बुधवार, 23 नवंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kataa ( 9 )

सपत्निक खेतिहर मजदूर बने, फिर सदाव्रत-अन्नदान शुरू किया : श्रीराम भक्त जलाराम जब अपने गुरू भोजल राम से कंठी बंधवा कर वीरपुर गाँव लौटे, तब अविभावक सहित गांववासी प्रसन्न हुए. सबने उनका ह्रदय से स्वागत सत्कार किया. जलाराम अपने गुरू को वचन देकर लौटे थे गाँव पहुँच कर वे सदाव्रत-अन्नदान शुरू करेंगे.यह पुनीत सेवा कार्य प्रारम्भ करना आसान नहीं था, क्योंकि जलाराम अपने पिताश्री या चाचा से इस सम्बन्ध में कोई सहायता नहीं लेना चाहते थे.स्वयं उनके पास फूटी कौड़ी न थी.वे गाँव वालों के पास भी जाकर मदद मांगने के इच्छुक नहीं थे.
उस दौरान उनकी पत्नी वीरबाई अपने मायके में थी. जलाराम ने उन्हें वीरपुर लौटने का सन्देश भिजवाया.सन्देश
प्राप्त होते ही पतिव्रता वीरबाई ससुराल आ गई. लम्बे अंतराल के पश्चात जलाराम और पत्नी वीरबाई परस्पर मिले.पति को सामने देख कर वीरबाई की आँखें छलक गई. क्षण भर वे हतप्रभ भी हुई, क्योंकि उन्हें लग रहा था पति जलाराम से जब भेंट होगी तब वे भगवा वस्त्र पहने साधुवेश में दिखेंगे, किन्तु वे तो पहले की तरह सामान्य अवस्था में दृष्टिगोचर हो रहे थे.उन्होंने ठंडी सांस लीं. फिर भावविभोर होते हुए उन्होंने पति के चरण स्पर्श किये. पत्नी की भावुकता देख कर जलाराम के नयन भी नम हो गए. धीमी आवाज में उन्होंने कहा- "तुझसे कुछ अपने मन की बात कहनी है". वीरबाई ने हाथ जोड़कर कहा- "आदेश करिए मेरे नाथ".जलाराम ने गर्वित होकर कहा- "आदेश देने वाला मैं कौन होता हूँ? आदेश तो मेरे प्रभु श्रीराम ने दिया है.हमें सदाव्रत-अन्नदान का सिलसिला शुरू करना है, इसमें मुझे तेरा साथ चाहिए".प्रत्युत्तर में वीरबाई ने कहा- "नाथ, मैं तो पूरे जनम आपके साथ हूँ.आपका और प्रभु का आदेश मुझे प्राणों से अधिक प्यारा है".पत्नी की हौंसला अफजाई से जलाराम बेहद खुश हुए.उनका आत्म बल पहले से ज्यादा बढ़ गया.उन्होंने गदगद होकर कहा- "तुमने मेरी हिम्मत बढ़ा दी, हम दोनों मिलकर
आज से ही अपने इस अभियान की शुरूआत करेंगे.चलो, सबसे पहले हम कहीं रोजगार ढूँढते है". वीरबाई ने फुर्ती से कहा- "जो आज्ञा मेरे नाथ, चलिए".इसके बाद पति-पत्नी काम ढूँढने निकल पड़े.
आखिरकार वे काम पाने में सफल हुए.गाँव के एक भले किसान ने उनके नेक इरादे जानकार उन दोनों को अपने खेत में सहयोगी श्रमिक बतौर रख लिया.इस तरह अपने बलबूते जीवन यापन का क्रम प्रारंभ होने पर पति-पत्नी खुश हुए.प्रतिदिन की मजदूरी में से एक हिस्सा वे दोनों प्रभु के नाम अलग रखने लगे.कमाई हुई रकम से वे सर्वप्रथम साधुसंतों, भिक्षुओं को भोजन करवाते. इसके बाद जो बचता, उससे खुद खाते.इससे जलाराम और उनकी पत्नी वीरबाई को आत्मिक संतोष की अनुभूति होती.
कुछ समय बाद उन्होंने रहने लायक एक छोटा सा घर भी बनवा लिया. जलाराम और वीरबाई दिनभर खेत में कड़ी मजदूरी करते थे.अपने मेहनताने से वे प्रभु के नाम रोज थोड़ा अनाज बचा कर सुरक्षित रखते थे.घर में जब पर्याप्त मात्रा में अनाज इकट्ठा हो गया तब एक दिन जलाराम ने पत्नी से कहा- "अब सदाव्रत-अन्नदान (भंडारा) की विधिवत शुरूआत करने का सही समय आ गया है".प्रफुल्लित होकर वीरबाई ने कहा- "नाथ, आप सत्य कह रहे हैं.
