दुकान में दे जाना".फिर वह अपनी कमीज का कालर पीछे की तरफ करते हुए रौब से उलटे पाँव लौट गया.
जलाराम बापा चिंतित हो गए. थोड़ी देर बाद कुछ विचार आते ही उन्होंने पत्नी वीरबाई से कहा- "मैं कहीं से रकम का प्रबंध कर सेठ जी को दे आता हूँ". फिर सर पर पगड़ी बाँध कर वे बाजार की ओर चल पड़े. आज का दिन शायद
उनके लिए प्रतिकूल था. बाजार में जब उन्होंने अपने जान पहचान के कुछ व्यापारियों से रकम उधार माँगी तो सबने ना नुकूर करते हुए हाँथ खड़े कर दिए. चालाकी भरे शब्दों में उन्होंने कहा- "आप पांच मिनट देर से आये, बाजू के गाँव का थोक व्यापारी अपना बकाया लेकर गया है. अन्यथा, मैं आपको निराश नहीं करता". जलाराम बापा सोच में डूब गए. पत्नी वीरबाई के पास अब कोई गहने भी नहीं बचे थे,जिसे बेच कर उधारी चुकता हो.फिर
एकाएक उन्हें वीरपुर के राजा की याद आई. वे तेजी से राजा की हवेली की तरफ चल पड़े.
भरी दोपहरी का समय था. लू चल रही थी. ऐसे वक़्त पसीने से तरबतर भक्त जलाराम को आया देख हवेली के पहरेदार ने प्रणाम करते हुए पूछा- "भगत, राम राम.आपने यहाँ आने की कैसे तकलीफ की?" जलाराम बापा ने कहा- "दरबान भाई, मुझे राजा साहेब से मिलना है, उन तक मेरा सन्देश पहुंचा दीजिये".यह जान कर पहरेदार
अन्दर गया और राजा का अभिवादन करते हुए उनको सन्देश दिया- "महाराजश्री, आपसे मिलने भगत जलाराम आये हैं". सुनकर राजा चौंक उठे. वे बोले- "क्या ...भगत जलाराम आये हैं, अवश्य कोई गंभीर बात होगी".इतना
कहकर वे स्वयं जलाराम बापा का स्वागत करने दौड़ पड़े.जलाराम बापा की प्रसिद्धि राजा तक पहुँच चुकी थी. उनके
प्रत्येक सेवा कार्यों की जानकारी थी. वे स्वयं इस बीच जलाराम बापा से मिलने की सोच रहे थे. लेकिन आज खुद
जलाराम बापा के पधारने से वे प्रसन्न हो गए. हवेली के द्वार पर आकर राजा ने जलाराम बापा को प्रणाम किया. उनका स्वागत करते हुए राजा ने कहा- "भक्तराज, पधारिये.आज आपके आगमन से यह हवेली पवित्र हो गयी. हमारा सौभाग्य है जो आज आपके दर्शन हुए". जलाराम बापा ने हाथ जोड़ कर विनम्रता से कहा- "राजा साहेब, आप से कुछ सहायता चाहिए". राजा ने आथित्य भाव से कहा- "आप जो काम कहेंगे, वह तत्काल पूरा होगा, किन्तु सबसे पहले आप अन्दर चलिए, स्वल्पाहार लीजिये, फिर आराम से सब बताइयेगा". जलाराम बापा ने कहा- "राजा साहेब, क्षमा करें, आज यह सब संभव नहीं है, जब तक मैं खोजा दुकानदार परभू रवजी का उधार चुकता नहीं कर दूंगा तब तक अन्न का एक दाना भी ग्रहण नहीं करूंगा, क्योंकि उसने मुझे प्रभु श्रीराम की कसम दी है". यह सुनकर राजा को उस दुकानदार के प्रति बेहद क्रोध आया, उसे दण्डित करने का मन हुआ , लेकिन भक्तराज इससे सहमत न थे.फिर राजा ने जलाराम बापा से पूछा- "उसे कितनी रकम देनी है?" जलाराम बापा ने मासूमियत से कहा- "यह तो ज्ञात नहीं, ऐसा करिए आप मुझे डेढ़ सौ सिक्के दे दीजिये, मुझे लगता है इससे अधिक उनका बकाया नहीं होगा".राजा ने तुरंत वहीं खजांची को बुलाया.जलाराम बापा को डेढ़ सौ सिक्के देते हुए उन्होंने कहा- "भक्तराज, इसे सहायता नहीं समझना और न ही लौटाना, इसे सदाव्रत के लिए मेरी तरफ से भेंट मानना". जलाराम बापा ने राजा का आभार जताते हुए कहा- "जो आज्ञा राजा साहेब, प्रभु आपका कल्याण करें". इतना कहकर जलाराम बापा ने विदाई ली.
तेजी से कदम बढाते हुए जलाराम बापा परभू रवजी की दुकान पहुंचे. उन्हें शाम ढलने से पहले ही आया देख वह खोजा दुकानदार चौंका.जलाराम बापा ने आते ही उससे कहा- "लीजिये सेठ जी आपके सिक्के, ठीक से गिन लीजिये, बाकी जो बचे, लौटा दीजिये". परभू रवजी हतप्रभ रह गया. उसने कुटिलता पूर्वक कहा- "भगत, सवा सौ सिक्के निकलते हैं. वैसे देने की इतनी भी क्या जल्दी थी".जलाराम बापा ने कहा- " ठीक है, विलम्ब से बकाया चुकाने के लिए मैं क्षमा चाहता हूँ". परभू रवजी ने उन्हें तंग करना नहीं छोड़ा. उसने कहा- "भगत, उधारी चुका रहे हो यह तो अच्छी बात है, किन्तु  इसका गवाह भी तो कोई होना चाहिए. किसी को मैं यह कहने का अवसर नहीं देना चाहता मैंने भगत से अधिक सिक्के लिए हैं". जलाराम बापा ने असहमत होकर कहा- "मुझे किसी गवाह की आवश्यकता नहीं है, मेरा साक्षी तो प्रभु है".परभू रवजी ने टोकते हुए कहा- "ऐसे कैसे चलेगा, कोई गवाह होना चाहिए". इसी दौरान जलाराम बापा को उसकी दुकान में एक चूहा दिखा. उन्होंने तपाक से कहा- "सेठ जी, अब मुझे किसी को बुलाने की आवश्यकता नहीं है, यह चूहा ही आपके और मेरे बीच लेनदेन का गवाह है, क्योंकि यह गणेश भगवान् का वाहन है". उस खोजा दुकानदार ने ठंडी सांस लेकर कहा- "ठीक है, जैसी आपकी इच्छा". इतना कहने के बाद उसने पच्चीस सिक्के जलाराम बापा को लौटा दिए. फिर जलाराम बापा अपने घर की ओर रवाना हो गए.
घर में पत्नी वीरबाई सहित कुछ अनुयायी जलाराम बापा की आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे थे. उन्हें हर्षित भाव से आया देख सभी प्रसन्न हो गए. जलाराम बापा ने हाथ पैर धोकर पत्नी से भोजन परोसने कहा. जलाराम बापा ने कहा- "प्रभु ने आज मेरी लाज रख ली. अब मैं चैन से दो रोटी खा सकता हूँ". उन्होंने फिर इत्मीनान से भोजन किया.
यह सच ही कहा गया है प्रभु भक्त को अनावश्यक परेशान करने वाला खुद भी किसी न किसी रूप से परेशान होता है. ऊपर वाले की लाठी पड़ती ही है. जलाराम बापा को नाहक तंग करने वाले उस खोजा दुकानदार परभू रवजी को
भी ऊपर वाले ने सबक सिखाया. दरअसल हुआ यूं, रात को परभू रवजी दुकान बंद करने से पहले दीपक जलाकर घर पहुंचा था.अभी वह भोजन करने बैठा ही था, बाजार का एक दुकानदार हाँफते हुए आया और सूचना देते हुए कहा-  "जल्दी चलो, आपकी दुकान में आग लग गयी है'. परभू हीरजी हडबडा कर खडा हुआ. खाने की थाली छोड़ कर दौड़ पडा अपनी दूकान की तरफ.यह भी एक अजीब संयोग रहा. जलाराम बापा को भी इसने इसी तरह भोजन छोड़ने को विवश कर दिया था. पसीने से लथपथ परभू रवजी जब अपनी दुकान के नजदीक पहुंचा तो देखा आग भड़की हुई थी. आसपास के कुछ लोग बाल्टी में पानी भरकर, तो कुछ लोग रेती फेंक कर आग बुझाने का प्रयास कर रहे थे. परभू रवजी रूआंसा हो गया. उसे आत्मग्लानि हुई. सहयोगियों से उसने रोते हुए कहा- "भाइयों, आप लोग आग बुझाने का प्रयत्न मत करिए, यह मेरी करतूतों का परिणाम है. मैंने भगत जलाराम का मन दुखाया है, मुझे सजा मिलनी ही थी". उसके प्रायश्चित करते ही भड़की आग एकाएक बुझ गयी. परभू रवजी ने देखा दुकान के बीचोबीच दीपक की जलती हुई बाती रखी थी, शायद उसी गवाह चूहे ने इसे अंजाम दिया था. दुकान का आधा अनाज जल चुका था, जबकि आधा अनाज पूरी तरह आश्चर्यजनक तरीके से सुरक्षित था. यह नजारा देख कर परभू रवजी और आसपास के लोग दंग रह गए.उधर जलाराम बापा के आँगन में भजन कीर्तन चरमोत्कर्ष पर था. ( जारी ... )          
                          
                
                                          
                              
                 

शनिवार, 26 नवंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 12 )

