शनिवार, 3 दिसंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 17 )

वृद्ध महात्मा की मांग पर पत्नी वीरबाई का दान किया : जलाराम बापा दीनदुखियों, भिक्षुकों, संत महात्माओं की सेवा करते हुए सदाव्रत-अन्नदान अभियान और प्रभु भक्ति में इतने व्यस्त  हुए उन्हें समय बीतने का आभास ही नहीं होता. समय का चक्र घूमता रहा. अब वे तीस बरस के हो गए थे. उम्र के इस पड़ाव में उनका सेवा भावी और धार्मिक व्यक्तित्व अत्यंत परिपक्व हो गया था. गृहस्थ जीवन का निर्वाह केवल बाहरी और सामाजिक आवरण था. भीतर का सच तो यह था जलाराम बापा और उनकी पत्नी वीरबाई, दोनों ने ही सांसारिक मौज मस्ती, मोह माया, लोभ, मान-अपमान आदि से परे होकर निःस्वार्थ सेवा और भक्ति को ही जीवन का मुख्य लक्ष्य बना लिया था. जलाराम बापा के समस्त सेवा कार्यों में पत्नी वीरबाई का प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष सहयोग लोगों के लिए प्रेरणादायक था. उनकी प्रभु भक्ति में
वे सदैव सहायक होतीं. वीरबाई अपने पति को प्रभु तुल्य मान कर उनके हर आदेश और इच्छा का सम्मान करते हुए
उसे तत्काल पूर्ण करती थीं. जलाराम बापा के अनुयायी और
गांववासी वीरबाई को गृह देवी मान कर आदर सम्मान देते.
जलाराम बापा के सदाव्रत-अन्नदान कार्य की वे प्रमुख प्रभारी थीं. रसोई तैयार करने का दायित्व भी इन्हीं का था. भोजन के लिए आये अथितियों की संख्या अधिक होने पर भी वे जिम्मेदारी से कतराती और थकती नहीं. सदाव्रत-अन्नदान अभियान को प्रारम्भ हुए बीस वर्ष हो चुके थे, लेकिन वीरबाई के चहेरे पर कभी भी थकान के कोई लक्षण नहीं दिखे. और न ही जलाराम बापा कभी इससे ऊबे नजर आये. बल्कि दोनों में दिन प्रतिदिन उत्साह और लगन में वृद्धि दृष्टिगोचर होती.
यूं तो भक्ति और सेवा कार्यों के चलते जलाराम बापा को कई बार कठिन परीक्षा और विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पडा था. किन्तु लक्ष्य के पक्के होने के कारण वे हर कसौटी पर खरे उतरे थे. लेकिन आज मामला
कुछ हटकर था. धर्म संकट की यह विषम और अप्रत्याशित परिस्थिति किसी और ने नहीं, बल्कि घर आये एक वृद्ध महात्मा ने उत्पन्न कर दी थी. दरअसल हुआ यूं, एक वृद्ध महात्मा ने आँगन में कदम रखते ही जोर से आवाज लगाईं- "जला भगत कहाँ है?, बुलाओ उसे". जलाराम बापा उस समय अथिति साधुसंतों को भोजन परोसने में व्यस्त थे. एक सेवक ने उन्हें वृद्ध महात्मा द्वारा पुकारे जाने की जानकारी दी. जलाराम बापा तत्काल उस वृद्ध महात्मा के पास पहुँच गए. उन्होंने पहले उनके चरण स्पर्श किये फिर दोनों हाथ जोड़ कर निवेदन किया- "बाबा जी, आइये आपके हाथ धुला देता हूँ, तत्पश्चात भोजन ग्रहण कीजिये". उस वृद्ध महात्मा ने व्यंगात्मक लहजे में कहा- "बच्चा, अच्छा तो तू है भगत जला!, सुना है आजकल बहुत बड़ा भगत बन गया है". जलाराम बापा ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया- "ऐसा नहीं है बाबा जी, मैं तो प्रभु श्रीराम और आप लोगों का तुच्छ सेवक मात्र हूँ".
वृद्ध महात्मा ने जलाराम बापा के जवाब से असंतुष्ट होकर कहा- "बच्चा, मुझसे मत कुछ छिपा, मैं तेरे बारे में सब जानता हूँ". फिर उन्होंने जलाराम बापा को आशीर्वाद देते हुए कहा- "प्रसन्न रहो बच्चा, इश्वर तेरा कल्याण करे".
