शनिवार, 31 दिसंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 31 )

बेटी के पोते हरिराम को उत्तराधिकारी बनाया : जलाराम बापा ने अपना सारा जीवन घर संसार के बजाय सेवा और भक्ति संसार के नाम समर्पित कर दिया था. दीनदुखियों और अपने अनुयायियों को ही वे अपनी संतान मानते थे. यद्दपि पारिवारिक तौर पर उनकी एक मात्र संतान पुत्री जमुना बेन थी. जलाराम बापा का कोई पुत्र न था. उनकी एकलौती पुत्री जमुना बेन सर्व गुण संपन्न थी. पिताश्री जलाराम बापा की तरह वे भी भक्ति भाव से ओतप्रोत थीं. जलाराम बापा ने अपनी एकलौती पुत्री जमुना बेन का विवाह अत्यंत सादगीपूर्ण तरीके से कोटडा पीठा निवासी जसुमा के पुत्र भक्तिराम के साथ किया था. जमुना बेन के दो पुत्र काना भाई और रामजी भाई थे.  जमुना बेन के बड़े बेटे काना भाई में तुलनात्मक रूप से भक्ति और सेवा भाव अधिक था. वे एक संत पुरूष सदृश्य थे. प्रभु भक्ति और सेवा का वातावरण उन्हें अच्छा लगता था, इसलिए वे वीरपुर गाँव में अपने नाना जलाराम बापा के घर में ही रहते थे. काना भाई की चार संतान थी. पुत्र हरिराम बड़े थे. जबकि तीन पुत्री क्रमशः कुंवर फईबा, राम फईबा और कशणी फईबा थी. काना भाई के छोटे भाई रामजी भाई की कोई संतान नहीं थी.
काना भाई के पुत्र हरिराम बाल्यकाल से ही मेधावी, दयालु और प्रभु भक्त थे. जलाराम बापा अपनी एकलौती संतान जमुना बेन के पोते हरिराम को बेहद पसंद करते थे. वह जलाराम बापा के मन मानस में वात्सल्य भाव से प्रतिस्थापित हो गया था. हरिराम को ही अपना उत्तराधिकारी बनाने जलाराम बापा ने तय कर लिया था. वे अपने मन की इच्छा को सार्वजनिक तौर पर जाहिर करने के सही अवसर की प्रतीक्षा में थे. दिन बीतते गए. बालक हरिराम की उम्र बढ़ने लगी थी. आयु के साथ साथ उसकी बौद्धिक परिपक्वता और सदगुणों में भी बढ़ोत्तरी हो रही थी. पढ़ाई के प्रति लगन होने के बावजूद प्रभु भक्ति में उसका मन अधिक लगता था. जलाराम बापा उसकी हर गतिविधियों पर पैनी नजर रखते थे. इसलिए वे आत्म संतुष्ट और निश्चिन्त थे हरिराम भविष्य में भी उनके द्वारा जारी सेवा कार्यों की अलख जागृत रख सकेगा.
हरिराम ने अब तक बारह वसंत देख लिए थे. एक दिन फिर वह गौरवमयी अवसर भी आ गया जिसकी जलाराम बापा बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे. सुबह का वक़्त था. हरिराम नित्य कार्य से निवृत्त होकर स्कूल जाने के लिये घर से निकल रहा था, तब जलाराम बापा ने उसे अपने पास बुलाया और पूछा- "बेटा हरिराम, कहाँ जा रहे हो?" हरिराम ने जलाराम बापा के चरण स्पर्श करते हुए प्रत्युत्तर दिया- "बापा, विद्यालय जा रहा हूँ, मेरे लिए कोई आदेश हो तो बताइये". जवाब सुनने के बाद जलाराम बापा क्षण भर के लिए विचारमग्न हो गए. मानो वे अपने प्रभु श्रीराम से कोई गंभीर विचार विमर्श कर रहे हों. अगले ही पल उन्होंने हरिराम के सर पर स्नेहपूर्वक हाथ फेरा और आदेशपूर्ण लहजे में बोले- "बेटा हरिराम, आज से तुझे अब विद्यालय जाने की कोई आवश्यकता नहीं है. तुझे आज से ही यहाँ के सेवा कार्यों का उत्तरदायित्व सम्हालना है. आज से तू मेरा वारिस है". जलाराम बापा का यह निर्णय सुन कर हरिराम चौंक गया. उसे सुखद आश्चर्य भी हुआ, लेकिन जलाराम बापा से इस विषय में जिज्ञासा वश कोई पूछताछ करने का साहस उसमें नहीं था, इसलिए तत्काल उसने अपनी सहमति देते हुए हाथ जोड़ कर कहा- "बापा, यह मेरा सौभाग्य है जो आपने मुझे इस उत्तरदायित्व के योग्य समझा. मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ आपका प्रत्येक सेवा-आदेश मेरे प्राणों से अधिक प्रिय होगा". जलाराम बापा उसके विचार सुन कर प्रसन्न हो गए और उसे गले लगा लिया. जलाराम बापा की कोई ऐसी जमीन-जायदाद या अकूत संपत्ति नहीं थी, जिससे उन्हें वारिसदार की आवश्यकता पड़ गई हो. दरअसल, उन्होंने तो हरिराम को दीनदुखियों की सेवा करने वाला उत्तराधिकारी बनाया था. भूखे जनों का पेट भरने और उनके दुःख दूर करने का वरिसदार बनाया था. सदाव्रत-अन्नदान अभियान को उनके न रहने के बाद भी जारी रखने का वारिसदार हरिराम को बनाया था. जलाराम बापा ने हरिराम को वास्तव में कुछ पाने का नहीं वरन दूसरों को देने का उत्तराधिकारी बनाया था.
जलाराम बापा द्वारा हरिराम को अपना वारिस घोषित करने की खबर तेजी से चारों तरफ फ़ैल गई. सभी ने जलाराम बापा के इस फैसले को सराहा. जलाराम बापा के आदेश का पालन करते हुए हरिराम ने उसी क्षण से सेवा कार्यों को ज्ञान की किताबें मान कर अपना लिया. विद्यालय जाना छोड़ दिया. जलाराम बापा के सेवा घर को
ही अपना विद्यालय मान कर पूरी लगन से जुट गया. सदाव्रत-अन्नदान कार्य में सहयोग उसका नियमित अध्ययन सदृश्य बन गया. खाली समय में हरिराम धर्म ग्रंथों को पढने लगा. इस तरह खाली समय का भी सदुपयोग होने लगा. फिर तो हरिराम को प्रभु का प्रसाद ऐसा मिला, वह ह्रदय से श्रीराम का सच्चा भक्त बन गया.
वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत, गीता आदि धर्म ग्रन्थ उसे कंठस्थ हो गए. जलाराम बापा
के जीवन आदर्शों को भी उसने आत्मसात कर विचार और व्यवहार में प्रयुक्त करना प्रारम्भ कर दिया था. ( जारी )                  
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