जलाराम के नाम की पहली मन्नत दरजी हरजी ने रखी, जो पूरी हुई : भक्त जलाराम द्वारा प्रारम्भ किये गए मानव सेवा के महायज्ञ में प्रतिदिन श्रद्धालुओं के सहयोग की आहुतियाँ भी फलीभूत हो रही थीं. भक्त जलाराम और उनकी पत्नी वीरबाई की सर्वहारा जन सेवा का प्रसाद पाकर उपकृत लोग स्वयं को धन्य मान रहे थे. उनके श्रेष्ठ कार्यों के पुष्पों की सुगंध चहुँ ओर फ़ैल गयी थी. उनके प्रति आदर और श्रद्धा भाव बढ़ना स्वाभाविक था. भक्त जलाराम प्रभु भक्ति के बीस वसंत अब तक देख चुके थे. युवा अवस्था के इस पड़ाव में आम तौर पर अधिकतर युवक जवानी के नशे में चूर रहते हैं, ऐसे संवेदनशील समय में युवा जलाराम प्रभु भक्ति के परम आनंद में मस्त रहते थे. यह देख कर गाँव के अन्य युवकों और वृद्धों को भी सुखद आश्चर्य होता था. उनके लिए ताजुब्ब का विषय था युवा जलाराम आखिर कैसे संसार की मोह-माया से बेहद परे हैं. काम वासना, क्रोध, लोभ जैसी बुराइयों से कैसे दूर हैं. लेकिन भगवान में भरोसा रखने वाले श्रद्धालुओं को इसमें कोई आश्चर्य नहीं होता था. इसमें भी उन्हें भगवान् की कोई लीला नजर आती थीं.
उस समय वीरपुर जैसे छोटे गाँव में चिकित्सा के अच्छे संसाधन उपलब्ध नहीं थे. बीमार जनों को ज्यादातर परम्परागत घरेलू  उपचार का सहारा लेने विवश होना पड़ता था. वैद्य और हकीम इक्का दुक्का ही थे. प्राथमिक दवाखाना गाँव से दूर था. वीरपुर गाँव का एक दरजी, जिसका नाम हीरजी था, इसी समस्या का शिकार था. लगभग चार माह से वह पेट दर्द से पीड़ित था. वह सभी तरह के उपचार आजमा चुका था. किन्तु पेट दर्द ख़त्म होने
के बजाय बढ़ता ही जा रहा था. दर्द के मारे उसका बुरा हाल हो गया था. दर्द सहने की शक्ति जवाब दे रही थी. इसके कारण उसका सिलाई का कामकाज भी ठप हो गया था. एक दिन उस दरजी का शुभचिंतक मित्र पटेल घर आया. उसे देख कर हीरजी ने पूछा- " आइये मोटा भाई, बैठिये. कैसे आना हुआ?" मित्र पटेल ने उत्तर दिया- "तुम्हारा हालचाल जानने आया हूँ. अब कैसी तबियत है. अभी जो दवा ले रहे हो, वह असर कर रही है या नहीं?". हीरजी ने कराहते हुए कहा- "अरे मोटा भाई मत पूछो, दर्द के मारे हालत खराब है. लगता है यह दुश्मन पेट दर्द मेरी जान लेकर ही रहेगा".पटेल को अपने बीमार मित्र का दर्द देखा नहीं गया. उसने दिलासा देते हुए सुझाव दिया- "हीरजी, हिम्मत मत हारो. सुनो, तुमने सब प्रकार की दवा खाकर देख लिया है फिर भी तुम्हारा पेट दर्द दूर नहीं हो रहा है. मेरी एक सलाह मानोगे तो कहूं?" हीरजी ने उतावलेपन से हांमी भरीऔर कहा- "अरे मोटा भाई, आप जो कहोगे, मैं मानने को तैयार हूँ. बस, किसी भी तरह यह नासुकड़ा पेट दर्द ठीक हो जाए. तंग आ गया हूँ इससे. जब दर्द बर्दाश्त नहीं होता तो ऐसा मन करता है इस पेट को चीर दूं". मित्र पटेल ने स्नेहपूर्वक हीरजी की पीठ सहलाते हुए कहा- "अरे अरे, ऐसा कभी मत करना. इस तरह अगर हिम्मत हारोगे तो कैसे बात बनेगी". फिर उसने दार्शनिक अंदाज में कहा- "अपना यह शरीर तो भगवान् की भेंट स्वरुप है. इसलिए भगवान पर भरोसा रखो. सुनो, बीमारी में जब दवा काम न आये तो दुआ का सहारा लेना चाहिए. मन में श्रद्धा हो तो भले मानुष की दुआ भी दवा बन जाती है". हीरजी ने बीच में ही टोकते हुए कहा- "मोटा भाई, जल्दी उस भले मानुष का नाम बताओं जिसकी दुआ से मेरा यह दर्द बंद हो जाएगा".मित्र पटेल ने आत्मविभोर होकर जवाब दिया- "अरे नासमझ, उस देव तुल्य पुरूष को कौन नहीं जानता? जो स्वयं भूखे रहकर दुखियों और संत महात्माओं का पेट भरता हो, उसे और क्या कहेंगे? प्रभु के इस सच्चे भक्त का नाम है जलाराम. यह हमारा सौभाग्य है वे अपने गाँव वीरपुर में जन्म लिए हैं. वे सही मायने में भगवान के अंश हैं. तुम केवल उनको सच्चे मन से याद कर जल्दी ठीक होने की मन्नत मांगों. देखना, मुझे विश्वास है कोई न कोई अवश्य चमत्कार होगा. सारा गाँव भी इसे देखेगा". पेट के असहनीय दर्द से पीड़ित दरजी हीरजी ने सोचा-"सब कुछ करके देख लिया है. चलो अब यह भी आजमाने में क्या हर्ज है? फिर मित्र पटेल की सलाह से सहमत होते हुए उसने कहा- "ठीक है मोटा भाई, आपने जैसा कहा है वैसा ही करता हूँ. सलाह देने के लिए धन्यवाद". इतना कहकर दरजी हीरजी ने श्रद्धा भाव से दोनों हाथ जोड़ कर भक्त जलाराम का स्मरण करते हुए मन्नत माँगी- "हे भक्त जलाराम, आपकी कृपा से यदि मेरा पेट दर्द दूर हो जाएगा तो मैं आपके सदाव्रत-अन्नदान
के लिए पांच बोरी अनाज भेंट करूंगा".मित्र पटेल को आत्मिक संतोष की अनुभूति और प्रसन्नता हुई. उसने जाते
वक़्त कहा- "हीरजी, देखना अब तुम जल्दी ठीक हो जाओगे".
दरजी हीरजी का मन्नत युक्त निवेदन मानों प्रभु तक पहुँच गया हो, उसी रात से उसके पेट का दर्द कम होना शुरू हो गया. हफ्ते भर में तो वह पूरी तरह स्वस्थ हो गया, जैसे कभी उसे पेट दर्द हुआ ही न हो. वह बेहद प्रसन्न हुआ. उसने श्रद्धाभाव से भक्त जलाराम का पुनः स्मरण कर हाथ जोड़ते हुए आभार जताया. फिर हर्षोल्लास के साथ वह
मित्र पटेल को स्वस्थ होने की खुशखबरी सुनाने दौड़ पडा. हीरजी को अपनी तरफ खुशी से दौड़ कर आता देख मित्र पटेल को यह समझते देर नहीं लगी जलाराम के नाम की उसकी मन्नत फल गई है. हीरजी ने आते ही चहक कर कहा- "मोटा भाई, चमत्कार हो गया. देखो भक्त जलाराम की कृपा से मैं बिलकुल ठीक हो गया हूँ. मेरा पेट दर्द छूमंतर हो गया है. ऐसा लग रहा है जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो". मित्र पटेल ने भी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए श्रद्धाभाव से हाथ जोड़ कर कहा- " हे भक्त जलाराम, मेरे मित्र को स्वस्थ करने के लिए आपका लाख लाख धन्यवाद". उसने फिर हीरजी से कहा- "मेरा अनुमान सौ टका सत्य निकला. सच्चे मन से प्रभु तो क्या उसके  असली भक्त को भी याद करो तो सारे दुःख दर्द स्वयं मिट जाते हैं. हीरजी तुम पहले ऐसे सौभाग्यशाली श्रद्धालु हो, जिसने भक्त जलाराम के नाम की मन्नत माँगी और वह पूरी भी हुई". दरजी हीरजी ने प्रसन्नचित्त होकर कहा- "मोटा भाई, मैं तो जीवन भर भक्त जलाराम का एहसानमंद रहूँगा. आपका भी आभारी हूँ, आपकी सलाह से यह संभव हुआ. अब मैं मन्नत पूरी होने के एवज में भक्त जलाराम को सदाव्रत-अन्नदान के लिए पांच बोरी अनाज भेंट स्वरुप दे आता हूँ. आप भी मेरे साथ चलेंगे तो मेहरबानी होगी". मित्र पटेल ने स्वीकृति देते हुए कहा- "अवश्य चलूँगा, इस पुण्य कार्य के लिए साथ जाना मेरा सौभाग्य होगा. भक्त जलाराम के दर्शन भी हो जायेंगे". फिर दोनों चल पड़े.
बाजार से दरजी हीरजी ने पांच बोरी अनाज खरीदा और उसे लेकर पहुँच गए भक्त जलाराम के घर. उनके साथ मित्र पटेल भी थे. उस समय भक्त जलाराम साधुजनों के साथ सत्संग में व्यस्त थे. भक्त जलाराम के पास पहुँचते ही बिना कुछ बोले दरजी हीरजी उनके पैरों में गिरकर अपना सर रख दिया.आँखों से अश्रु की धार बह रही थी. भक्त जलाराम ने उसके सर पर स्नेहपूर्वक हाथ फेरते हुए कहा- "हीरजी काका, उठिए, आप यह क्या कर रहे हैं. आप मेरे पिताश्री के बराबर हैं.आपका स्थान मेरे चरणों में नहीं, ह्रदय में है". हीरजी ने रूंधे गले से कहा- "नहीं, मेरा सही स्थान आपके चरणों में ही है.आप मेरे बापा हो. मेरे पूजनीय जलाराम बापा हो. आज आपकी कृपा के कारण ही मैं                    
भला चंगा हूँ. आपको याद कर मन्नत मांगते ही एक हफ्ते में मेरा पेट दर्द दूर हो गया. दवा करके मैं थक गया था. आपका मैं जीवन भर आभारी रहूँगा. कृपया मन्नत के एवज का यह पांच बोरी अनाज सदाव्रत-अन्नदान के उपयोग के लिए  भेंट स्वरुप स्वीकार करें".भक्त जलाराम ने दरजी हीरजी के आग्रह को सहर्ष स्वीकार कर लिया. उन्होंने धन्वाद देते हुए कहा- "हीरजी काका, यह सब प्रभु श्रीराम की महिमा है.यह चमत्कार उन्हीं का है.मैं तो केवल उनका दास, भक्त हूँ. आपके द्वारा भेंट किये गए अनाज से भूखेजनों का पेट भरेगा, प्रभु श्रीराम आपका आगे भी कल्याण करेंगे".इसके बाद दरजी हीरजी और उनके मित्र पटेल पुनः भक्त जलाराम के चरण स्पर्श कर विदा हुए. इस तरह भक्त जलाराम के नाम की सर्वप्रथम मन्नत रखने वाले सफल श्रद्धालु के रूप में दरजी हीरजी भी प्रसिद्ध हुए. ( जारी ..... )                                            
                       
                              
        

शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 11 )

सदाव्रत-अन्नदान जारी रखने के लिए पत्नी के गहने बेचे : जलाराम द्वारा शुरू किये गए सदाव्रत-अन्नदान की प्रसिद्धि वीरपुर गाँव के अतिरिक्त दूर दराज के गाँव में भी फ़ैल चुकी थी. इसके कारण जलाराम के यहाँ साधुजनों, महात्माओं, गुजरने वाले तीर्थ यात्रियों और भिक्षुकों की आमद लगातार बढ़ते जा रही थी. वीरपुर गाँव के किसान नेता काना रैयानी के प्रचार स्वरुप यद्दपि किसान साथी नियमित तौर पर जलाराम के घर सदाव्रत-अन्नदान के लिए अपने अपने हिस्से का अनाज पहुंचा रहे थे. इसके बावजूद जलाराम के घर आगंतुकों की बढ़ती संख्या के फलीभूत अनाज कम पड़ने लगा. कोई अथिति अगर भोजन काल के अंतिम समय पंगत में बैठ गया और रसोई घर में केवल पति पत्नी के जितना खाना बचा हो ,तो ऐसी प्रतिकूल स्थिति में भी बिना विचलित हुए जलाराम और वीर बाई खुद भूखे रह कर उस अथिति को अपने भाग का भोजन परोस देते थे.
एक दिन ऐसा भी आ गया, जिसकी आशंका पति पत्नी को थी. जलाराम के घर अन्न भंडार में अनाज का एक दाना भी नहीं बचा. यह अभावग्रस्त स्थिति देख कर पतिव्रता वीरबाई घबराई और दुखी भी हुई. उसकी आँखों से आंसू छलक गए. इस समस्या के निदान हेतु वह सोच में डूब गई. फिर एकाएक मन में कुछ विचार आते ही उसकी आँखों में चमक लौट आयी. क्षण भर बाद पत्नी वीरबाई ने अपनी पेटी में से कुछ निकाला और उसे एक पोटली में बाँध दिया. फिर जलाराम के पास जाकर पहले उनके चरण स्पर्श किये, तत्पश्चात उनके चरणों में वह पोटली रख दी.
जलाराम चौंके. उन्होंने आश्चर्यभाव से पूछा- "अरे, इस पोटली में क्या है?" वीरबाई ने हाथ जोड़कर जवाब दिया- "नाथ, इसमे मेरे मायके द्वारा दिए गए थोड़े स्वर्ण आभूषण हैं. आप इसे ले लीजिये. इसका सही उपयोग हो जाएगा".
जलाराम ने पीछे हटते हुए कहा- "अरे नहीं नहीं, यह कैसी बात कर रही हो. मैं इसे लेकर क्या करूंगा?. स्वर्ण आभूषणों के प्रति मेरा कोई आकर्षण और आसक्ति नहीं है. प्रभु भक्ति ही मेरे लिए आभूषण स्वरुप हैं". वीरबाई ने अपनी बात का खुलासा करते हुए कहा- "नाथ, इन स्वर्ण आभूषणों से मुझे भी कोई मोह नहीं है. चूंकि मायके से उपहार स्वरुप यह मिले हैं, आड़े समय काम आयेंगे, यह सोचकर मैंने इसे सम्हाल कर रखे हैं. आज वह सुअवसर आ गया है, अब इसका पुण्य कार्य में सदुपयोग हो सकेगा". जलाराम ने जिज्ञासावश पूछा- "कैसा सुअवसर? मैं समझा नहीं".वीरबाई ने बात स्पष्ट करते हुए आगे कहा- "नाथ, अन्न भण्डार में सदाव्रत के लिए अनाज का एक दाना भी नहीं बचा है,अब यदि कोई भूखा अतिथि घर आ गया तो उसे क्या खिलाएंगे?, इसलिए मेरा निवेदन है आप यह स्वर्ण आभूषण सोनार को बेच कर पंसारी से आवश्यकता अनुसार अनाज खरीद कर ले आइये". यह सुनकर जलाराम थोड़ी देर सोच में डूब गए. साधुओं, महात्माओं, दीनदुखियों और भूखेजनों में उन्हें अपने प्रभु श्रीराम नजर आते थे. उनके लिए शुरू किये गए सदाव्रत-अन्नदान की खातिर वे अपनी जान भी देने को तैयार थे, इसके सामने पत्नी वीरबाई के स्वर्ण आभूषण तो तुच्छ वस्तु थी. फिर जलाराम ने सहर्ष वह पोटली उठाते हुए वीरबाई से कहा- "जैसी प्रभु की इच्छा. तूने मेरी लाज रख ली. मैं धन्य हो गया".इतना कहकर जलाराम वह पोटली लेकर सोनार की दुकान जाने लगे.
ठीक उसी समय साधुओं की एक मंडली घर आते दिखी. उनके आँगन में आते ही जलाराम ने कहा- "बाबा जी, आप लोग यहाँ थोड़ी देर विश्राम कीजिये, मैं बाजार से सामान लेकर आता हूँ, फिर आप लोग भोजन ग्रहण कीजिएगा". मंडली के एक बुजुर्ग साधुजन ने खुश होते हुए कहा- "ठीक है बच्चा, शीघ्र आवों. हमें बहूत दूर जाना है". जलाराम ने जाते जाते वीरबाई से कहा- "सुनो, पहले बाबा जी लोगों को ठंडा पानी पिलाओं, फिर इनके विश्राम का प्रबंध करो".
इतना कहकर जलाराम तेजी से सोनार की दुकान की तरफ चल पड़े.
जलाराम प्रभु श्रीराम का नाम जपते हुए सोनार की दुकान पहुंचे. किसी वस्तु का मोलभाव करना उन्हें आता न था.
इसलिए सोनार से बिना कोई भूमिका के दो टूक कहा- "सेठ जी, इसका जो मूल्य होता हो, दे दीजिये".गाँव के स्वर्णकार जलाराम की लोकप्रियता से अनभिज्ञ न थे. फलस्वरूप उस सोनार ने आदर से कहा- "भगत, बैठ कर थोड़ी सांस ले लो, इतनी जल्दी क्या है?". जलाराम ने जवाब दिया- "सेठ जी, घर में मेहमान आये हुए है, वे भूखे बैठे होंगे, इसके बदले जो भी धन होता हो, कृपया शीघ्र दे दीजिये". सोनार ने जलाराम की जल्दबाजी देख कर वह  पोटली खोली. फिर उसने जलाराम से हाथ जोड़ कर कहा- "भगत, यह तो आपकी पत्नी के गहने लगते हैं. इन गहनों को खरीदकर मैं पाप का भागीदार नहीं बनना चाहता. आपको धन की आवश्यकता हो तो मुझसे ऐसे ही ले जाओ".जलाराम ने दृढ़ता से कहा- "नहीं,आभूषणों को रखे बगैर धन मैं नहीं ले सकता. उधार लेने की भी मेरी आदत नहीं है. कृपया आप मेरी विनती स्वीकार कीजिये. मेहमान मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे". अब सोनार आगे कुछ बोलने की स्थिति में न था.वह निरूत्तर सा हो गया. वह मन ही मन बुदबुदाया-"यह तो इश्वर का सच्चा भक्त है, घर के गहने बेच कर भूखे लोगों का पेट भर रहा है, वाह रे प्रभु की लीला". जलाराम दृढ प्रतिज्ञ भक्त हैं, वे मानेंगे नहीं, सोनार यह समझ गया. उसने चुपचाप जलाराम को उन स्वर्ण आभूषणों के वास्तविक मूल्य में कोई कटौती किये बिना पूरा धन देकर आदर से विदा किया.जलाराम ने भी नम्रता से सोनार का आभार जताया.
इसके बाद जलाराम बिना देर किये सीधे पंसारी की दुकान पहुंचे. जल्दी से जरूरत का सामान खरीदा और उसे कंधे पर रख कर घर की तरफ चल पड़े. उधर,पत्नी वीरबाई व्याकुल होकर पति जलाराम की राह देख रहीं थीं.जैसे ही जलाराम ने घर में दस्तक दी, वीरबाई उन्हें देख कर प्रसन्न हो गयीं.जलाराम से सामान लेकर उसे अन्न भंडार में रखा. फिर रसोई बनाने में जुट गयीं. देर न हो, इसलिए खुद जलाराम भी रसोई में पत्नी की मदद करने लगे. संकोच करते हुए वीरबाई ने कहा- "नाथ, यह आप क्या कर रहे हैं?, मैं खाना जल्दी बना लूंगी, आप चिंता न करें". जलाराम ने मुस्कुराते हुए कहा- "कभी तो मुझे भी सेवा का अवसर दिया करो, अकेले कितना काम करोगी? और फिर अथिति भी तो बेचारे भूखे बैठे हैं, उन्हें शीघ्र भोजन भी तो कराना है".कुछ देर बाद रसोई तैयार हो गयी. तत्काल जलाराम ने ससम्मान साधुजनों को पंगत में बैठा कर प्रेम से भोजन कराया. भोजन कराने के बाद साधुजनों से जलाराम ने हाथ जोड़ कर कहा- "बाबा जी, भोजन के लिए आपको अधिक प्रतीक्षा करनी पडी, इसके लिए मैं क्षमा चाहता हूँ". बुजुर्ग साधुजन ने खुश होकर कहा- "बच्चा, क्षमा की बात क्यों करता है?, हम लोग तो तेरी सेवा से प्रसन्न हैं. कल्याण हो तेरा बच्चा". आशीर्वाद देते हुए साधुजन विदा हुए. ( जारी .... )                                                             
                                                