जलाराम बापा ने वृद्ध महात्मा को सम्मानपूर्वक आसन पर बैठाया और कहा- "बाबा जी, मैं यहीं आपके हाथ धोने
के लिए पानी ले आता हूँ, तत्पश्चात आप भोजन ग्रहण कीजिएगा". लेकिन उन्होंने हठपूर्वक प्रत्युत्तर दिया- "बच्चा, मैं भोजन तो क्या, अन्न का एक दाना भी ग्रहण नहीं करूंगा". जलाराम बापा यह सुन कर दुखी हो गए. पहली बार उनके यहाँ किसी आगंतुक अथिति ने भोजन करने से साफ़ इनकार कर दिया. उन्होंने निराशा भरे स्वर में कहा- "बाबा जी, यहाँ से कभी भी कोई संत महात्मा भूखे नहीं लौटे हैं. आपको भी मैं बिना भोजन कराये कैसे जाने दे सकता हूँ. यदि आप भूखे रहेंगे तो मैं भी भूखा रहूँगा". वृद्ध महात्मा अपनी जिद पर अड़े रहे. नाराज होते हुए उन्होंने कहा- "बच्चा, कान खोल कर सुन ले, मैं दूसरों की तरह यहाँ भोजन करने नहीं आया हूँ. मैं तो गिरनार
की ओर तीर्थ यात्रा पर निकला हूँ. रास्ते में वीरपुर आया, इसलिए रूक गया. तेरा नाम बहुत सुना है, इस कारण मिलने यहाँ चला आया". इतना कह कर वे खड़े ही हुए थे अचानक गिर पड़े. जलाराम बापा ने उन्हें उठाया और आदर के साथ आसन पर पुनः बैठाया. फिर सेवा स्वरुप उनके पैर की मालिश करने लगे. वृद्ध महात्मा ने खुश होने के बजाय नाराज होते हुए कहा- "बच्चा, यह सब करने की आवश्यकता नहीं है, अभी तो तू मेरी सेवा कर देगा, किन्तु बाद में इस बूढ़े की सेवा कौन करेगा, न कोई मेरे आगे है न पीछे. इसलिए मैं कहता हूँ अपना समय मत खराब कर, थोड़ी देर आराम करने के बाद मैं स्वयं यहाँ से चला जाउंगा". यह उलाहना सुन कर जलाराम बापा ने उन्हें टटोलते हुए पूछा- "बाबा जी, सेवा करना मेरा धर्म है. भोजन के अतिरिक्त यदि आपकी कोई और इच्छा है तो कृपया बताइये, मैं उसे पूर्ण करने का हर संभव प्रयास करूंगा". वृद्ध महात्मा क्षण भर शांत रहने के बाद गंभीर होकर बोले- "बच्चा, तू क्यों पीछे पडा है, मेरी इच्छा ऐसी है, जो कभी पूरी होने वाली नहीं है". जलाराम बापा ने दृढ़ता पूर्वक कहा- "बाबा जी, आप बताइये तो सही, क्या मेरे पर विश्वास नहीं है". अधिक आग्रह होता देख अंततः वृद्ध महात्मा ने कहा- "तो सुन बच्चा, इस वृद्धावस्था में मेरी देखभाल करने वाला कोई नहीं है. इस बुढापे की जो लाठी बन सके, वैसा एक सेवक मुझे चाहिए". जलाराम बापा ने प्रसन्न होकर कहा- "बाबा जी, इतनी सामान्य बात कहने में आप संकोच कर रहे थे. आप आदेश करें तो मैं आपके साथ सेवक बन कर चलने को तैयार हूँ. आपकी सेवा कर मैं धन्य हो जाउंगा". जलाराम बापा के इस प्रस्ताव को खारिज करते हुए वृद्ध महात्मा ने दो टूक कहा- "नहीं बच्चा, तेरे स्तर का यह काम नहीं है. यदि तू सेवक बन कर मेरे साथ चलेगा तो तेरा यहाँ का सदाव्रत बाधित होगा. मैं तेरे इस पुण्य कार्य में बाधक नहीं बनना चाहता". जलाराम बापा ने जोर देते हुए कहा- "बाबा जी, क्षमा करिएगा, छोटा