रविवार, 8 जनवरी 2012

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 40 - antim )

स्वर्ग जाते समय रथ में निंदक को भी बैठने कहा : जलाराम बापा के देहावसान के बाद स्वर्ग जाते समय उनकी दूसरी और अंतिम मुलाक़ात अपने घोर निंदक टीलाराम के साथ हुई. दरअसल, जलाराम बापा अनुयायियों को जितना सम्मान देते थे, उतना ही अपने निंदकों को भी आदर देते थे. वे सभी व्यक्तियों में प्रभु का अंश देखते थे. सार्वजानिक तौर पर अथवा पीठ पीछे बुराई करने वालों को भी वे अपना आशीर्वाद देते थे. उनकी हरसंभव मदद भी करते थे. जलाराम बापा के गाँव वीरपुर में भी उनका एक घोर निंदक था टीलाराम. पेशे से वह किराना दुकानदार था. आर्थिक रूप से वह सक्षम था. कद में वह जरूर ठिगना था, लेकिन कुत्सित विचारों में उंचा था. जितना वह जमीन के ऊपर था, उतना जमीन के नीचे भी. दुकानदारी से जब वह निवृत्त हो जाता तो पैदल बाजार में निकल पड़ता अपने करीबी लोगों की बुराई करने. चहेरे का रंग गोरा था, किन्तु जुबान काली थी. खाली वक़्त में परनिंदा का सुख लेना उसका शगल बन गया था. जो उसकी मदद करता था या अपने साथ रखता था, उसे ही पहले वह अपना निशाना बनाता था. लोगों को अपमानित करने वह अक्सर अवसर की तलाश में रहता. हद तो तब हो जाती, जब टीलाराम जलाराम बापा को भी घेर लेता और फिर धरा का बोझ बताते हुए उन्हें संतुलन की सीख देता. उन्हें ढोंगी संत साबित करने में अपनी ऊर्जा नष्ट करता. लेकिन उदारमना जलाराम बापा उसकी अपमानजनक बातों और निंदा युक्त बर्ताव का बिलकुल बुरा नहीं मानते थे. वे उसकी बातों को मुस्कुरा कर अनसुना कर देते थे. जिससे खीजवश टीलाराम पागलों की तरह बडबडाते हुए उनके पीछे पीछे घर तक पहुँच जाता. फिर भी जलाराम बापा उसे सम्मान के साथ अपने घर में बैठाते और उसका आथित्य सत्कार करते.
जलाराम बापा जब गंभीर रूप से बीमार हुए, तब टीलाराम भी तबियत की पूछपरख के बहाने उनके घर पहुँच गया. अकेले जाने का साहस नहीं हो रहा था, तो उसने अपने एक रिश्तेदार को भी साथ रख लिया. सभी अनुयायी क्रमवार जलाराम बापा के चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद ले रहे थे. टीलाराम किनारे चुपचाप बैठ कर जलाराम बापा के मनोभाव को भांपने की कोशिश कर रहा था. उस पर जब जलाराम बापा की नजर पडी तो उन्होंने उसे इशारे से अपने पास बुलाया और पूछा- "कैसे हो टीलाराम भाई, मजे में हो न?". टीलाराम अपनी पुरानी हरकत से बाज नहीं आया. खुरापात उसके रग रग में थी. उसने व्यंगात्मक लहजे कहा- "बापा, अपनी तो हमेशा मौज रहती
है. आप अपना ध्यान रखो. अब आपकी उम्र बहुत हो गई है, पता नहीं कब आपका राम नाम सत्य हो जाय. खैर,
आपको क्या चिंता है. आपके लिए तो स्वर्ग में जगह निर्धारित है". जलाराम बापा ने मुस्कुराते हुए प्रत्युत्तर दिया- "टीलाराम भाई, तुम्हारा अनुमान सही है, न जाने किस घड़ी में प्रभु श्रीराम का बुलावा आ जाय. वास्तव में प्रभु श्रीराम का नाम सत्य का पर्याय है. किन्तु स्वर्ग में मेरी जगह निर्धारित है या नहीं, यह तो मेरे प्रभु ही जानते हैं".