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 10 )

हनुमान जी की प्रतिमा घर में स्वयं प्रकट होने पर मंदिर बनवाया : सदाव्रत-अन्नदान के पुण्य कार्य के लिए किसानों द्वारा अनाज उपलब्ध कराये जाने के बाद जलाराम ने उनके आग्रह का सम्मान करते हुए खेत जाना बंद कर दिया.अब सपत्निक उन्हें खेत में मजदूरी करने से छुटकारा मिल गया था. प्रभु भक्ति और सेवा कार्य के लिए अब उन्हें अधिक वक़्त मिलने लगा.किसानों का सहयोग मिलने से उन पर कोई आर्थिक बोझ भी नहीं आ रहा था.जब भी अतिरिक्त समय मिलता तो जलाराम गाँव घूमकर गरीब रोगियों का पता लगाकर उनकी सेवा करते. उपचार में यथाशक्ति सहायता करते और प्रभु श्री राम का स्मरण कर उस रोगी के जल्द स्वस्थ होने की कामना करते. रोगीजन स्वयं भी जलाराम के पैर छूकर उनसे आशीर्वाद लेते. उन्हें अपने घर आया देख उनका आधा दर्द वैसे ही दूर हो जाता था. कई बार ऐसा भी होता, जलाराम द्वारा मरीज के सर पर स्नेहपूर्वक हाथ फेरते ही वह चंगा होकर खडा हो जाता.उसका असाध्य रोग क्षण भर में काफूर हो जाता.जलाराम की इस अलौकिक स्पर्श चिकित्सा का चमत्कार देखकर गाँव वाले दांतों तले उंगली दबा लेते.
सेवा कार्यों में पत्नी वीरबाई का अत्याधिक योगदान और सहयोग मिलने के कारण जलाराम बेहद राहत महसूस
करते थे.वीरबाई अपने कर्तव्य और जिम्मेदारियों के प्रति काफी सजग रहती थीं. उनकी दिनचर्या पूरी तरह व्यवस्थित रहती थी. वे वक़्त की पाबन्द थीं. वे सूर्योदय के पूर्व उठ जातीं, स्नान आदि नित्यकर्म के बाद पहले पूजा पाठ करतीं, फिर अन्न जल ग्रहण करतीं. जलाराम का भी यही नित्य क्रम था. उनका घर बहुत छोटा था, लिहाजा पूजा पाठ का स्थान भी कम था. कोई आमदनी थी नहीं. इसलिए पूजा स्थल के लिए देवी-देवता की प्रतिमा खरीदकर लाने में वे असक्षम थे. केवल सीता, राम, हनुमान का एक चित्र उनके पूजा स्थल में था, जिसके सामने प्रतिदिन सुबह शाम दीपक जलाकर वे पूजा पाठ करते.
जलाराम और उनकी पत्नी वीरबाई की दिली इच्छा थी उनके आँगन में एक छोटा सा मंदिर हो.वे चाहते थे साधुजन, महात्मा जब उनके घर आँगन आयें तो सबसे पहले वे मंदिर में दर्शन लाभ लें, फिर भोजन करने बैठें.लेकिन दोनों एक दूसरे से अपने मन की यह बात जाहिर करने में संकोच कर रहे थे.एक दिन जलाराम ने सकुचाते हुए पत्नी वीरबाई से कहा- "अगर हमारे आँगन में एक मंदिर होता, तो कितना अच्छा होता? साधुजनों, महात्माओं को रात में रहवासा खोजने भटकना भी नहीं पडेगा, उनको मंदिर में ही सोने की जगह मिल जायेगी". वीरबाई इस प्रस्ताव की प्रतीक्षा में ही थी. उन्होंने तपाक से हाँ में हाँ मिलाते कहा- "नाथ, आप सौ टका सत्य कह रहे हैं.मैं भी कई दिन से यही सोच रही हूँ.किन्तु".... आगे कुछ न बोलते हुए वीरबाई अचानक मौन हो गई.जलाराम ने जोर देते हुए कहा- "चुप क्यों हो गई? अपनी बात पूरी करो".एकाएक वीरबाई का गला रूंध गया.पल भर बाद उन्होंने दुखी स्वर में कहा- "नाथ, हम तो बहुत गरीब हैं. हम स्वयं भूखे रह कर भी भूखे लोगों का पेट पहले भरते हैं, फिर बचा खुचा हम खाते हैं.सदाव्रत के चलते, लोगों के निवेदन का आदर करते हमने मजदूरी करना भी बंद कर दिया है.पहले तो थोड़ी बहुत आमदनी भी हो जाती थी.अब तो आय का कोई माध्यम नहीं है.मेरे मायके से मिले आभूषणों के अतिरिक्त घर में अपने स्वयं की कोई जमा पूंजी भी नहीं है,ऐसी हालत में मंदिर बनाने के लिए धन कहाँ से आयेगा?" पत्नी की मायूसी भरी बात सुनकर जलाराम भी चिंता में डूब गए.फिर प्रभु श्रीराम का स्मरण करते उन्होंने वीर बाई से सिर्फ इतना ही कहा-"अगर हमारा इरादा पक्का हैं तो प्रभु अवश्य हमारी सहायता करेंगे".
जलाराम के घर यूं तो रोज कोई न कोई साधुजन, महात्मा सदाव्रत में सम्मिलित होते थे. लेकिन एक रात उनके  यहाँ एक महात्मा पधारे.उनका चहेरा सिद्ध और तेजस्वी प्रतीत हो रहा था.जलाराम और वीरबाई ने उनका भी  यथोचित आथित्य सत्कार किया.उस समय सदाव्रत चल रहा था.भिक्षुक, साधुजन,महात्मा सभी पंगत में बैठ कर भोजन ग्रहण कर रहे थे.आगंतुक सिद्ध महात्मा को भी उसी पंगत में बैठा दिया गया.फिर पति पत्नी अपने अपने काम में व्यस्त हो गए.वीरबाई रसोई में जुट गयीं. तो जलाराम सबको प्रेम, आदर भाव से भोजन परोसने में लग गए. भोजन बिलकुल सादा था. फिर भी रोटी, खिचडी और साग सबको सुस्वादु लग रहा था.लगता भी क्यों न.वीरबाई के हाथों में मानों जादू था.वे प्रसन्न भाव से पूरे मनोयोग के साथ खाना बनाती थीं.उसी तरह जलाराम प्रेम से सबको भोजन परोसते थे. परोसे गए भोजन में पति पत्नी की भक्ति और उनके प्रेमभाव का मसाला मिश्रित रहता था. पंगत में यदि कोई विकलांग बैठा होता तो जलाराम स्वयं अपने हाथों से उसे खिलाते. सबको भोजन करा कर विदा करने के बाद ही पति पत्नी अगर खाना बचता तो खाते.
उस रात भोजन करने के दौरान पति पत्नी की गतिविधियों को आगंतुक सिद्ध महात्मा ध्यान से देख रहे थे. वे अत्याधिक प्रसन्न हुए. दोनों के आग्रहवश वे वहीं रात में विश्राम करने तैयार हो गए. शयन से पहले भजन कीर्तन का दौर भी चला. सुबह चाय नाश्ते के बाद विदा होने से पहले उस सिद्ध महात्मा ने जलाराम से कहा- "बच्चा, तू सदाव्रत का यह जो पुण्य भरा कार्य कर रहा है, वह प्रशंसनीय और प्रेरणादायक है.तुझे कभी आर्थिक संकट न सताए, इसलिए मैं तुझे यह लक्ष्मी जी की प्रतिमा दे रहा हूँ, इनकी भी प्रतिदिन पूजा करना".जलाराम और वीरबाई ने उनके चरण स्पर्श किये और आशीर्वाद लिया.जाते जाते उन्होंने जलाराम से कहा- "बच्चा, यह बात भी तू जान ले, तेरे घर पूजा स्थल में हनुमान जी एक गुप्त प्रतिमा है. आज से ठीक तीसरे दिन वह प्रतिमा स्वयं प्रकट होकर तुझे दर्शन देगी. इससे तेरी ख्याति भी बढ़ेगी". इतना कहकर वे सिद्ध महात्मा चले गए. जलाराम और वीरबाई खुशी से झूम उठे.
उस सिद्ध महात्मा की भविष्यवाणी के अनुरूप ही तीसरे दिन शनिवार को सूर्योदय होते ही जलाराम के घर के पूजा स्थल में हनुमान जी की प्रतिमा स्वतः प्रकट हुई. पति पत्नी ने शाष्टांग दंडवत होकर प्रणाम किया.फिर प्रभु श्रीराम का आभार भी माना.हनुमान जी की प्रतिमा स्वयं प्रकट होने की बात गाँव में आग की तरह फ़ैल गयी. श्रद्धालु बड़ी संख्या में प्रतिमा के दर्शनार्थ जलाराम के घर पहुँचने लगे.कुछ दिनों बाद श्रद्धालुओं के सहयोग से जलाराम ने आँगन में एक मंदिर भी बनवा लिया.उसमें विधिवत हनुमान जी की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा की गई.तत्पश्चात प्रतिदिन जलाराम, वीरबाई और गाँव के अन्य श्रद्धालु मंदिर में पूजा पाठ, भजन कीर्तन करने लगे. मंदिर परिसर
में पूर्ववत सदाव्रत-अन्नदान का क्रम भी जारी रहा.बाहर से आने वाले साधुजनों,महात्माओं और भिक्षुओं को भी रात रूकने के लिए एक बेहतर रहवासा मिल गया. ( जारी .... )        
                                
                                        
      
   

बुधवार, 23 नवंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kataa ( 9 )