मुंह बड़ी बात, सेवा कार्य में स्तर नहीं देखा जाता. मेरे साथ चलने से यहाँ का सदाव्रत प्रभावित नहीं होगा, क्योंकि यह तो भगवान भरोसे चल रहा है, मैं तो निमित्त मात्र हूँ". वृद्ध महात्मा ने अपनी बात पर अडिग रहते हुए कहा- "नहीं बच्चा, मैंने जो कह दिया उसे अंतिम समझ". जलाराम बापा ने जिज्ञासावश उनसे पूछा- "बाबा जी, तो फिर बताइये मैं और क्या कर सकता हूँ?" उन्होंने धीमे स्वर में कहा- "बच्चा, मैंने सुना है तेरी पत्नी भी अत्यंत सेवाभावी है. इस बुढापे में ऐसी सेवाभावी स्त्री मुझे सेवक के रूप में मिल जाए तो मेरी सब परेशानी दूर हो जायेगी. तू  दानी भगत है, अपनी पत्नी तू मुझे दान कर दे. बता, स्वीकार है".यह अप्रत्याशित मांग सुन कर पल भर के लिए जलाराम बापा सन्न रह गए. ऐसा लगा मानो उनके पैरों तले धरती खिसक गई हो. उन्होंने अब तक जरूरतमंदों को कई वस्तुओं का दान किया था, लेकिन धर्मपत्नी का दान करने कोई कहेगा, यह कल्पना से परे था. उनकी ह्रदय की धड़कने बढ़ गई. वीरबाई उनकी केवल पत्नी ही नहीं थीं, वरन हर सेवा कार्य और भक्ति में निकटवर्ती प्रमुख सहायक भी थीं. उनके बिना कोई भी कार्य आसानी से पूर्ण नहीं होता था. क्षण भर बाद दिल पर पत्थर रखते हुए उन्होंने अपने को सामान्य किया. फिर प्रभु श्रीराम का स्मरण कर जलाराम बापा ने वृद्ध महात्मा को स्वीकृति देते हुए कहा- "ठीक है बाबा जी, जैसा आपका आदेश. आपकी इस इच्छा को पूरी करने से वृद्धावस्था की सभी परेशानी समाप्त हो जायेगी, तो मुझे भी प्रसन्नता होगी. आप थोड़ा रूकिये, मैं वीरबाई को राजी कर बुला लाता हूँ".
जलाराम बापा सीधे वीरबाई के पास गए, और उन्हें सारा वृत्तांत सुनाया. सुन कर पत्नी वीरबाई सहज रहीं. अभी  तक पति का हर आदेश उन्हें सिरोधार्य रहा, तो अब कैसे न होता. पति उनके लिए प्रभु की तरह थे. वीरबाई ने सहमति जताते हुए कहा- "नाथ, इसके लिए पूछने की क्या बात है. आपकी आज्ञा प्रभु की आज्ञा सदृश्य है. आप जैसा कहेंगे वैसा मैं करूंगी". यह सुन कर जलाराम बापा की आँखों में खुशी के आंसू आ गए. उन्होंने रूंधे गले से कहा- "धन्य हो तुम, जो इतना साहसिक निर्णय लिया है. संत महात्माओं की सेवा करना बहुत पुण्य का काम है. जाओ, पिताश्री तुल्य वृद्ध महात्मा की सेवा कर धर्म का मान रखो. मुझे विश्वास है तुम प्रसन्न भाव से अपना कर्त्तव्य निभाओगी". वीरबाई ने जलाराम बापा के चरण स्पर्श कर नम आँखों से कहा- "जो आज्ञा नाथ. आपकी सेवा में कभी मुझसे कोई कमी या भूल हो गई हो तो मुझे क्षमा कीजिएगा. मैं कहीं भी रहूँ, मेरे ह्रदय में सदैव आप बसे रहेंगे".
उधर, सदाव्रत-अन्नदान कार्यक्रम में उपस्थित साधुजन, महात्मा भी इस पूरे घटनाक्रम के साक्षी थे. उस वृद्ध महात्मा के साथ वीरबाई को सेवक बतौर दान कर भेजने जलाराम बापा का फैसला जान कर सभी अचंभित थे.
