रविवार, 20 नवंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 6 )

पिताश्री के बाद चाचा की दूकान में बैठने सहमत : भक्त जलाराम को पिताश्री द्वारा दुकानदारी से अलग किये जाने के बाद उनको न भोजन करना याद रहता था, न ही सोना.वक़्त का भी ध्यान नहीं रहता था.सुबह होते ही स्नान आदि से निवृत्त होकर भक्त जलाराम पूजापाठ करने के बाद हाथ में माला लेकर घर से निकल पड़ते थे.रात को समय पर घर लौटना निश्चित नहीं रहता था.परिवार वालों की उन्हें कोई फिक्र नहीं थी.याद रहता था तो केवल राम नाम.मंदिर या फिर संत महात्माओं की उपस्थिति वाली जगह उनकी पहली पसंदगी बन गई थी.कोई इन्हें खोजता था तो वे यहीं पाए जाते थे.
उधर, वीरबाई अपने पति जलाराम की इस अनियमित दिनचर्या से मन ही मन दुखी रहने लगी थी.साथ ही पति की प्रभुभक्ति में बाधक भी नहीं बनाना चाहती थीं.इसलिए वह अपनी मनोभावना पति से व्यक्त करने को लेकर पशोपेश में थी.एक दिन साहस जुटाकर पत्नी वीरबाई ने जलाराम से पूछा- आप घर आने, भोजन करने, सोने का समय निर्धारित क्यों नहीं कर लेते? उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा- तू क्यों नाहक परेशान हो रही है? मेरा असली घर तो मंदिर है या फिर संत महात्माओं की स्थली.खाने में मुझे कोई रुचि नहीं है.जो आनंद खिलाने में है, वह खाने में कहाँ? मैं जब तक भूखे को खाना खिला कर न सुला दूं, तब तक मुझे नींद कहाँ आने वाली? जहां तक सबका समय तय करने का सवाल है, तो बता दूं , मानव के जीवन का कोई ठिकाना नहीं है तो फिर मेरा कहाँ रहेगा? पत्नी वीरबाई ने सुझाव देते हुए कहा- आप सही कह रहे हैं, लेकिन प्रभुभक्ति, सेवा के अलावा कामकाज, धन्धादारी भी तो
सम्हालनी पड़ेगी.अन्यथा घर वालों की नाराजगी कैसे दूर होगी? जलाराम ने फिर रहस्यमयी मुस्कान के साथ केवल इतना ही कहा- यह भी हो जाएगा.
पूरे वीरपुर गाँव में अब तक यह बात फ़ैल चुकी थी पिताश्री प्रधान ठक्कर ने जलाराम को दूकान से निकल दिया है.
कुछ ईर्ष्यालु जनों को उनका यह कदम उचित लगा, लेकिन समझदार लोगों को यह कठोर फैसला पसंद नहीं आया.जलाराम के चाचा वालजी भी अपने बड़े भाई के बर्ताव और निर्णय से नाखुश थे.जलाराम को वे बहुत चाहते
थे.उनके प्रति ह्रदय से सहानुभूति और सम्मान था.गुणों के धनी होने के कारण जलाराम को वे आदर देते थे.एक
दिन वे अपने बड़े भाई के घर गए.कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद प्रधान ठक्कर से भेंट हुई.उन्होंने पूछा- क्या बात है
वालजी? कैसे आना हुआ? वालजी ने सकुचाते हुए जवाब दिया- मोटा भाई, एक गंभीर बात करने आया हूँ.बड़े भाई ने जिज्ञासापूर्वक कहा- ऐसी कौन सी बात है? वालजी ने डरते हुए जवाब दिया- मोटा भाई, आप नाराज तो नहीं होंगे? प्रधान ठक्कर ने कहा- नहीं, तू बोल तो सही.वालजी ने साहस बटोरते हुए कहा- मोटा भाई, आपने जला को