सपत्निक खेतिहर मजदूर बने, फिर सदाव्रत-अन्नदान शुरू किया : श्रीराम भक्त जलाराम जब अपने गुरू भोजल राम से कंठी बंधवा कर वीरपुर गाँव लौटे, तब अविभावक सहित गांववासी प्रसन्न हुए. सबने उनका ह्रदय से स्वागत सत्कार किया. जलाराम अपने गुरू को वचन देकर लौटे थे गाँव पहुँच कर वे सदाव्रत-अन्नदान शुरू करेंगे.यह पुनीत सेवा कार्य प्रारम्भ करना आसान नहीं था, क्योंकि जलाराम अपने पिताश्री या चाचा से इस सम्बन्ध में कोई सहायता नहीं लेना चाहते थे.स्वयं उनके पास फूटी कौड़ी न थी.वे गाँव वालों के पास भी जाकर मदद मांगने के इच्छुक नहीं थे.
उस दौरान उनकी पत्नी वीरबाई अपने मायके में थी. जलाराम ने उन्हें वीरपुर लौटने का सन्देश भिजवाया.सन्देश
प्राप्त होते ही पतिव्रता वीरबाई ससुराल आ गई. लम्बे अंतराल के पश्चात जलाराम और पत्नी वीरबाई परस्पर मिले.पति को सामने देख कर वीरबाई की आँखें छलक गई. क्षण भर वे हतप्रभ भी हुई, क्योंकि उन्हें लग रहा था पति जलाराम से जब भेंट होगी तब वे भगवा वस्त्र पहने साधुवेश में दिखेंगे, किन्तु वे तो पहले की तरह सामान्य अवस्था में दृष्टिगोचर हो रहे थे.उन्होंने ठंडी सांस लीं. फिर भावविभोर होते हुए उन्होंने पति के चरण स्पर्श किये. पत्नी की भावुकता देख कर जलाराम के नयन भी नम हो गए. धीमी आवाज में उन्होंने कहा- "तुझसे कुछ अपने मन की बात कहनी है". वीरबाई ने हाथ जोड़कर कहा- "आदेश करिए मेरे नाथ".जलाराम ने गर्वित होकर कहा- "आदेश देने वाला मैं कौन होता हूँ? आदेश तो मेरे प्रभु श्रीराम ने दिया है.हमें सदाव्रत-अन्नदान का सिलसिला शुरू करना है, इसमें मुझे तेरा साथ चाहिए".प्रत्युत्तर में वीरबाई ने कहा- "नाथ, मैं तो पूरे जनम आपके साथ हूँ.आपका और प्रभु का आदेश मुझे प्राणों से अधिक प्यारा है".पत्नी की हौंसला अफजाई से जलाराम बेहद खुश हुए.उनका आत्म बल पहले से ज्यादा बढ़ गया.उन्होंने गदगद होकर कहा- "तुमने मेरी हिम्मत बढ़ा दी, हम दोनों मिलकर
आज से ही अपने इस अभियान की शुरूआत करेंगे.चलो, सबसे पहले हम कहीं रोजगार ढूँढते है". वीरबाई ने फुर्ती से कहा- "जो आज्ञा मेरे नाथ, चलिए".इसके बाद पति-पत्नी काम ढूँढने निकल पड़े.
आखिरकार वे काम पाने में सफल हुए.गाँव के एक भले किसान ने उनके नेक इरादे जानकार उन दोनों को अपने खेत में सहयोगी श्रमिक बतौर रख लिया.इस तरह अपने बलबूते जीवन यापन का क्रम प्रारंभ होने पर पति-पत्नी खुश हुए.प्रतिदिन की मजदूरी में से एक हिस्सा वे दोनों प्रभु के नाम अलग रखने लगे.कमाई हुई रकम से वे सर्वप्रथम साधुसंतों, भिक्षुओं को भोजन करवाते. इसके बाद जो बचता, उससे खुद खाते.इससे जलाराम और उनकी पत्नी वीरबाई को आत्मिक संतोष की अनुभूति होती.
कुछ समय बाद उन्होंने रहने लायक एक छोटा सा घर भी बनवा लिया. जलाराम और वीरबाई दिनभर खेत में कड़ी मजदूरी करते थे.अपने मेहनताने से वे प्रभु के नाम रोज थोड़ा अनाज बचा कर सुरक्षित रखते थे.घर में जब पर्याप्त मात्रा में अनाज इकट्ठा हो गया तब एक दिन जलाराम ने पत्नी से कहा- "अब सदाव्रत-अन्नदान (भंडारा) की विधिवत शुरूआत करने का सही समय आ गया है".प्रफुल्लित होकर वीरबाई ने कहा- "नाथ, आप सत्य कह रहे हैं.
अब हमें इसमे कोई देर नहीं करनी चाहिए".पत्नी के सहमत होने और उसकी उत्सुकता देख कर जलाराम प्रसन्न हो गए.अगले दिन जलाराम ने प्रभु श्रीराम और गुरू भोजल राम का स्मरण कर वीरपुर गाँव में अपने घर सदाव्रत-अन्नदान कार्य की शुरूआत कर दी.
जलाराम के घर सदाव्रत-अन्नदान प्रारंभ होने की खबर आसपास के गाँव में भी तेजी से फ़ैल गई.साधुसंत,महात्मा
भिक्षुक, दुखियारे सभी जलाराम के यहाँ आने लगे.पत्नी वीरबाई भोजन पकातीं और जलाराम आगंतुकों को खाना
परोसते.कोई अगर उनके घर आये और खाना खाए बिना लौट जाए, ऐसा संभव न था.जलाराम और उनकी पत्नी
वीरबाई ने खेत में मजदूरी करना जारी रखा था.दिन भर वे दोनों कड़ी मजदूरी करते, शाम होते ही फिर वे सेवा में जुट जाते.हालांकि गाँव के कई लोगों को यह समझ में नहीं आ रहा था जलाराम कम कमाई के बावजूद सदाव्रत-अन्नदान निरंतर जारी कैसे रखे हुए हैं.तो दूसरी तरफ जलाराम से सहानुभूति रखने वाले ग्रामीण तारीफ़ करते नहीं थकते. वे कहते- "यह अनूठा काम केवल जलाराम ही कर सकता है, इश्वर भी उसके साथ है".
उधर, गाँव के किसानों में भी जलाराम के प्रति सम्मान की भावना बढ़ गई थी.काना रैयानी किसानों का नेता था.
एक दिन उसने सभी किसानों को इकट्ठा किया और कहा- "साथियों, मेरी बात ध्यान से सुनों.आप सभी जानते हैं
जलाराम एक व्यापारी पुत्र होते हुए भी खेत में पत्नी के साथ कड़ी मजदूरी करता है. उसकी आमदनी भी कम है. लेकिन वह इश्वर का सच्चा भक्त होने के कारण खुद भूखा रहता है, लेकिन जरूरतमंदों का पेट भरता है.जबकि हम
लोग क्या कर रहे है,यह कभी सोचा है.हम केवल अपना ही पेट भर रहे हैं.यह स्वार्थीपन उचित नहीं है.अब आगे ऐसा नहीं चलेगा.अन्न उत्पादक होने के कारण हमें भी अपना फर्ज निभाना होगा".यह सुनकर साथी किसानों को
आत्मग्लानि हुई. वे बोले- "आपका कहना सही हैं. वास्तव में हम स्वार्थी होकर अपना फर्ज भूल गए थे.आपने हमें अपने कर्त्तव्य का बोध कराया,इसके लिए धन्यवाद.अब आप जैसा कहेंगे हम सब वैसा ही करेंगे".किसान नेता ने खुश होकर कहा- "तो ठीक है, हम सब मिलकर जलाराम के सदाव्रत अभियान के लिए पर्याप्त अनाज देकर सहयोग
करेंगे, ताकि उस पर अकेले भार न पड़े, और यह पुण्य कार्य आगे भी चलता रहे". तत्पश्चात काना रैयानी की अगुवाई में किसान जलाराम से मिलने उसके घर पहुंचे.अपने यहाँ उन्हें देख कर जलाराम प्रफुल्लित हो गए.उनकी
आवभगत की. उन्हें भोजन कराने के बाद जलाराम ने पूछा- "मेरे लिए कोई आदेश हो तो कृपया बताइये".किसान नेता ने हाथ जोड़कर कहा- "जलाराम भाई, आप इस कम उम्र में और कम संसाधनों के बावजूद यह जो पुण्य कार्य
कर रहे हो वह सराहनीय है.आपको हमारा एक निवेदन स्वीकार करना होगा".जलाराम ने भी हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक कहा- " मैं तो आप लोगों का सेवक हूँ, निवेदन नहीं बल्कि आदेश करिए".किसान नेता ने कहा- "जलाराम भाई, अब आपको हमारे खेत में मजदूरी करने आने की आवश्यकता नहीं है".यह सुनकर जलाराम चौंके.
उन्होंने धीमे स्वर में पूछा- "इस सेवक से कोई गलती हुई है क्या? जीवन निर्वाह के लिए मजदूरी तो करनी ही पड़ेगी न".किसान नेता ने मुस्कुराते हुए कहा- "अरे जलाराम भाई, आप गलत समझ रहे है. पूरी बात तो पहले सुन लो". जलाराम बोले- "ठीक है, कहिये".उस किसान नेता ने फिर बिना रुके पूरी बात बताई.उनकी सद इच्छा जान जलाराम अत्यधिक प्रसन्न हुए.सहयोग करने के लिए उन सबको अग्रिम धन्यवाद दिया.तत्पश्चात आकाश की तरफ देखकर प्रभु श्रीराम का आभार मानकर प्रणाम किया. ( जारी .... )                                                                                                   

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 8 )

१७ साल की आयु में तीर्थ यात्रा करने गए : जलाराम के पड़ोसी बनिया दुकानदार के व्यव्हार में अब बेहद बदलाव आ गया था.उस दिन की चमत्कारिक घटना देखने के बाद जलाराम के प्रति उसमे आदर भाव जागृत हो गया था.वह स्वयं अब जलाराम की प्रभु भक्ति की शक्ति का प्रचार करने लगा था.आसपास के गाँव में भी यह घटना प्रचारित हो गई थी.जिस अनुपात में पास पड़ोस के दुकानदारों और गाँव वालों की नज़रों में जलाराम सच्चे प्रभु भक्त के रूप में समा गए थे, उससे कहीं ज्यादा खुद जलाराम के ह्रदय में प्रभु भक्ति और आस्था बढ़ गई थी.
दुकानदारी में अब जलाराम का मन नहीं लग रहा था.हालांकि वे रोज दुकान खोलने और बंद करने की जिम्मेदारी बखूबी निभा रहे थे.लेकिन चाचा वालजी जलाराम के अंतर्द्वंद को भलीभांति समझ रहे थे.माकूल समय देख एक दिन उन्होंने जलाराम से पूछ लिया-"अरे जला, उस रोज मैंने तुझे सरे राह सबके सामने डाटा, जबरिया शक किया, तुझे बुरा तो नहीं लगा?" जलाराम ने मुस्कुराते हुए कहा-" बिलकुल नहीं काका,आपने अपने हिसाब से जो कुछ किया ठीक किया.समाज में, बाजार में रहना है तो सबकी अच्छी बुरी बातें सुननी ही पड़ती है, आपने भी अगर उनकी सुनी तो क्या गलत किया?"  जलाराम के जवाब से वे संतुष्ट नहीं हुए, इसलिए फिर कुरेदते हुए पूछा-" जला, अगर तू मुझसे नाराज नहीं है तो आजकल दुकान में गुमसुम क्यों बैठा रहता है? तेरी उदासी को कोई न कोई कारण तो जरूर होगा". जलाराम ने चाचा की जिद को देखते हुए मन की बात कह दी- "काका, सच बात तो यह है
मेरे प्रभु मुझे लगातार याद कर अपने पास बुला रहे हैं.वे एक बार मुझसे मिलना चाह रहे हैं.दिन हो या रात, हर पल
उनकी पुकार मुझे सुनाई देती है.मैं भी प्रभु से मिलने बेताब हूँ." चाचा ने झल्ला कर कहा- "जला, तू साफ़ साफ़ बता, चाहता क्या है?"जलाराम ने अपनी बात स्पष्ट करते हुए मंशा जाहिर की-"काका,मेरे मन में तीर्थ यात्रा करने
की बहुत इच्छा है.यदि आपकी आज्ञा मिलेगी तो मेरे मन की मुराद पूरी हो जायेगी". चाचा वालजी सोच में डूब गए.
फिर समझाइश देते हुए कहा-"जला, अभी तेरी आयु तीर्थ यात्रा करने के लायक नहीं है. तेरी उम्र अभी १७ वर्ष है. तुझे पता नहीं तीर्थ यात्रा पर जाना कितना कठिन है. तू बड़ा हो जा, मैं स्वयं तेरी तीर्थ यात्रा का पूरा प्रबंध कर दूंगा".अंततः जलाराम ने चाचा वालजी की सलाह मानते हुए बात वहीं ख़त्म कर दी.लेकिन मन में तीर्थ यात्रा पर
जाने की कसक जारी थी.वास्तव में उस जमाने में तीर्थ यात्रा पर जाने के लिए आवश्यक वाहन साधन सबको उपलब्ध नहीं थे.घोड़ा या ऊंट गाडी भी सीमित संख्या में थे.ज्यादातर श्रद्धालु पदयात्रा करते थे.इसलिए तीर्थ यात्रा
में समय और श्रम अधिक लगता था.हालांकि यह सब परेशानी जलाराम वीरपुर से गुजरने वाले तीर्थ यात्रियों के मुंह से सुन चुके थे.इसलिए उन्होंने अपने चाचा से ज्यादा बहस नहीं की.
कुछ दिन तक जलाराम ने अपने घर वालों से तीर्थ यात्रा के सम्बन्ध में कोई चर्चा नहीं की.लेकिन मन बैचेन था.
माता,पिताश्री और चाचा का दिल दुखा कर वे जिदपूर्वक तीर्थ यात्रा पर नहीं जाना चाहते थे.इसलिए उनकी अनुमति की वे धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करने लगे.धीरे धीरे जलाराम का मन सांसारिक क्रियाकलापों और दुकानदारी
से उचटने लगा था.प्रभु भक्ति को छोड़ कर अब सब कुछ अनियमित सा हो गया था.अपने गाँव वीरपुर को ही तीर्थ स्थल मान कर धार्मिक गतिविधियाँ बढ़ा दी.दिन रात पूजा पाठ, भजन कीर्तन में मग्न रहने लगे.उनका सेवा कार्य  भी पहले की तरह जारी रहा.जलाराम की भक्ति के प्रभाव को देखते हुए आखिरकार एक दिन पिताश्री और चाचा ने आपस में सलाह मशविरा कर जलाराम को तीर्थ यात्रा पर जाने की सहर्ष अनुमति दे दी.अनुमति पाते ही जलाराम फूले नहीं समाये.बुजुर्गों के चरण स्पर्श कर जलाराम प्रभु का स्मरण करते हुए तत्काल तीर्थ यात्रा के लिए निकल पड़े.
चारों धाम की यात्रा पूरी कर करीब दो साल बाद जलाराम सकुशल अपने गाँव वीरपुर लौटे.वे १९ साल के हो चुके थे.  
तीर्थ यात्रा के दौरान हुए अनुभवों और अनुभूति को वे भूल नहीं पा रहे थे. संत महात्माओं के मिले सानिध्य से वे अभिभूत थे.इसी के कारण उनमें अब वैराग्य की भावना प्रबल रूप से जागृत हो गई थी.सन्यासी जीवन जीने की उत्कंठा बढ़ गई थी.चारों धाम की यात्रा ने उनका ह्रदय पूरी तरह धार्मिक बना दिया था.सांसारिक कार्य और चाचा की दुकानदारी में अब उनकी कोई रुचि न थी.दुकान फिर सम्हालने चाचा के आग्रह को उन्होंने नम्रता से ठुकरा
दिया.चाचा वालजी ने उनके मन को टटोला- "जला, क्या बात है, तू दुकान नहीं आ रहा है?" जलाराम ने शांतचित्त
हो कर कहा- "काका,अब मेरी दुनिया अलग है और आपकी अलग. मुझे तो अब केवल प्रभु की दुकान में ही बैठना
है". चाचा वालजी ने पूछा- "जला, माना अब तेरी दुनिया अलग है, लेकिन पूरा दिन करेगा क्या?" जलाराम ने स्मित मुस्कान के साथ कहा- "अब तो मुझे मेरे प्रभु का व्यवसाय बढ़ाना है".चाचा समझ गए जलाराम अब पूरी तरह अपने प्रभु के भक्ति रंग में सराबोर हो चुका है.इसलिए आगे चुप रहना उचित समझा.
महात्मा भोजल राम को गुरू बनाया, कंठी बंधवाई : दिन बीतने लगे.अब जलाराम सब मायाजाल से मुक्त हो चुके थे.संत महात्मा ही अब उनके सगे संबंधी थे.उनकी संगत में समय व्यतीत होने लगा.पूजा पाठ, भजन कीर्तन में कब समय बीत जाता था, उन्हें पता ही नहीं लगता था.भूखे जन की चिंता रहती थी, लेकिन खुद की भूख भुला देते थे.एक दिन जलाराम के मन में सवाल उठा-अब तक उन्होंने किसी को अपना गुरू क्यों नहीं बनाया है, गुरू से कंठी क्यों नहीं बंधवाई है? गुरू के बिना तो भक्ति जीवन अधूरा है.प्रभु प्राप्ति का सही मार्ग तो वे ही बता सकते हैं.लेकिन अपना गुरू किनको बनाऊं? इसी उधेड़बुन में जलाराम एक दिन अपने गुरू की खोज में निकल पड़े. पदयात्रा करते हुए वे जब अमरेली के समीप फतेपुर गाँव पहुंचे, तब उनकी भेंट महात्मा भोजल राम से हुई.उनके चरण स्पर्श कर जलाराम ने अपनी आंतरिक अभिलाषा व्यक्त की.महात्मा भोजल राम श्रद्धालुओं के जरिये जलाराम की प्रसिद्धि से वाकिफ थे.महात्मा ने जलाराम से कहा - "बच्चा, अभी तेरी उम्र किसी को गुरू बनाने की नहीं है". जलाराम ने हाथ जोड़ते हुए कहा- "गुरूजी, भक्ति और शिष्यता के लिए उम्र कभी बाधक नहीं होती". भोजल राम विद्वान् महात्मा थे,इसलिए उन्होंने तुरंत अपनी सहमति देते कहा-" ठीक है बच्चा, तुझे अपना चेला बनाने में मुझे भी प्रसन्नता होगी".फिर उन्होंने जलाराम को कंठी बांधकर अपना शिष्य बना लिया.
कुछ दिन तक जलाराम वहीं अपने गुरू की सेवा करते रहे.उनसे गुरू ज्ञान प्राप्त करते रहे.एक दिन जलाराम ने उनसे कहा- "गुरूजी,अब अगर आपका आदेश हो तो मैं वापस अपने गाँव जाऊं?" गुरू महात्मा भोजल राम ने उत्सुकतावश पूछा- "बच्चा, वहां जाकर क्या करेगा?" जलाराम ने जवाब दिया- "अपने गाँव वीरपुर में मैं सदाव्रत प्रारंभ करना चाहता हूँ". यह सुन कर गुरू खुश हो गए, उन्होंने अनुमति देते हुए कहा- "जा बच्चा, सदाव्रत शुरू कर, मेरा आशीर्वाद सदैव तेरे साथ रहेगा. घर वालों के साथ साथ साधुजनों, महात्माओं और भिक्षुओं की सेवा कर.इश्वर तेरा भला करेगा.आगे चलकर सारी दुनिया में तेरा नाम रोशन होगा". आज्ञा मिलते ही जलाराम ने अपने गुरू भोजल राम के चरण स्पर्श किये और वीरपुर गाँव के लिए प्रस्थान किया.
 ( जारी ..... )                                          
  