एक दो अनुयायियों के जरिये यह बात तत्काल पूरे गाँव में आग की तरह फ़ैल गई. वीरपुर के नामदार ठाकोर मूलराज सिंह द्वितीय की हवेली तक भी यह बात पहुँच गई. मूलराज सिंह हतप्रभ रह गए. वे बिना वक़्त गवाए
समझाइश देने जलाराम बापा के घर पहुँच गए. उन्हें देख कर जलाराम बापा ने पूछा- "ठाकोर साहेब, इस समय आप यहाँ?, मेरे लिए कोई सेवा हो तो बताइये".उन्होंने तपाक से कहा- "भगत, मैंने जो सुना, क्या वह सत्य है?"
जलाराम बापा बोले- "जी हाँ, सत्य है".उन्होंने कहा- "लेकिन ऐसा निर्णय उचित नहीं है, एक बार फिर से सोच लो".
जलाराम बापा ने अटल भाव से कहा- "प्रभु की यही इच्छा है, इसमें सोच विचार की कोई आवश्यकता नहीं है"
देर होते देख वृद्ध महात्मा ने आवाज लगाईं- "अब चलो, विलम्ब हो रहा है". वीरबाई ने कहा- "बाबा जी, दो मिनट,
ठहरिये, मैं अभी आती हूँ". यह कह कर वे घर के भीतर गई और पूजा स्थल में प्रभु की छवि के सामने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया. आँगन में बने हनुमान मंदिर में अर्चना की, फिर पाली हुई गाय को चारा खिला कर उसे गले लगाया. और पहुँच गई वृद्ध महात्मा के पास. उन्होंने प्रसन्न भाव से कहा- "बाबा जी चलिए". तत्पश्चात दोनों चल पड़े.
पूरे गाँव वालों की आँखों में आंसू थे. शुभचिंतक महिलायें दहाड़ मार कर रो रहीं थीं. अनुयायी राम धुन गा रहे थे.
विदा होते वक़्त पूरे रास्ते लोग खड़े होकर वीरबाई पर नम आँखों से फूल बरसा रहे थे. चलते चलते वीरबाई और वृद्ध महात्मा वीरपुर गाँव के बाहर सरियामती नदी के किनारे जंगल आ गए. फिर वृद्ध महात्मा ने वीरबाई से कहा- "देवी, तुम यहीं बैठो, मैं अभी आता हूँ. मेरी यह झोली और डंडा का ध्यान रखना, जब तक मैं वापस न लौटूं तब तक इसे किसी को देना नहीं". वीरबाई ने जवाब दिया- "बाबा जी, शीघ्र आइयेगा, आपके सामान की सही देखभाल करूंगी". "अभी आया" इतना कह कर वह वृद्ध महात्मा अंतर्ध्यान हो गए. समय बीतने लगा. वीरबाई आतुरता से वृद्ध महात्मा की प्रतीक्षा कर रही थीं, किन्तु वे कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे. काफी देर राह देखने के बाद वीरबाई का सब्र टूट गया. उनकी आँखों से आंसू बहने लगे. इतने में आकाशवाणी हुई- "देवी, धन्य है तेरी पति भक्ति. धन्य है तेरा उदार मनोबल. मैं तो तुम दोनों की परीक्षा लेने आया था. तुम पति पत्नी दोनों मेरी कसौटी पर
पूरे खरे उतरे हो. अब तुम सहर्ष अपने घर प्रस्थान करो. मेरे दिए हुए झोली-डंडे को पूजा स्थल में रख कर उसकी भी वन्दना-अर्चना करना".यह आकाशवाणी सुन कर वीरबाई को सुखद आश्चर्य और आनंद की अनुभूति हुई. प्रभु की यह अनोखी लीला देख कर वह गदगद हो गई. वीरबाई खुशी से फूले नहीं समाई. वह तेज कदमों से अपने घर की तरफ दौड़ पडी. वीरपुर गाँव वापस आते देख कर लोग भी खुशी से उछल पड़े. जब वीरबाई घर पहुँची तो उन्हें देखकर जलाराम बापा मुस्कुराए और केवल इतना ही कहा- "पधारो, चलो अब प्रभु के झोली-डंडे को पूजा स्थल में रख कर वन्दना करते हैं". वीरबाई फिर चौंकी. उनके मन में सवाल उठा- "इन्हें झोली-डंडे के बारे में कैसे जानकारी हुई".इसे भी उन्होंने प्रभु की लीला ही समझी. उधर, पूरे गाँव में उत्सव सा वातावरण बन गया. चारों तरफ वीरबाई और जलाराम बापा के जयकारे लग रहे थे. ( जारी .... )                      
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