अनावश्यक बहस और कुतर्क करना टीलाराम के स्वभाव में शामिल था, इसलिए उसने व्यंग बाण छोड़ते हुए कहा- "क्यों बापा आप तो बेरोजगार होते हुए भी रोज भूखे और फटीचरों का पेट भरते हैं, दिन में दस बार भगवान को पूजते हैं, यह क्या कम है. फिर आपको स्वर्ग में जगह क्यों नहीं मिलेगी?". जलाराम बापा ने उसकी व्यंग भरी
जिज्ञासा को शांत करते हुए कहा- "टीलाराम भाई तुम ठहरे पक्के चंट व्यापारी. कर्म के बाद फल की चिंता करना
तुम्हारा धर्म है, किन्तु मैं  प्रभु और दीनदुखियों का निर्धन सेवक हूँ, मेरा धर्म मात्र कर्म करना है, फल की चिंता करना नहीं". टीलाराम तो तय करके आया था आज जलाराम बापा को ठीक करना है. उसने चुटकी लेते हुए कहा- "बापा, मैंने सुना है आपको लेने स्वर्ग से हवाई रथ आने वाला है?" जलाराम बापा हँसे और फिर पूछा- "क्यों तुझे मेरे साथ चलना है क्या?" टीलाराम बोला- "हाँ, बापा आपके सिवाय मुझे और कौन स्वर्ग के हवाई रथ में बैठा कर ले जाएगा. मुझे उस दिन का बेसब्री से इन्तजार रहेगा". जलाराम बापा ने यह कह कर बातचीत ख़त्म करनी चाही- "ठीक है टीलाराम भाई, स्वर्ग से जब हवाई रथ मुझे लेने आयेगा तो तुझे भी अपने साथ लेता जाउंगा".
टीलाराम की व्यंगात्मक लहजे वाली बातों को आसपास खड़े स्थानीय अनुयायी भी सुन रहे थे. हालांकि वे उसके
स्वभाव से परिचित थे, लेकिन टीलाराम द्वारा मौके की नजाकत को न समझने के कारण अनुयायी उस पर नाराज हो गए. जलाराम बापा ने सबको शांत रहने का इशारा किया. बात न बढे, इसलिए एक बुजुर्ग अनुयायी टीलाराम का हाथ पकड़ कर उसे बाहर ले गए और उसे विदा किया.
महा वदी नवमीं, मंगलवार की देर रात को टीलाराम जल्दी से नित्य कर्म से निवृत्त हुआ और जेतपुर जाने के लिए निकल पडा. वीरपुर गाँव से जेतपुर की दूरी आठ मील थी. वह जेतपुर से ही सामान लाकर बेचा करता था. वह दसमी, बुधवार की सुबह ही जेतपुर पहुँच गया. शीघ्रता से वह जरूरत का सामान खरीद कर वापस वीरपुर गाँव के लिए रवाना हो गया. वीरपुर गाँव पहुँचने के लिए अभी उसे तीन मील और चलना बाकी था, तभी उसे सामने से एक सुसज्जित रथ आता दिखाई दिया. टीलाराम सोचने लगा जरूर यह रथ किसी राजा महाराजा का होगा. अचंभित होकर वह आते हुए रथ को देखने लगा. अगले ही पल वह रथ उसके पास आकर रूक गया. गौर
से देखा तो उसकी आँखें चौंधिया गई. उसमें कोई और नहीं बल्कि स्वयं जलाराम बापा बैठे हुए थे. जलाराम बापा
को बैठा देख कर उसकी खुरापात जागृत हो गई. टीलाराम ने व्यंग कसा- "क्या बापा, किसी राजा का बुलावा आया है क्या?'. जलाराम बापा बोले- "हाँ टीलाराम भाई". उसने कहा- "आप ही की ऐश है. वैसे बताओ तो सही किस राजा के मेहमान बन कर जा रहे हो, किसने भेजा है यह रथ".जलाराम बापा ने अर्थपूर्ण मुस्कान के साथ संक्षिप्त प्रत्युत्तर दिया- "श्रीराम ने". वह मजाक उड़ाते हुए बोला- "इसका मतलब यह राजा का रथ नहीं बल्कि स्वर्ग का रथ है".जलाराम बापा ने कहा- "टीलाराम भाई, मैंने तुझसे वादा किया था स्वर्ग से जब हवाई रथ मुझे लेने आयेगा तो तुझे भी अपने साथ लेता जाउंगा, अब वह क्षण आ गया है, यह सब सामान छोड़ और बैठ मेरे साथ, हम स्वर्ग साथ चलेंगे". स्वर्ग का नाम सुनते ही टीलाराम की सिट्टी पिट्टी गम हो गई, उसकी हालत पतली हो गई, पसीने से वह तरबतर हो गया, भय से उसका पायजामा भी गिला हो गया. जलाराम बापा हंसते हुए