                

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 7 )

जलाराम का दान और प्रभु श्रीराम का चमत्कार : जलाराम ने अपने चाचा वालजी की दुकानदारी में सहयोग करना शुरू कर दिया था.प्रत्येक ग्राहक के साथ वे सम्मानपूर्वक व्यवहार करते थे."सबसे समभाव, सबके किये एक भाव" के सिद्धांत का वे अनुसरण करते थे.इसके कारण उनके चाचा के व्यवसाय में वृद्धि होने लगी.इनके यहाँ अगर कोई छोटा बच्चा भी ग्राहक बतौर आता तो ठ्गाता न था.इससे उनके धंधे की साख भी बढ़ने लगी थी.जिस जगह उनके चाचा वालजी की दुकान थी, उसके आसपास अन्य २० दुकानें भी थी.उसमे से चार दुकानें बनिए की, बाकी लोहाना और खोजा व्यापारियों की थीं.जलाराम की विश्वसनीयता की वजह से वालजी की दुकान में ग्राहकी बढ़ते देख कर पड़ोसी दुकानदारों को इर्ष्या होने लगी.वे जलाराम को उस दुकान से बाहर करवाने की साजिश रचने लगे.
उस ज़माने में भी वीरपुर गाँव होते हुए जूनागढ़,गिरनार जाने वाले श्रद्धालुओं और संत महात्माओं की आवाजाही लगी रहती  थी.तीर्थयात्रा पर निकले लोगों के लिए वीरपुर गाँव सुविधाजनक पड़ाव हुआ करता था.भिक्षु साधुओं को भरोसा रहता था जलाराम उनके रूकने,खाने का प्रबंध अवश्य कर देंगे.
एक दिन सुबह का समय था.साफसफाई के बाद दुकानें खुली,तभी दर्जन भर साधुओं की एक मंडली बाजार आ पहुँची.दुकानदारों से वे भोजन उपलब्ध कराने की याचना करने लगे.सुबह बोहनी बट्टा न होने के कारण दुकानदारों का मूड वैसे ही खराब था.उन्होंने झिड़कते हुए कहा-"आगे चलो बाबा.सुबह सुबह माँगने आ जाते हो".
दुखी होकर एक साधुजन ने अपने साथियों से कहा-"इन लोगों से कुछ मिलने वाला नहीं है,वालजी की दुकान सामने ही है, उनका भतीजा जलाराम अगर आ गया होगा तो हमारे रहने खाने का प्रबंध आसानी से हो जाएगा".वहीं खड़े एक स्थानीय नागरिक ने भी सहमति जताते हुए कहा- "सेवाभावी जलाराम किसी को निराश नहीं करते.आप लोग इधर उधर मांगने के बजाय जलाराम के पास जाइए.आपका काम बन जाएगा".तत्पश्चात वे साधुजन वालजी की दुकान पहुँच गए.जलाराम दुकान में साफसफाई कर सामान सजा रहे थे.साधुजनों को देख कर वे प्रसन्न हो गए.उन्हें ऐसा लगा मानो सुबह के समय साक्षात प्रभु के दर्शन हो गए हों.उन्होंने हाथ जोड़कर नम्रता से कहा- "पधारिये बाबाजी, सेवक के लिए क्या आदेश है? मुझे आप लोगों की सेवा कर आंतरिक प्रसन्नता मिलेगी". मंडली के एक वयोवृद्ध साधुजन ने याचना भरे शब्दों में कहा-"बच्चा,हम लोग गोकुल मथुरा से आये हैं.
द्वारका की यात्रा पूर्ण कर अब हम लोग प्रभास पाटन ,जूनागढ़ और गिरनार जा रहे हैं.तू अगर हमारे भोजन और विश्राम का प्रबंध कर देगा,तो भगवान् तेरी मनोकामना पूरी करेगा, तेरा कल्याण करेगा".फिर लम्बी साँस लेकर
वह दुकान के सामने उकडू बैठ गया.जलाराम ने तपाक से कहा- "जो आज्ञा बाबाजी, आप लोग बिलकुल चिंता न करें, सब प्रबंध हो जाएगा.आप अपनी मंडली से कहिये वे रहवासे जाकर नित्य कर्म से निपट लें, और आप यहीं रूकिये,मैं भोजन की आवश्यक सामग्री निकालता हूँ".यह सुनते ही बुजुर्ग साधुजन प्रसन्न हो गए, सबने मिलकर जलाराम का जयघोष किया.फिर उस वयोवृद्ध साधुजन ने अपने साथियों से कहा-"आप लोग रहवासे जाइए,नहा धोकर आराम कीजिये,तब तक मैं सब सामान लेकर पहुंचता हूँ".
पड़ोस में एक बनिए की दुकान थी.वह जलाराम की प्रसिद्धि और उसके यहाँ ग्राहकी में वृद्धि देख कर इर्ष्या की आग में जल रहा था.जलाराम के पास भिक्षु साधुओं की टोली देख कर वह खिल उठा, उसे लगा आज अच्छा अवसर है
वालजी से जलाराम की चुगली करने का.उसे अंदाज था जलाराम इन साधुओं को कुछ न कुछ अवश्य देगा.चाचा
वालजी से कहकर जलाराम को वह रंगे हाथ पकड़वाना चाह रहा था,ताकि वे जलाराम को अपनी दुकान से बाहर निकाल दें.मन ही मन यह योजना बनाकर वह बनिया पड़ोसी दुकानदार फिर जलाराम के क्रियाकलापों पर नजरें
केन्द्रित किये रखा.
इधर,जलाराम बुजुर्ग साधुजन की मांग के अनुसार दुकान से समस्त खाद्य सामग्री निकालकर एकत्रित करने लगे. घी रखने के लिए साधुजन के पास कोई बर्तन नहीं था, इसलिए जलाराम ने दुकान का लोटा ही दे दिया.चावल,दाल आदि सामान को रखने के लिए दुकान में रखा कपड़ा भी दे दिया.बुजुर्ग साधुजन जलाराम की यह उदारता देख कर गदगद हो गया.वह एक एक कर सब सामान उठाने का प्रयास करने लगा.सामान ज्यादा था,
इसलिए उठाने में उसे परेशानी हो रही थी.एक सामान उठाए,तो दूसरा हाथ से गिर जाए.उनकी परेशानी देख कर
जलाराम बोले-"बाबाजी, रूकिये,इतना सामान आप अकेले नहीं उठा पायेंगे.मैं स्वयं इसे उठा कर आपके साथ छोड़ने चलता हूँ".उन्होंने चिंता व्यक्त करते हुए कहा-"बच्चा,दुकान में तो तू अकेला है",जलाराम ने सहजता से कहा-"तो क्या हुआ, दुकान बंद कर मैं आपके साथ चलता हूँ." इतना कहकर जलाराम दुकान बंद करने लगे. उधर पड़ोसी बनिया दुकानदार यह सब गतिविधि छुपकर देख रहा था.वह इस मौके को हाथ से निकालने नहीं देना चाह  रहा था.जैसे ही जलाराम सारा सामान उठाकर उस साधुजन के साथ रवाना हुए,वैसे ही पड़ोसी बनिया अपनी दुकान नौकर के हवाले कर चुगली करने की बदनीयत से जलाराम के चाचा वालजी के घर की तरफ फुर्ती से दौड़ा.
लेकिन बीच रास्ते में ही उसकी वालजी से भेंट हो गई.वालजी अपनी दुकान की तरफ ही जा रहे थे.बनिया दुकानदार ने हाँफते हुए कहा-"वालजी भाई,अच्छा हुआ यहीं मिल गए, मैं आप ही के घर जा रहा था.वालजी ने
उत्सुकतावश पूछा-"क्यों, क्या बात है?" बनिया ने कुटिलता से जवाब दिया-"अब क्या बताऊँ? आपके भतीजे जलाराम ने तो आपकी पूरी दुकान लुटा दी है.वालजी ने चौंकते हुए कहा-"क्या बात कर रहे हो? बनिया ने दांव लगता देख सरपट कहा-" मैं सौ टका सही कह रहा हूँ,सुबह सुबह आपकी दुकान में साधुओं का एक जत्था आया था,आपके लाडले भतीजे जलाराम ने दुकान से भारी मात्रा में खाने का सामान मुफ्त में उन्हें दिया है, और तो और
दुकान बंद कर सारा सामान खुद उठा कर उनको पहुँचाने साथ गया है." बनिया मिर्चमसाला लगाकर पूरा घटनाक्रम बताने लगा.पहले की दो चार झूठी घटनाएँ भी बताई.यह सब लगीबुझाई सुन कर वालजी का माथा
ठनका.आँखें लाल हो गई.हालांकि वे अपने भतीजे जलाराम की भावनाओं और कार्यों से वाकिफ थे,लेकिन एक साथ दर्जन भर साधुओं के रहने खाने के प्रबंध की बात सुनकर वे आगबबूला हो गए.उनको महसूस हुआ भतीजा
जलाराम उनके लगाव और छूट का गलत लाभ उठा रहा है.
फिर जलाराम को सबक सिखाने वालजी और बनिया दुकानदार साधुओं के रहवासे की तरफ चल पड़े.थोड़े ही दूर पहुंचे तो उन्होंने बुजुर्ग साधुजन और जलाराम को जाते देख जोर से पुकारा-"अरे जला,रूक जला,जा किधर रहा है?"चाचा की पुकार सुन कर जलाराम वहीं खड़े रह गए साधुजन ने जलाराम से पूछा-"बच्चा,कौन है यह आदमी ?"जलाराम ने शांत भाव से जवाब दिया-"यह मेरे वालजी काका हैं,इन्हीं की दुकान मैं सम्हालता हूँ".यह सुनकर
वे भयग्रस्त हो गए.साधुजन वालजी के तेवर से सहम गए,उन्हें आशंका हुई जलाराम पर आज चाचा का गुस्सा
बरपेगा.उन्हें जलाराम से मदद लेने का अफ़सोस होने लगा.वे बोले-"बच्चा, यह सब सामान हमें नहीं चाहिए, तू इसे
वापस दुकान में रखने चला जा.तेरे जैसे सेवक पर कोई संकट आये, यह हमें देखा नहीं जाएगा".यह सुनकर जलाराम मुस्कुराए. उनकी मुस्कान अर्थपूर्ण थी. उन्होंने केवल इतना ही कहा-"जैसी प्रभु श्रीराम की इच्छा".फिर
वे भगवान् श्रीराम को मन ही मन याद करते हुए उनसे मौजूदा स्थिति से बचाव की प्रार्थना की.
तब तक चाचा वालजी और बनिया समीप आ गए.पास आते ही वालजी ने गुस्से में भतीजे से पूछा-"जला,इस गठरी में क्या लेकर जा रहा है?" जलाराम के मुंह से अपने आप यह शब्द निकले- "काका,छेना के सिवाय इसमें और क्या हो सकता है?" चाचा ने तमतमाते हुए कहा-"जला, अब ज्यादा नादाँ मत बन, इस सेठ ने मुझे सब कुछ बता दिया है, दिखा तेरी गठरी". जलाराम ने बिना डरे उस गठरी को दिखाया.तो सचमुच उसमे छेना ही निकला.यह चमत्कार देख कर साधुजन सहित सभी लोग आश्चर्यचकित रह गए.इस दरम्यान तमाशबीनों की भीड़ जुट गयी थी.वहां उपस्थित सभी लोगों को यह दृश्य देख कर लगा जलाराम वास्तव में एक सच्चा भक्त है.यह बनिया नाहक ही चाचा वालजी को भड़का कर यहाँ तक साथ ले आया था.इस चमत्कार को देख कर क्षण भर के लिए उस बनिए का भी माथा चकरा गया.वालजी के गुस्से से बनिया अनभिज्ञ न था,वे उसे कुछ बोले,इससे पहले ही उसने वालजी को उचकाया- "वालजी भाई, जला से पूछो, इस लोटे में क्या है?"  चाचा ने पूछा-" हाँ जला, इस लोटे में क्या लेकर जा रहा है?" जलाराम ने मासूमियत से कहा- " काका, लोटे में तो पानी ही होगा न?" बनिया दुकानदार चाचा भतीजे के बीच में आकर आँख तरेरते हुए कहा-"जला, झूठ मत बोल, इसके भीतर कोई पानी वाणी नहीं है.इसमें घी है. मैंने अपनी आँखों से तुझे इस लोटे में घी डालते हुए देखा है".सबको लगा जलाराम अब फंसे. जलाराम ने चुपचाप वह लोटा चाचा के सामने रख दिया. देखा तो, वास्तव में उसके भीतर शुद्ध पानी था.लोटा झुकाया तो पानी की धार बही.लोटे में घी के बदले पानी देख कर सब अचंभित रह गए.बनिया का चहेरा देखने लायक था.वह सन्न रह गया.काटो तो खून नहीं.उसका दांव ऐसा उलटा पडेगा,कल्पना न थी.अपने मुंह से गुड के बदले छेना और घी की जगह पानी जैसे शब्द कैसे निकल पड़े यह स्वयं जलाराम को समझ नहीं आया."यह सब प्रभु की माया है" ,ऐसा मन ही मन बोलकर जलाराम ने चाचा की तरफ देखा. चाचा को भी कुछ समझ में नहीं आया. उन्होंने भतीजे से कहा-"जला, जा यह सामान रख कर कर जल्दी आ".जलाराम ने रहस्यभरी मुस्कान के साथ जवाब दिया-"जैसी आपकी आज्ञा".जलाराम साधुजन के साथ चल पड़े.उन्हें लग रहा था प्रभु का सच्चा भक्त उनके साथ चल रहा है.आशीर्वाद देते हुए वे बोले-"प्रभु सब जगह मौजूद है, उन्होंने हम दोनों की लाज बचा ली. भगवान तेरा भला करे".
रहवास पहुँच कर जब साधुजन ने गठरी और लोटे के अन्दर देखा तो आँखें फटी की फटी रह गई. जो भी सामान
जलाराम की दुकान से लाया गया था वह वैसा का वैसा ही था.साधुजन ने खुशी के मारे जलाराम को गले लगा लिया और बोले-" बच्चा, जो हमने अब तक नहीं पाया है,वह तूने पा लिया है".सभी साधुओं ने फिर एक बार जलाराम को आशीर्वाद दिया.
उधर, बनिया परेशान भाव से चाचा वालजी के पीछे पीछे दुकान की तरफ जा रहा था.दुकान के पास आते ही उसने
वालजी से अपने मन की दुविधा बताई- "वालजी भाई,मैंने ध्यान से खुद जलाराम को घी सहित खाद्य सामग्री साधुजन को देते हुए देखा था. मेरी ऑंखें धोखा नहीं खा सकती.वालजी ने संतोष भरे स्वर में कहा-" अब सब कुछ तो स्पष्ट हो गया है". बनिया ने अंतिम पांसा फेंकते हुए कहा-"मुझे तो लगता है यह सब उस साधुजन की नजरबंदी
की करामात है.खैर जाने दो, दुकान जाकर सभी सामानों की गिनती और पड़ताल करोगे तो सब पता लग जाएगा".
वालजी ने कहा-"चलो यह भी करके देख लेते है.तुम्हें संतोष हो जाएगा.दूध का दूध, पानी का पानी हो जाएगा".दोनों
दुकान पहुंचे.पीछे पीछे तमाशबीन भी पहुँच गए. चाचा वालजी ने अपनी दुकान में एक एक सामान की गिनती की,
तुलाई की, कपड़ों का मापजोख किया,लेकिन सब कुछ पहले जैसा था.कोई वस्तु कम न थी.यह सब चमत्कार देख कर पड़ोसी बनिया सर झुका कर चुपचाप वहां से चले जाने में अपनी भलाई समझी.फिर मन ही मन यह कसम
खाई दुबारा जलाराम के मामले में नहीं पडूंगा. ( जारी .... )   .                                          
    .    
  .              
 