अब हमें इसमे कोई देर नहीं करनी चाहिए".पत्नी के सहमत होने और उसकी उत्सुकता देख कर जलाराम प्रसन्न हो गए.अगले दिन जलाराम ने प्रभु श्रीराम और गुरू भोजल राम का स्मरण कर वीरपुर गाँव में अपने घर सदाव्रत-अन्नदान कार्य की शुरूआत कर दी.
जलाराम के घर सदाव्रत-अन्नदान प्रारंभ होने की खबर आसपास के गाँव में भी तेजी से फ़ैल गई.साधुसंत,महात्मा
भिक्षुक, दुखियारे सभी जलाराम के यहाँ आने लगे.पत्नी वीरबाई भोजन पकातीं और जलाराम आगंतुकों को खाना
परोसते.कोई अगर उनके घर आये और खाना खाए बिना लौट जाए, ऐसा संभव न था.जलाराम और उनकी पत्नी
वीरबाई ने खेत में मजदूरी करना जारी रखा था.दिन भर वे दोनों कड़ी मजदूरी करते, शाम होते ही फिर वे सेवा में जुट जाते.हालांकि गाँव के कई लोगों को यह समझ में नहीं आ रहा था जलाराम कम कमाई के बावजूद सदाव्रत-अन्नदान निरंतर जारी कैसे रखे हुए हैं.तो दूसरी तरफ जलाराम से सहानुभूति रखने वाले ग्रामीण तारीफ़ करते नहीं थकते. वे कहते- "यह अनूठा काम केवल जलाराम ही कर सकता है, इश्वर भी उसके साथ है".
उधर, गाँव के किसानों में भी जलाराम के प्रति सम्मान की भावना बढ़ गई थी.काना रैयानी किसानों का नेता था.
एक दिन उसने सभी किसानों को इकट्ठा किया और कहा- "साथियों, मेरी बात ध्यान से सुनों.आप सभी जानते हैं
जलाराम एक व्यापारी पुत्र होते हुए भी खेत में पत्नी के साथ कड़ी मजदूरी करता है. उसकी आमदनी भी कम है. लेकिन वह इश्वर का सच्चा भक्त होने के कारण खुद भूखा रहता है, लेकिन जरूरतमंदों का पेट भरता है.जबकि हम
लोग क्या कर रहे है,यह कभी सोचा है.हम केवल अपना ही पेट भर रहे हैं.यह स्वार्थीपन उचित नहीं है.अब आगे ऐसा नहीं चलेगा.अन्न उत्पादक होने के कारण हमें भी अपना फर्ज निभाना होगा".यह सुनकर साथी किसानों को
आत्मग्लानि हुई. वे बोले- "आपका कहना सही हैं. वास्तव में हम स्वार्थी होकर अपना फर्ज भूल गए थे.आपने हमें अपने कर्त्तव्य का बोध कराया,इसके लिए धन्यवाद.अब आप जैसा कहेंगे हम सब वैसा ही करेंगे".किसान नेता ने खुश होकर कहा- "तो ठीक है, हम सब मिलकर जलाराम के सदाव्रत अभियान के लिए पर्याप्त अनाज देकर सहयोग
करेंगे, ताकि उस पर अकेले भार न पड़े, और यह पुण्य कार्य आगे भी चलता रहे". तत्पश्चात काना रैयानी की अगुवाई में किसान जलाराम से मिलने उसके घर पहुंचे.अपने यहाँ उन्हें देख कर जलाराम प्रफुल्लित हो गए.उनकी
आवभगत की. उन्हें भोजन कराने के बाद जलाराम ने पूछा- "मेरे लिए कोई आदेश हो तो कृपया बताइये".किसान नेता ने हाथ जोड़कर कहा- "जलाराम भाई, आप इस कम उम्र में और कम संसाधनों के बावजूद यह जो पुण्य कार्य
कर रहे हो वह सराहनीय है.आपको हमारा एक निवेदन स्वीकार करना होगा".जलाराम ने भी हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक कहा- " मैं तो आप लोगों का सेवक हूँ, निवेदन नहीं बल्कि आदेश करिए".किसान नेता ने कहा- "जलाराम भाई, अब आपको हमारे खेत में मजदूरी करने आने की आवश्यकता नहीं है".यह सुनकर जलाराम चौंके.
उन्होंने धीमे स्वर में पूछा- "इस सेवक से कोई गलती हुई है क्या? जीवन निर्वाह के लिए मजदूरी तो करनी ही पड़ेगी न".किसान नेता ने मुस्कुराते हुए कहा- "अरे जलाराम भाई, आप गलत समझ रहे है. पूरी बात तो पहले सुन लो". जलाराम बोले- "ठीक है, कहिये".उस किसान नेता ने फिर बिना रुके पूरी बात बताई.उनकी सद इच्छा जान जलाराम अत्यधिक प्रसन्न हुए.सहयोग करने के लिए उन सबको अग्रिम धन्यवाद दिया.तत्पश्चात आकाश की तरफ देखकर प्रभु श्रीराम का आभार मानकर प्रणाम किया. ( जारी .... )                                                                                                   

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