बोले- "चल जल्दी बैठ टीलाराम भाई , स्वर्ग जाने में देर हो रही है". उसने कन्नी काटते हुए कहा- "बापा, आपको ही मुबारक हो स्वर्ग, मुझे नहीं चलना है आपके साथ, मैं यहीं खुश हूँ". जलाराम बापा बोले- "फिर ये न कहना बापा रथ में बैठ कर अकेले स्वर्ग चले गए, और मुझे पूछा तक नहीं". टीलाराम ने टरकाने के अंदाज में जवाब दिया- "बापा, जल्दी निकल लो, आपको देर हो जायेगी. ऐसा होता है क्या स्वर्ग का रथ?" जलाराम बापा ने शांत भाव से कहा- "ठीक है, जैसी तुम्हारी इच्छा, राम-राम". फिर अगले ही पल जलाराम बापा का स्वर्ग रथ टीलाराम की नज़रों से ओझल हो गया.
टीलाराम बडबडाते हुए आखिरकार वीरपुर गाँव पहुँच गया और फिर दुकानदारी में व्यस्त हो गया. उधर, ग्रामवासी शमशान से लौट रहे थे. उन्हें देख कर टीलाराम सड़क पर आया और एक ग्रामीण से पूछा- "क्या भाई, किसका राम नाम सत्य हो गया है?". उसने भी आश्चर्य से पूछा- "अरे टीलाराम, तुझे नहीं मालूम पड़ा क्या, जलाराम बापा स्वर्ग सिधार गए हैं". यह सुनते ही टीलाराम सन्न रह गया. उसके ज्ञान-चक्षु खुल गए. उसे अपनी
गंभीर गलती समझ में आ गई. स्वर्ग जाने का सुनहरा अवसर उसने अज्ञानतावश गवां दिया. उसे बेहद पछतावा
होने लगा. वह अपना सर पटक पटक कर रोने लगा. यह अप्रत्याशित दृश्य देख कर लोग इकट्ठे हो गए. उन्हें ताज्जुब हुआ टीलाराम तो जलाराम बापा का घोर निंदक है, फिर क्यों वह उनके स्वर्गवासी होने पर दहाड़ मार मार रो रहा है. जब उससे बुजुर्ग अनुयायी ने रोने का कारण पूछा तो टीलाराम ने बताया- "भाई, मैं अपने दुर्भाग्य
पर रो रहा हूँ. मेरे कर्म ख़राब है इसीलिये मैंने जलाराम बापा के आग्रह को ठुकरा कर स्वर्ग जाने का अमूल्य अवसर खो दिया.मेरी मति भ्रष्ट हो गई थी". यह सुन कर सभी लोग अचंभित रह गए. जलाराम बापा के प्रति लोगों की श्रद्धा और अधिक बढ़ गई. उधर, घोर निंदक टीलाराम का भी ह्रदय परिवर्तन हो गया. वह अब दिन रात
जलाराम बापा के गुणगान करने लगा था. बापा के आदर्शों को अपना कर वह दीनदुखियों की सेवा में जुट गया. जलाराम बापा की स्मृतियाँ और उनके जीवन-आदर्श सेवा कार्यों के लिए प्रेरणा के स्त्रोत बन गए. (इतिश्री) ,   (लेखक- दिनेश ठक्कर "बापा"), (जलाराम बापा के प्रचलित किस्से और किवदंतियों पर आधारित)                                    .                                                                  .                          

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