        
                                  
                               

रविवार, 20 नवंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 6 )

पिताश्री के बाद चाचा की दूकान में बैठने सहमत : भक्त जलाराम को पिताश्री द्वारा दुकानदारी से अलग किये जाने के बाद उनको न भोजन करना याद रहता था, न ही सोना.वक़्त का भी ध्यान नहीं रहता था.सुबह होते ही स्नान आदि से निवृत्त होकर भक्त जलाराम पूजापाठ करने के बाद हाथ में माला लेकर घर से निकल पड़ते थे.रात को समय पर घर लौटना निश्चित नहीं रहता था.परिवार वालों की उन्हें कोई फिक्र नहीं थी.याद रहता था तो केवल राम नाम.मंदिर या फिर संत महात्माओं की उपस्थिति वाली जगह उनकी पहली पसंदगी बन गई थी.कोई इन्हें खोजता था तो वे यहीं पाए जाते थे.
उधर, वीरबाई अपने पति जलाराम की इस अनियमित दिनचर्या से मन ही मन दुखी रहने लगी थी.साथ ही पति की प्रभुभक्ति में बाधक भी नहीं बनाना चाहती थीं.इसलिए वह अपनी मनोभावना पति से व्यक्त करने को लेकर पशोपेश में थी.एक दिन साहस जुटाकर पत्नी वीरबाई ने जलाराम से पूछा- आप घर आने, भोजन करने, सोने का समय निर्धारित क्यों नहीं कर लेते? उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा- तू क्यों नाहक परेशान हो रही है? मेरा असली घर तो मंदिर है या फिर संत महात्माओं की स्थली.खाने में मुझे कोई रुचि नहीं है.जो आनंद खिलाने में है, वह खाने में कहाँ? मैं जब तक भूखे को खाना खिला कर न सुला दूं, तब तक मुझे नींद कहाँ आने वाली? जहां तक सबका समय तय करने का सवाल है, तो बता दूं , मानव के जीवन का कोई ठिकाना नहीं है तो फिर मेरा कहाँ रहेगा? पत्नी वीरबाई ने सुझाव देते हुए कहा- आप सही कह रहे हैं, लेकिन प्रभुभक्ति, सेवा के अलावा कामकाज, धन्धादारी भी तो
सम्हालनी पड़ेगी.अन्यथा घर वालों की नाराजगी कैसे दूर होगी? जलाराम ने फिर रहस्यमयी मुस्कान के साथ केवल इतना ही कहा- यह भी हो जाएगा.
पूरे वीरपुर गाँव में अब तक यह बात फ़ैल चुकी थी पिताश्री प्रधान ठक्कर ने जलाराम को दूकान से निकल दिया है.
कुछ ईर्ष्यालु जनों को उनका यह कदम उचित लगा, लेकिन समझदार लोगों को यह कठोर फैसला पसंद नहीं आया.जलाराम के चाचा वालजी भी अपने बड़े भाई के बर्ताव और निर्णय से नाखुश थे.जलाराम को वे बहुत चाहते
थे.उनके प्रति ह्रदय से सहानुभूति और सम्मान था.गुणों के धनी होने के कारण जलाराम को वे आदर देते थे.एक
दिन वे अपने बड़े भाई के घर गए.कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद प्रधान ठक्कर से भेंट हुई.उन्होंने पूछा- क्या बात है
वालजी? कैसे आना हुआ? वालजी ने सकुचाते हुए जवाब दिया- मोटा भाई, एक गंभीर बात करने आया हूँ.बड़े भाई ने जिज्ञासापूर्वक कहा- ऐसी कौन सी बात है? वालजी ने डरते हुए जवाब दिया- मोटा भाई, आप नाराज तो नहीं होंगे? प्रधान ठक्कर ने कहा- नहीं, तू बोल तो सही.वालजी ने साहस बटोरते हुए कहा- मोटा भाई, आपने जला को
दूकान से निकाल कर अच्छा नहीं किया.इतना सुनते ही बड़े भाई आगबबूला हो गए. फिर ऊँची आवाज में कहा- सुन वालजी, मैंने जो कुछ किया, ठीक किया.मुझे किसी के सुझाव की आवश्यकता नहीं है.छोटे भाई ने अपनी बात
आगे बढाते हुए कहा-मोटा भाई, मैं आपको कोई सलाह देने नहीं आया हूँ, मेरा तो सिर्फ इतना कहना है जला पक्का
प्रभु भक्त है, उसका दिल नहीं दुखाना था. बड़े भाई बिफरे- अच्छा, तू मुझे बताएगा जला क्या है? वह तो धंधा छोड़ कर दान धरम कर रहा था, वह हमारी लुटिया डूबाने को तुला हुआ था. ऐसे में मैं क्या करता? छोटे भाई ने बात काटते हुए कहा- मोटा भाई, धरम करम करना कोई अपराध थोड़े ही है, और फिर आपने उसे ऐसी सजा दी? इस
तरह से अगर जला भटकते रहेगा तो सचमुच एक दिन वह साधू सन्यासी बन जाएगा.बड़े भाई ने झल्लाते हुए कहा-बस अब बहुत हो गया, मुझे और कुछ नहीं सुनना, अगर तुझे ज्यादा पीड़ा और चिंता हो रही हो तो तू उसे
अपनी दूकान में बैठा. ठीक है मोटा भाई, मैं ऐसा ही करूंगा, इतना कह कर छोटे भाई वालजी चलते बने.
वालजी अपने भतीजे जलाराम को खोजने निकल पड़े.उस समय सूरज सर पर था.जलाराम को खोजते हुए वे वीरपुर गाँव की सीमा तक आ पहुंचे.देखा तो जलाराम एक छायादार वृक्ष के नीचे हाथ में माला रखे आराम से
सो रहे थे.वालजी थोड़ी देर जलाराम को निहारते रहे.अचानक उनके ह्रदय में जलाराम के प्रति भक्ति भाव जागा
और वे सो रहे जलाराम के चरणों के पास की मिट्टी को माथे से लगा लिया.फिर एकाएक उनकी आँखों से आंसू
छलक गए.स्नेहपूर्वक जलाराम के सर पर हाथ फेर कर उन्होंने जगाते हुए कहा-जला... ओ जला...जलाराम ने
आँखें खोली.सामने अपने चाचा को खड़े देखा तो उन्होंने पूछा- काका, आप इस समय यहाँ? चाचा ने रूंधे गले से जवाब दिया- हाँ जला,चल उठ, मेरे साथ चल.जलाराम ने उत्सुकता से पूछा- क्या कोई संत महात्मा आये हैं? तो फिर चलो.चाचा वालजी क्षण भर उसे देखते रहे.और अधिकारपूर्वक कहा- जला, आज से तुझे मेरी दूकान में बैठना
है.जलाराम ने ठहाका लगाया.चाचा वालजी ने अचंभित होकर पूछा- जला, ऐसे क्यों हस रहा है? जलाराम ने सहजता से जवाब दिया- आप तो जानते ही हो पिताश्री ने मुझे दूकान से क्यों निकाल दिया.चाचा ने कहा- हाँ, जानता हूँ.फिर भी तुझे अपनी दूकान में बैठाना चाहता हूँ.मैं तुझे बहुत चाहता हूँ.संत महात्माओं और भिक्षुओं को
दो मुट्ठी अन्न देने, दान करने से दूकान बंद नहीं हो जायेगी,इसका मुझे पूरा भरोसा है.जलाराम ने जोर देते हुए
कहा- काका,एक बार फिर सोच लो.चाचा वालजी ने आत्मविश्वाश के साथ कहा- मैं सोच समझ कर ही तुझे लेने
आया हूँ.प्रत्युत्तर में जलाराम ने सहमत होकर कहा- तो फिर चलिए, प्रभुभक्ति और सेवा करते हुए आपके साथ दुकानदारी करने में मुझे कोई आपत्ति और आलस्य नहीं है.जलाराम ने इतना कह कर चाचा वालजी के चरण स्पर्श
किये.फिर चाचा भतीजे दूकान की तरफ चल पड़े. ( जारी ..... )
         
                                                                 

शनिवार, 19 नवंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 5 )

 
विवाह के बाद भी सेवा कार्य जारी : युवा अवस्था में प्रवेश करने के बाद जलाराम ने अपने सेवा कार्यों की गति भी तेज कर दी थी. वैवाहिक जीवन की 
शुरूआत भी सादगीपूर्ण थी.पत्नी वीरबाई सुन्दर होने के साथ साथ गुणवान भी थी.घर के कामकाज में भी निपुण थी. उसका स्वभाव शांत, धार्मिक और सामंजस्यमय था, जो जलाराम के लिए अनुकूल था.वीरबाई ससुराल आने से पहले ही जलाराम की प्रभुभक्ति और दीनदुखियों की सेवा के बारे में अच्छे से 
जानती थी.इसलिए वे भी उन्हें प्रोत्साहित और सहयोग करती थीं.संत महात्मा और दुखीजन पति जलाराम की प्रथम पसंद होने के बावजूद वीरबाई
पत्नीधर्म बखूबी निभा रहीं थीं.
पुत्र का विवाह करने के बाद पिताश्री प्रधान ठक्कर को उम्मीद थी जलाराम 
के मनोभाव सांसारिक जीवन के चलते परिवर्तित हो जायेंगे.लेकिन उनकी धारणा गलत साबित हुई.बदलाव के कोई लक्षण भी नहीं दिख रहे थे,बल्कि
सेवा कार्यों की रफ़्तार लगातार तेज हो रही थी.प्रभुभक्ति में उनका वक़्त ज्यादा बीत रहा था.वीरपुर गाँव के कुछ नास्तिक और विघ्नसंतोषी भी आपस में यह आशंका व्यक्त करने लगे- जलाराम अपने पिताश्री के व्यापार को चौपट 
कर देगा.उसने धंधे की जगह को दान धरम का अड्डा बना दिया है.कमाई 
करना तो दूर, घर की जमा पूंजी भी दानवीर बनकर लुटा रहा है.वह अपने भाइयों का भी हक़ मार रहा है.यह सब बातें जब जलाराम के पिताश्री के कानों 
तक पहुचीं, तब वे भी उद्वेलित हो गए.उन्होंने अपने जयेष्ठ पुत्र बोधा से पूछा-बोधा, क्या जला हमारा धंधा ठप करवाने पर तुला है? दूकान का क्या दिवाला निकाल देगा? बोधा ने अपने छोटे भाई जलाराम का पक्ष लेते हुए कहा- नहीं बापूजी,ऐसा नहीं है.आपको यह किसने कहा? पिताश्री ने दुःख भरे लहजे में कहा- गाँव वाले ही कह रहे है और तू मुझसे छिपा रहा है.बोधा ने दार्शनिक अंदाज में कहा- इर्ष्या करने वाले ऐसी लगी बुझाई तो करते ही है.ऐसे लोगों को दूसरों के मामले में उटपटांग बातें करने में मजा आता है.पिताश्री ने अफसोस जाहिर करते हुए कहा- लेकिन 
ऐसा कब तक चलेगा?इस तरह अगर जला संत महात्माओं और भिक्षुओं के पीछे धन लुटाता रहा तो एक दिन 
हमारे ही हाथ में कटोरा आ जाएगा, हमारी भी दूसरों के आगे हाथ फैलाने की नौबत आ जायेगी.
माहौल तनावपूर्ण होता देख माता राजबाई ने प्रधान ठक्कर का गुस्सा शांत करने कहा- हमारा जला ऐसा नहीं है.
दुनियादारी वह भी समझता है. आप अनावश्यक चिंतित हो रहे है.राम भक्ति के साथ वह दुकानदारी में भी निपुण
हो गया है.जवाब देते वे फिर बिफरे- तेरा जला हमें कहीं का नहीं रखेगा. राजबाई ने गर्व के साथ कहा- देखिएगा यही
हमारा जला आगे चलकर कुल का नाम रोशन करेगा. लेकिन प्रधान ठक्कर का गुस्सा शांत नहीं हो रहा था.उन्होंने
चेतावनी भरे लहजे में कहा- जला को समझा देना, आगे ऐसा नहीं चलेगा.अगर वह नहीं मानेगा तो मैं उसे धंधे में बैठाना बंद कर दूंगा.इसके सिवाय अब कोई चारा नहीं है.
वीरबाई दरवाजे के पीछे खड़े होकर अपने सास ससुर की बातचीत सुन रही थीं.स्थिति तनावपूर्ण होते देख वह भी
दुखी हो गई.जब पति जलाराम घर आये, तब उन्होंने सारी बातें बताई.जलाराम ने शांतचित्त होकर कहा-तू क्यों
चिंता करती है? एक दिन ऐसा होने वाला है,यह मुझे मालूम है.प्रभु राम सब ठीक देंगे.कुछ दिन तक घर का वातावरण शांत रहा.जलाराम नियमित रूप से दुकानदारी में सहयोग देते रहे.लेकिन धंधे पर बैठ कर भी राम नाम
जपने और मांगने वालों को देने का क्रम पहले की तरह जारी रहा.वीरपुर गाँव आने वाला संत महात्मा हो या कोई भिक्षुक,हर किसी को पता रहता था जलाराम अगर धंधे पर बैठे होंगे तो भी दान धरम अवश्य करेंगे.
एक दिन वह भी आ गया जिसकी सबको आशंका थी. पिताश्री ने जलाराम से गुस्से से दो टूक कहा- बहुत हो गया,
अब ऐसी सेवा बंद करो.जलाराम ने पिताश्री के आगे कभी कोई जिद नहीं की थी.लेकिन आज स्थिति अलग थी.
उन्होंने हाथ जोड़ कर कहा- क्षमा करें बापूजी, ऐसा मुझसे नहीं हो सकता.दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम,
फिर मैं अपने पास आने वाले भूखे को खाली हाथ वापस क्यों लौटाऊ? दोनों के बीच वादविवाद होता रहा.जलाराम
ने नम्रता से पिताश्री को समझाने की बहुत कोशिश की,लेकिन वे फैसला करके ही आये थे.आखिरकार पिताश्री ने
अपने कलेजे पर पत्थर रख कहा- जला, अगर तुझे सदाव्रत जारी रखना है तो तू मुझसे अलग हो जा.अब आगे मैं इसकी इजाजत नहीं दे सकता.पिताश्री के कठोर वचन सुनकर जलाराम को ठेस पहुँची.ठीक है बापूजी, जैसी प्रभुइच्छा.इतना कहकर जलाराम चुप हो गए.फिर पिताश्री के आदेश के अनुसार उन्होंने दुकानदारी से अपना नाता
तोड़ लिया.
दिन बीतने लगे. जलाराम अब संत महात्माओं की संगत में ज्यादा रहने लगे.देर रात घर लौटते.भोजन करने घर
कभीकभार आते.प्रभु नाम का प्रसाद ही उनका भोजन बन गया.माता राजबाई अपने गोपाल,जलाराम को भूखे भजन करते देख व्याकुल हो गयीं.उन्होंने जलाराम के पिताश्री को बहुत समझाया, लेकिन वे नहीं माने.अपने फैसले पर वे अडिग थे.जलाराम की पत्नी वीरबाई भी कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थीं. अपने पति के स्वभाव को
वे अच्छे से जानती थीं.जलाराम अब केवल प्रभुभक्ति, संत महात्मा और दीनदुखियों की सेवा में ही लगे रहते थे. ( जारी ...)                      
                        