दूकान से निकाल कर अच्छा नहीं किया.इतना सुनते ही बड़े भाई आगबबूला हो गए. फिर ऊँची आवाज में कहा- सुन वालजी, मैंने जो कुछ किया, ठीक किया.मुझे किसी के सुझाव की आवश्यकता नहीं है.छोटे भाई ने अपनी बात
आगे बढाते हुए कहा-मोटा भाई, मैं आपको कोई सलाह देने नहीं आया हूँ, मेरा तो सिर्फ इतना कहना है जला पक्का
प्रभु भक्त है, उसका दिल नहीं दुखाना था. बड़े भाई बिफरे- अच्छा, तू मुझे बताएगा जला क्या है? वह तो धंधा छोड़ कर दान धरम कर रहा था, वह हमारी लुटिया डूबाने को तुला हुआ था. ऐसे में मैं क्या करता? छोटे भाई ने बात काटते हुए कहा- मोटा भाई, धरम करम करना कोई अपराध थोड़े ही है, और फिर आपने उसे ऐसी सजा दी? इस
तरह से अगर जला भटकते रहेगा तो सचमुच एक दिन वह साधू सन्यासी बन जाएगा.बड़े भाई ने झल्लाते हुए कहा-बस अब बहुत हो गया, मुझे और कुछ नहीं सुनना, अगर तुझे ज्यादा पीड़ा और चिंता हो रही हो तो तू उसे
अपनी दूकान में बैठा. ठीक है मोटा भाई, मैं ऐसा ही करूंगा, इतना कह कर छोटे भाई वालजी चलते बने.
वालजी अपने भतीजे जलाराम को खोजने निकल पड़े.उस समय सूरज सर पर था.जलाराम को खोजते हुए वे वीरपुर गाँव की सीमा तक आ पहुंचे.देखा तो जलाराम एक छायादार वृक्ष के नीचे हाथ में माला रखे आराम से
सो रहे थे.वालजी थोड़ी देर जलाराम को निहारते रहे.अचानक उनके ह्रदय में जलाराम के प्रति भक्ति भाव जागा
और वे सो रहे जलाराम के चरणों के पास की मिट्टी को माथे से लगा लिया.फिर एकाएक उनकी आँखों से आंसू
छलक गए.स्नेहपूर्वक जलाराम के सर पर हाथ फेर कर उन्होंने जगाते हुए कहा-जला... ओ जला...जलाराम ने
आँखें खोली.सामने अपने चाचा को खड़े देखा तो उन्होंने पूछा- काका, आप इस समय यहाँ? चाचा ने रूंधे गले से जवाब दिया- हाँ जला,चल उठ, मेरे साथ चल.जलाराम ने उत्सुकता से पूछा- क्या कोई संत महात्मा आये हैं? तो फिर चलो.चाचा वालजी क्षण भर उसे देखते रहे.और अधिकारपूर्वक कहा- जला, आज से तुझे मेरी दूकान में बैठना
है.जलाराम ने ठहाका लगाया.चाचा वालजी ने अचंभित होकर पूछा- जला, ऐसे क्यों हस रहा है? जलाराम ने सहजता से जवाब दिया- आप तो जानते ही हो पिताश्री ने मुझे दूकान से क्यों निकाल दिया.चाचा ने कहा- हाँ, जानता हूँ.फिर भी तुझे अपनी दूकान में बैठाना चाहता हूँ.मैं तुझे बहुत चाहता हूँ.संत महात्माओं और भिक्षुओं को
दो मुट्ठी अन्न देने, दान करने से दूकान बंद नहीं हो जायेगी,इसका मुझे पूरा भरोसा है.जलाराम ने जोर देते हुए
कहा- काका,एक बार फिर सोच लो.चाचा वालजी ने आत्मविश्वाश के साथ कहा- मैं सोच समझ कर ही तुझे लेने
आया हूँ.प्रत्युत्तर में जलाराम ने सहमत होकर कहा- तो फिर चलिए, प्रभुभक्ति और सेवा करते हुए आपके साथ दुकानदारी करने में मुझे कोई आपत्ति और आलस्य नहीं है.जलाराम ने इतना कह कर चाचा वालजी के चरण स्पर्श
किये.फिर चाचा भतीजे दूकान की तरफ चल पड़े. ( जारी ..... )
         
                                                                 

1 टिप्पणी:

sanju ने कहा…

on the right track.....