बुधवार, 16 नवंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeevan-kathaa ( 2 )

ककहरा लिखने की शुरूआत राम नाम से : महात्मा रघुवीर दास की भविष्यवाणी के अनुरूप ही शिशु जलाराम का अलौकिक स्वरुप दिखने लगा था. इनके जन्म के १२ दिन बाद जब नामकरण की विधि हुई तब भी सब लोग बेहद आनंदित थे. बोधा और जलाराम दोनों भाई की जुगलबंदी चर्चित हो गई. माता राज बाई को जब तीसरा पुत्र हुआ तो इसे भी ईश्वरीय उपहार माना गया. इसीलिये उसका नाम देवजी रखा गया. इन तीनों भाइयों में बालक जलाराम तुलनात्मक रूप से ज्यादा तेजस्वी थे. बाल्यकाल से ही उनमे चमत्कारिक लक्षण दिखने लगे थे. उनके सौम्य और निराले हावभाव, गतिविधि तथा दिनचर्या से जाहिर होने लगा था वे भविष्य में महान संत पुरूष होंगे. उनके स्वभाव में प्रेम, करूणा और भक्ति का अनूठा सामंजस्य था.
छोटी उम्र से ही बालक जलाराम ने स्कूल जाना शुरू कर दिया था. ककहरा लिखने की शुरूआत उन्होंने राम नाम से की थी. स्लेट में वे केवल राम राम ही लिखते थे. इसमें उनको आत्मिक संतोष मिलता था. एक दिन सहपाठी भीमा ने छात्र जलाराम के विद्या अध्यन के तरीके की चुगली शिक्षक से की. उन्होंने बालक जलाराम से पूछा- स्लेट में पाठ के बदले क्या लिख रहे हो? बालक जलाराम ने बिना कुछ बोले स्लेट शिक्षक को दे दी. बालक जलाराम सहित सभी बच्चों को लग रहा था शिक्षक गुस्सा होंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि शिक्षक धार्मिक प्रवृत्ति के थे. स्लेट में राम राम लिखा देख कर वे खुश हो गए. बालक जलाराम के प्रति उनका स्नेह और ज्यादा हो गया. उन्होंने
पूछा- जला, तुझे यह किसने सिखाया? बालक जलाराम ने मासूमियत से जवाब दिया- यह तो मालूम नहीं, हाथ में जब चाक पकड़ता हूँ तो स्लेट में अपने आप राम राम लिखा जाता है. यह जवाब सुन कर शिक्षक की आँखें भक्तिभाव से छलक उठीं. उन्हें अहसास हो गया यह बालक भविष्य का एक महान संत है. शिक्षक ने आगे कभी भी बालक जलाराम को टोका नहीं, बल्कि उसकी राम भक्ति को प्रोत्साहित ही किया. फिर तो क्लास में ही बालक जलाराम शिक्षक के आग्रह पर राम धुन गाने लगे. सहपाठी भी इसमे सहभागी बनते थे. इस दौरान स्कूल के पास
से गुजरने वाले गाँव वाले भी भक्तिभाव से खड़े होकर राम धुन सुनते थे. इस तरह स्कूल जीवन से ही बालक जलाराम ने राम नाम की अलख जगाना शुरू कर दी थी.
बचपन से ही बालक जलाराम में दूसरों के प्रति प्रेमभाव झलकने लगा था. माता राज बाई जब दोपहर को स्कूल में  बालक जलाराम के लिए भोजन का डब्बा लाती थीं तो वे अकेले खाने के बजाय सहपाठियों में मिलबांट कर खाते
थे. इससे उनको खुशी मिलती थी. इस तरह उनमे अन्न दान की प्रवृति भी बाल्यकाल से ही बढ़ती रही. सेवाभाव
भी लगातार बढ़ रहा था. किसी बच्चे को जब चोट लगती थी तब वे खुद उसकी सेवा में जुट जाते थे. बच्चा हो या बुजुर्ग हर किसी की मदद करने आगे रहते थे. गाँव वाले अपने बच्चों को जलाराम जैसा बनने की सीख देते थे.
सुबह काम पर निकला कोई व्यक्ति अगर बालक जलाराम के दर्शन कर लेता था तो उसे भरोसा रहता उसका दिन
अच्छा बीतेगा. काम में कोई बाधा नहीं आयेगी.
बालक जलाराम में परोपकार की भावना बलवती थी. ठण्ड के दिन थे. वे अपने घर के चबूतरे पर बैठे थे, तभी एक फटेहाल भिखारी पास से गुजर रहा था. बालक जलाराम ने देखा वह ठण्ड से काँप रहा था. उन्होंने उसे कुछ देर खड़े रहने को कहा. वे दौड़ कर घर से गरम वस्त्र ले आये और उसे देकर चबूतरे पर फिर बैठ गए. भिखारी आशीर्वाद देकर चला गया. बाद में जब घर में गरम वस्त्रों की जरूरत महसूस हुई, तब खोजबीन के दौरान बालक जलाराम ने
निर्भय होकर बता दिया- गरम वस्त्र मैंने ठण्ड से कांपते एक भिखारी को दे दिए हैं. माता पिता ने बालक जलाराम की सेवा भावना से प्रसन्न होकर उसे गले लगा लिया. ( जारी ... )

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