  

    
                 
                

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 4 )

सोलह साल की आयु में ही विवाह : आयु बढ़ने के साथ साथ बालक जलाराम का व्यक्तित्व भी राम भक्ति की वजह से परिपक्व होने लगा था.अंतर्ध्यान हुए महात्मा के आशीर्वाद के बाद उनमे चमत्कारिक रूप से परिवर्तन दिखने लगा था.मानो उन्हें अपने पूर्वजन्म का बोध हो गया हो, उनके आचार, विचार और व्यवहार में बदलाव झलकने लगा था.हर समय जुबान पर राम नाम हावी रहता था.घर हो या स्कूल, हर जगह राम धुन से वे भक्ति की गंगा प्रवाहित कर देते थे.उनकी दिनचर्या भी बेहद व्यवस्थित थी.सूर्योदय से पहले उठ कर स्नान के बाद प्रतिदिन वे मंदिर पहुँच जाते थे.संध्याकालीन आरती के समय भी वे बराबर उपस्थित रहते थे.दोनों वक़्त पूजा आरती के बाद ही वे घर भोजन करने जाते थे.घर में भी सुबह शाम जब माता राजबाई पूजा करने बैठती थीं,तब जलाराम भी दोनों हाथ जोड़ पीछे खड़े होकर प्रार्थना करते थे.इस तरह एक आदर्श भक्त, सेवाभावी पुत्र और विद्यार्थी बतौर उनकी किशोरावस्था बीतने लगी.
जलाराम रघुवंशी लोहाना क्षत्रिय थे.जब वे १४ साल के हुए, तब हिन्दू धर्मं के अनुसार उनका यज्ञोपवित (जनेऊ)
संस्कार हुआ.यह विधि बड़े भाई बोधा के विवाह के समय सम्पन्न हुई थी.इसी दौरान जलाराम की शालेय शिक्षा
पूरी हुई थी.उस समय वीरपुर गाँव में हाई स्कूल और कॉलेज न होने की वजह से वे आगे की शिक्षा पूरी नहीं कर सके.अब वे पिताश्री की दुकानदारी में सहायता करने लगे थे.इसके बावजूद उनकी प्रभुभक्ति और सेवा कार्य में कोई
अंतर नहीं आया.गाँव में किसी के यहाँ भी भजन कीर्तन हो तो वे तत्काल पहुँच जाते थे.संत महात्मा आते तो उनकी सेवा में जुट जाते.कोई भिक्षुक मिलता तो पहले उसे भोजन कराते, खुद बाद में खाते.
इसी दौरान जलाराम की सगाई की चर्चा चली.पिताश्री प्रधान ठक्कर का परिवार आसपास के इलाके में प्रतिष्ठित
माना जाता था.जरूरत के वक़्त लोग इनसे सलाह मशविरा किया करते थे.रिश्तेदारी जोड़ने के लिए कई परिवार लालायित थे.आटकोट गाँव के निवासी प्रागजी सोमैया का परिवार भी नामचीन था.इनकी पुत्री वीरबाई भी विवाह
के योग्य हो गई थी.इसलिए उनके माता पिताश्री का चिंतित होना स्वाभाविक था.प्रागजी स्वयं धार्मिक प्रवृत्ति के
थे, इसलिए उनके ह्रदय में जलाराम दामाद के रूप में बस गए थे.मौका देख कर एक दिन उन्होंने प्रधान ठक्कर के
घर जलाराम से वीरबाई के विवाह का प्रस्ताव भेजा.रिश्ता अच्छा था, इसलिए सहर्ष स्वीकार कर लिया गया.जलाराम की सगाई की बात भी तय हो गई.उस जमाने में अभिभावक अपने बच्चों से रिश्ते के लिए सहमति
लेना जरूरी नहीं समझते थे.जलाराम के मामले में भी ऐसा ही हुआ.आखिरकार लोहाना रीतिरिवाज के अनुसार
जलाराम की सगाई कर दी गई.
सगाई होते ही जलाराम बैचेन रहने लगे.गृहस्थ सांसारिक जीवन के प्रति उनकी कोई रुचि नहीं थी.वे इसे जी का जंजाल समझते थे.सारा जीवन वे केवल प्रभुभक्ति में ही बिताने के इच्छुक थे.एक दिन दुखी होकर उन्होंने पिताश्री
से कहा-बापूजी, आपने मुझे ससार के इस जंजाल में क्यों उलझा दिया? मैं तो प्रभु माया में आसक्त हूँ,संसार की
छाया से दूर रहना चाहता हूँ.जलाराम की मनोव्यथा उन्होंने शांत मन से सुनी.हालांकि पुत्र की प्रभुभक्ति के मद्देनजर इसकी आशंका उन्हें पहले से ही थी.उन्होंने जलाराम को समझाने का पूरा प्रयास किया.पिताश्री के दबाववश वे मनमनोस कर रह गए.वे हर पल उदास रहने लगे. चाचा वालजी भतीजे जलाराम की भक्तिभावना से
अनभिज्ञ न थे.उसके अंतर्द्वंद को वे भलीभांति समझ रहे थे.गृहस्थ जीवन कैसे निभाउंगा? यह प्रश्न जलाराम को
परेशान कर रहा था.लेकिन चाचा वालजी ने जलाराम को सुझाव देते हुए कहा- सब काम करो, किन्तु हृदय में भगवान को बसा कर रखो.माता, पिताश्री, पत्नी, संतान सबको साथ लेकर रहो और उनकी सेवा करो. बेझिझक गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करो, इसे भी प्रभुभक्ति की तरह मानो. गृहस्थ जीवन तुम्हारी राम भक्ति और सेवा कार्य में कहीं बाधा नहीं पहुंचाएगा. चाचा ने भतीजे को विस्तार से गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियों और महत्व के बारे में  समझाया.ठीक है,जैसी प्रभु राम की इच्छा,यह कहकर जलाराम ने अपने मन को दिलासा देकर विवाह
के लिए सहमत हो गए.जलाराम की स्वीकृति पाते ही परिवार वाले प्रसन्न हो गए.फिर जलाराम भी पहले की तरह
अपने कार्य में व्यस्त हो गए.समय गुजरता गया.आखिरकार १६ वर्ष की उम्र में जलाराम का विवाह आटकोट निवासी प्रागजी सोमैया की पुत्री वीरबाई के साथ धूमधाम से संपन्न हुआ.    
                          
                                                           
              

गुरुवार, 17 नवंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 3 )

प्रभु स्वयं बालक जलाराम के दर्शन करने आये : बालक जलाराम की सेवा भावना के किस्से दिन प्रतिदिन चर्चित होने लगे थे. चमत्कार का सिलसिला शुरू हो गया था. उनके घर एक बुजुर्ग महात्मा के आगमन की घटना तो विस्मयकारी थी. हुआ यूँ , एक दिन वयोवृद्ध महात्मा वीरपुर गाँव पधारे. वे कहीं और जगह जाने के बजाय सीधे बालक जलाराम के घर की चौखट पर आकर खड़े हो गए. इसके पीछे उनका क्या उद्देश्य निहित था ,वही जानते थे. उस समय बालक जलाराम के पिता प्रधान ठक्कर घर पर मौजूद नहीं थे. वे अपनी दुकान पर थे. जबकि माता राजबाई घर के कामकाज में जुटी थीं.
उधर घर के सामने वाली गली में कुछ बच्चे खेल रहे थे. उस वयोवृद्ध महात्मा ने सबसे पहले उन बच्चों की तरफ खोजपूर्ण दृष्टि डाली. वे थोड़े निराश हुए. फिर उन्होंने जोर से जयकारा लगाया- जय सीताराम, जय सीताराम. जयकारा सुनते ही तत्काल माता राजबाई घर से बाहर आयीं. संत महात्माओं के आथित्य सत्कार और सेवा के लिए सदा आतुर रहने वाली माता राजबाई ने उस महात्मा को देखते ही हाथ जोड़कर नम्रता से कहा- आइये पधारिये महाराज जी.लेकिन उस महात्मा की नजरें तो बालक जलाराम को तलाश रहीं थीं.उन्होंने तत्काल पूछा-
मैय्या, तुम्हारा मंझला पुत्र कहाँ है? खेलता होगा आसपास कहीं...इतना कहकर राजबाई ने गली में खेलते हुए बच्चों की ओर नजरें दौड़ाई. महात्मा ने आदेश दिया- उसको यहाँ बुलाओ. राजबाई ने निवेदन किया- आप विराजें,
भोजन करिए, वह अभी आता ही होगा.महात्मा ने बात काटते हुए कहा- नहीं, नहीं, ये सब बाद में, पहले तुम मुझे
अपने मंझले पुत्र के दर्शन कराओ.राज बाई ने पहले भोजन करने के लिए उनसे बहुत आग्रह किया लेकिन उस महात्मा ने अपना हठ नहीं छोड़ा.आखिरकार राज बाई ने खेल रहे बच्चों की तरफ देख कर जोर से पुकारा- जला...
ओ जला...सामने से कोई जवाब न मिलने पर राजबाई खुद उन बच्चों के पास गयीं.बालक जलाराम को वहां न पाकर वे निराश हो गयीं.तत्काल लौट कर उन्होंने महात्मा से कहा-महाराज जी आप थोड़ी देर बैठिये, जला आसपास कहीं दिख नहीं रहा है,मैं उसे खोज कर ले आती हूँ.महात्मा ने हठपूर्वक कहा- नहीं, मैं बैठने वाला नहीं,
पहले तुम अपने पुत्र को खोज कर यहाँ ले आओ. उससे बगैर मिले मैं नहीं जाउंगा. ठीक है... इतना कहकर राजबाई
बालक जलाराम को खोजने निकल पडी.आसपास के बच्चे भी उनके साथ हो लिए.
सब लोग जब गाँव की सीमा पर पहुंचे तब एक बच्चा चिल्ला उठा- देखो ओ रहा जला.राजबाई ने देखा पुत्र जला थोड़ी दूर वृक्ष के नीचे एक भिक्षुक को अपने हाथों से कुछ खिला रहा था.माता ने फिर जोर से उसे पुकारा.जला ने घूम कर देखा तो माता पुकार रही थी.बालक जलाराम ने जवाब दिया- बा, आता हूँ.भिक्षुक को खिला कर वह दौड़ता
हुआ माता के पास आ पहुंचा और पूछा- बा, कहिये कुछ काम था क्या? माता ने गर्वित होकर कहा- अपने घर एक
महात्मा आये हैं. मुझे मालूम है,भिक्षुक को खिला कर मैं घर आने ही वाला था.पुत्र का यह जवाब सुनकर माता को
आश्चर्य हुआ.फिर सब चल पड़े.बालक जलाराम आगे आगे, बाकी सब पीछे पीछे.
सब जब घर पहुंचे तो देखा महात्मा जस के तस उसी जगह खड़े थे. उन्हें देख कर बालक जलाराम ने साष्टांग दंडवत प्रणाम किया. आशीर्वाद देते हुए महात्मा ने पूछा- क्यों बच्चा, मुझे पहचानते हो? बालक जलाराम ने सौम्य
मुस्कराहट के साथ जवाब दिया-वाह कृपालु, आपको कौन नहीं पहचानता? दोनों हाथ जोड़ कर उसने शीश नवाया. महात्मा ने बालक जलाराम के सर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया और पल भर में अंतर्ध्यान हो गए.न बैठे, न भोजन किया, केवल बालक जलाराम के दर्शन कर अंतर्ध्यान होने वाले महात्मा कौन थे? किसी को समझ में नहीं
आया.माता राजबाई ने दुखी स्वर में कहा- जला,ये गलत हुआ.महात्मा घर आये और बिना भोजन किये वापस चले गए.मुझे अच्छा नहीं लगा.बालक जलाराम ने स्मित मुस्कान के साथ दिलासा देते हुए कहा- बा,तू अनावश्यक परेशान हो रही है, वे और कोई नहीं, बल्कि सबके अन्नदाता थे.पुत्र का यह रहस्यमयी जवाब सुन कर माता राजबाई आश्चर्यचकित भी हुई और प्रसन्न भी. उन्हें प्रभु के दर्शन होने की अनुभूति हुई.फिर सबने बालक जलाराम से पूछा-तो क्या वे.......सवाल पूरा होने से पहले बालक जलाराम मंद मंद मुस्कुराते हुए उस जगह पर गए, जहाँ महात्मा खड़े थे. वहां की मिटटी अपने माथे पर लगा कर प्रणाम किया. ( जारी.... )
                                                      
                                 

बुधवार, 16 नवंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeevan-kathaa ( 2 )

ककहरा लिखने की शुरूआत राम नाम से : महात्मा रघुवीर दास की भविष्यवाणी के अनुरूप ही शिशु जलाराम का अलौकिक स्वरुप दिखने लगा था. इनके जन्म के १२ दिन बाद जब नामकरण की विधि हुई तब भी सब लोग बेहद आनंदित थे. बोधा और जलाराम दोनों भाई की जुगलबंदी चर्चित हो गई. माता राज बाई को जब तीसरा पुत्र हुआ तो इसे भी ईश्वरीय उपहार माना गया. इसीलिये उसका नाम देवजी रखा गया. इन तीनों भाइयों में बालक जलाराम तुलनात्मक रूप से ज्यादा तेजस्वी थे. बाल्यकाल से ही उनमे चमत्कारिक लक्षण दिखने लगे थे. उनके सौम्य और निराले हावभाव, गतिविधि तथा दिनचर्या से जाहिर होने लगा था वे भविष्य में महान संत पुरूष होंगे. उनके स्वभाव में प्रेम, करूणा और भक्ति का अनूठा सामंजस्य था.
छोटी उम्र से ही बालक जलाराम ने स्कूल जाना शुरू कर दिया था. ककहरा लिखने की शुरूआत उन्होंने राम नाम से की थी. स्लेट में वे केवल राम राम ही लिखते थे. इसमें उनको आत्मिक संतोष मिलता था. एक दिन सहपाठी भीमा ने छात्र जलाराम के विद्या अध्यन के तरीके की चुगली शिक्षक से की. उन्होंने बालक जलाराम से पूछा- स्लेट में पाठ के बदले क्या लिख रहे हो? बालक जलाराम ने बिना कुछ बोले स्लेट शिक्षक को दे दी. बालक जलाराम सहित सभी बच्चों को लग रहा था शिक्षक गुस्सा होंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि शिक्षक धार्मिक प्रवृत्ति के थे. स्लेट में राम राम लिखा देख कर वे खुश हो गए. बालक जलाराम के प्रति उनका स्नेह और ज्यादा हो गया. उन्होंने
पूछा- जला, तुझे यह किसने सिखाया? बालक जलाराम ने मासूमियत से जवाब दिया- यह तो मालूम नहीं, हाथ में जब चाक पकड़ता हूँ तो स्लेट में अपने आप राम राम लिखा जाता है. यह जवाब सुन कर शिक्षक की आँखें भक्तिभाव से छलक उठीं. उन्हें अहसास हो गया यह बालक भविष्य का एक महान संत है. शिक्षक ने आगे कभी भी बालक जलाराम को टोका नहीं, बल्कि उसकी राम भक्ति को प्रोत्साहित ही किया. फिर तो क्लास में ही बालक जलाराम शिक्षक के आग्रह पर राम धुन गाने लगे. सहपाठी भी इसमे सहभागी बनते थे. इस दौरान स्कूल के पास
से गुजरने वाले गाँव वाले भी भक्तिभाव से खड़े होकर राम धुन सुनते थे. इस तरह स्कूल जीवन से ही बालक जलाराम ने राम नाम की अलख जगाना शुरू कर दी थी.
बचपन से ही बालक जलाराम में दूसरों के प्रति प्रेमभाव झलकने लगा था. माता राज बाई जब दोपहर को स्कूल में  बालक जलाराम के लिए भोजन का डब्बा लाती थीं तो वे अकेले खाने के बजाय सहपाठियों में मिलबांट कर खाते
थे. इससे उनको खुशी मिलती थी. इस तरह उनमे अन्न दान की प्रवृति भी बाल्यकाल से ही बढ़ती रही. सेवाभाव
भी लगातार बढ़ रहा था. किसी बच्चे को जब चोट लगती थी तब वे खुद उसकी सेवा में जुट जाते थे. बच्चा हो या बुजुर्ग हर किसी की मदद करने आगे रहते थे. गाँव वाले अपने बच्चों को जलाराम जैसा बनने की सीख देते थे.
सुबह काम पर निकला कोई व्यक्ति अगर बालक जलाराम के दर्शन कर लेता था तो उसे भरोसा रहता उसका दिन
अच्छा बीतेगा. काम में कोई बाधा नहीं आयेगी.
बालक जलाराम में परोपकार की भावना बलवती थी. ठण्ड के दिन थे. वे अपने घर के चबूतरे पर बैठे थे, तभी एक फटेहाल भिखारी पास से गुजर रहा था. बालक जलाराम ने देखा वह ठण्ड से काँप रहा था. उन्होंने उसे कुछ देर खड़े रहने को कहा. वे दौड़ कर घर से गरम वस्त्र ले आये और उसे देकर चबूतरे पर फिर बैठ गए. भिखारी आशीर्वाद देकर चला गया. बाद में जब घर में गरम वस्त्रों की जरूरत महसूस हुई, तब खोजबीन के दौरान बालक जलाराम ने
निर्भय होकर बता दिया- गरम वस्त्र मैंने ठण्ड से कांपते एक भिखारी को दे दिए हैं. माता पिता ने बालक जलाराम की सेवा भावना से प्रसन्न होकर उसे गले लगा लिया. ( जारी ... )

मंगलवार, 15 नवंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeevan-kathaa (hindi novel on Jalaram Bapa)

( दिनेश ठक्कर "बापा" )
 रोटी में राम देखने वाले और भूखे को अन्न देने वाले सेवायोगी संत जलाराम बापा का जन्म गुजरात के वीरपुर गाँव में संवत १८५६, कार्तिक शुक्ल पक्ष ७, सोमवार, ता. ४-११-१७९९ को हुआ था. भगवान् श्री राम की तरह इनका भी जन्म अभिजीत नक्षत्र में हुआ था. गुजराती लोहाना परिवार में जन्मे जलाराम बापा के पिता का नाम प्रधान ठक्कर और माता का नाम राज बाई था.   
बचपन से ही प्रभु भक्ति :  जलाराम बापा बाल्यकाल से ही प्रभु भक्ति में लगे रहते थे. दरिद्र नारायण का प्रतिबिम्ब बचपन से ही इनमें झलकने लगा था. माता पिता का योगदान इसमे महत्वपूर्ण था. उच्च संस्कार की भूमिका भी महती थी.
सौराष्ट्र(गुजरात) के वीरपुर गाँव में जलाराम बापा के पिता प्रधान ठक्कर की घरेलू सामान की एक छोटी सी दुकान थी. प्रधान ठक्कर दुकान में बैठते थे और उनके छोटे भाई वालजी पास के शहर से सामान खरीद कर लाते थे. घर पहुँच सेवा में भी वे मदद करते थे. वीरपुर गाँव में उस समय धनिकों की संख्या कम थी. गाँव वालों के यहाँ हर अवसर पर वे सहायता करते थे. जलाराम बापा के पिता भले और सेवक व्यापारी के रूप में विख्यात थे. 
जलाराम बापा की माता राज बाई भी दुखियों की सेवक थी. संत महात्माओं के प्रति उनमें बेहद आदर भाव था. घर आये अथिति संत महात्माओं की आवभगत में वे कोई कसर बाकी नहीं रखती थीं. माता के संस्कारों का प्रभाव जलाराम बापा पर होना स्वाभाविक था. जिस दिन जलाराम बापा का जन्म हुआ, उस दिन गाँव आये संत महात्माओं में भी सहज रूप से प्रसन्नता व्याप्त थी. प्रभु के प्रागट्य की अनुभूति उन्हें हो रही थी.संत के रूप में जलाराम बापा के जन्म की भविष्यवाणी त्रिकाल ज्ञानी महात्मा रघुवीर दास ने की थी. राज बाई के पहले पुत्र बोधा जब ५ साल के थे तब एक दिन अपनी मंडली के साथ महात्मा रघुवीर दास उनके घर आये थे. सेवा सत्कार से खुश होकर उन्होंने राज बाई को आशीर्वाद देते हुए कहा था -मैया तुम्हारा पहला पुत्र बोधा तो सामान्य स्थिति में रहेगा, लेकिन दूसरा पुत्र जो जन्म लेगा वह प्रभु का महान भक्त होगा, तुम्हारे कुल का नाम पूरी दुनिया में रोशन करेगा, दुखियों और भूखे का सेवक बनेगा, गुणगान करते हुए लोग भी इसका अनुसरण करेंगे. महात्मा रघुवीर दास की भविष्यवाणी सच साबित हुई. 
जलाराम बापा का जब जन्म हुआ तब कृष्ण जन्म उत्सव जैसा वातावरण बन गया था. लोग शिशु जलाराम के दर्शन कर खुद को धन्य मान रहे थे. माता राज बाई ने रसोईघर सबके लिए खोल दिया था. भोर होते तक भजन कीर्तन जारी रहा. संत भूमि कहे जाने वाले सौराष्ट्र ने जलाराम बापा के रूप में एक महान संत पूरी दुनिया को दिया है. ( जारी......)                                       .          

सोमवार, 14 नवंबर 2011

प्रधान ठक्कर की वंशावली

o प्रधान ठक्कर और राज बाई के तीन पुत्र - बोधा भाई, जलाराम बापा और देवजी भाई.
० बोधा भाई के पुत्र देवसी भाई.
० देवसी भाई के तीन पुत्र- रवजी भाई, काणा भाई और जेठा भाई.
० रवजी भाई के पुत्र हेमराज भाई.
० जेठा भाई के पुत्र बावा भाई.
० हेमराज भाई के पुत्र लाभुलाल भाई.
० बावा भाई के चार पुत्र - जगजीवन भाई, केशवलाल भाई, भायालाल भाई और बटुक भाई.
० जलाराम बापा और वीर बाई की पुत्री जमना बेन.
० जमना बेन और भक्तिराम भाई के दो पुत्र - काणा भाई और रामजी भाई.
० काणा भाई और देव बाई की संतान -हरिराम भाई, कुंवर बा, राम बा और कसणी बा.
० हरिराम भाई और मोंघी बा के दो पुत्र - गिरधरराम भाई और वृजलाल भाई.
० गिरधरराम भाई और जयालक्ष्मी बेन की संतान - जयसुखराम भाई, नटवरलाल भाई, रसिकलाल भाई और तीन पुत्रियाँ.
० जयसुखराम भाई और कांता बेन के पुत्र रघुराम भाई.
० मौजूद वंशज रघुराम भाई वीरपुर में रहते है.                                                  

जलाराम बापा का वंश-घटनाक्रम

० जलाराम बापा का जन्म : संवत १८५६, कार्तिक शुक्ल ७, सोमवार , ता. ४-११-१७९९
० यज्ञोपवीत : संवत १८७०
० विवाह  : संवत १८७२  
० प्रभु का पहला चमत्कार देखा : संवत १८७३
० चारों धाम की यात्रा की : संवत १८७४
० सदाव्रत प्रारंभ किया : संवत १८७६, माघ शुक्ल २, सोमवार, ता. १७-१-१८२०
० जलाराम बापा की पत्नी वीर बाई को प्रभु ने झोली-डंडा अर्पित किया : संवत १८८६ 
० वीर बाई का स्वर्गवास : संवत १९३५, कार्तिक कृष्ण ९ , सोमवार ता. १८-११-१८७८
० जलाराम बापा का स्वर्गवास : संवत १९३७, माघ कृष्ण १०, बुधवार, ता. २३-२-१८८१
० हरिराम जी का जन्म : संवत १९२४, श्रावण कृष्ण १४, सोमवार, ता. १७-८-१८६८  
० हरिराम जी ने कामकाज सम्हाला : संवत १९३७, फाल्गुन शुक्ल ७, सोमवार, ता. ७-३-१८८१
० हरिराम जी यात्रा पर गए : संवत १९६८, अधिक माह आषाढ़ कृष्ण १, रविवार, ता. ३०-६-१९१२
० हरिराम जी का स्वर्गवास : संवत १९६८, श्रावण शुक्ल ९, बुधवार, २१-८-१९१२
० गिरधर राम जी का जन्म : संवत १९६३, मार्गशीर्ष शुक्ल ८, शुक्रवार, २३-११-१९०६
० गिरधर राम जी ने कार्य सम्हाला : संवत १९६८, श्रावण कृष्ण ६, सोमवार, ता. २-९-१९११
० जयसुख राम जी का जन्म : संवत १९८४, कार्तिक शुक्ल ६, सोमवार, ३१-१०-१९२७
० रघुराम जी (मौजूद वंशज) का जन्म : संवत २००८, मार्गशीर्ष कृष्ण ११, मंगलवार, २५-१२-१९५१                                  

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

जलाराम ने सबको है तारा

वीरपुर है भक्तों का प्यारा
जलाराम ने सबको है तारा
सेवा में बीता जीवन सारा
संतों में स्थान है न्यारा

रघुवंश का अनूठा अवतारा
माता का जला दुलारा
सदाव्रत का दिया है नारा
दुखियों का है तारणहारा

भूखे को माना प्राणों से प्यारा
भक्तों को कष्टों से है उबारा
मन से जिसने भी पुकारा
उसकी भक्ति को है स्वीकारा

प्रभु राम का सेवक है प्यारा
भेदभाव से किये किनारा
संकट में सभी को देते सहारा
जलाराम को पूजे जग सारा

@ दिनेश ठक्कर बापा