शनिवार, 19 नवंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 5 )

 
विवाह के बाद भी सेवा कार्य जारी : युवा अवस्था में प्रवेश करने के बाद जलाराम ने अपने सेवा कार्यों की गति भी तेज कर दी थी. वैवाहिक जीवन की 
शुरूआत भी सादगीपूर्ण थी.पत्नी वीरबाई सुन्दर होने के साथ साथ गुणवान भी थी.घर के कामकाज में भी निपुण थी. उसका स्वभाव शांत, धार्मिक और सामंजस्यमय था, जो जलाराम के लिए अनुकूल था.वीरबाई ससुराल आने से पहले ही जलाराम की प्रभुभक्ति और दीनदुखियों की सेवा के बारे में अच्छे से 
जानती थी.इसलिए वे भी उन्हें प्रोत्साहित और सहयोग करती थीं.संत महात्मा और दुखीजन पति जलाराम की प्रथम पसंद होने के बावजूद वीरबाई
पत्नीधर्म बखूबी निभा रहीं थीं.
पुत्र का विवाह करने के बाद पिताश्री प्रधान ठक्कर को उम्मीद थी जलाराम 
के मनोभाव सांसारिक जीवन के चलते परिवर्तित हो जायेंगे.लेकिन उनकी धारणा गलत साबित हुई.बदलाव के कोई लक्षण भी नहीं दिख रहे थे,बल्कि
सेवा कार्यों की रफ़्तार लगातार तेज हो रही थी.प्रभुभक्ति में उनका वक़्त ज्यादा बीत रहा था.वीरपुर गाँव के कुछ नास्तिक और विघ्नसंतोषी भी आपस में यह आशंका व्यक्त करने लगे- जलाराम अपने पिताश्री के व्यापार को चौपट 
कर देगा.उसने धंधे की जगह को दान धरम का अड्डा बना दिया है.कमाई 
करना तो दूर, घर की जमा पूंजी भी दानवीर बनकर लुटा रहा है.वह अपने भाइयों का भी हक़ मार रहा है.यह सब बातें जब जलाराम के पिताश्री के कानों 
तक पहुचीं, तब वे भी उद्वेलित हो गए.उन्होंने अपने जयेष्ठ पुत्र बोधा से पूछा-बोधा, क्या जला हमारा धंधा ठप करवाने पर तुला है? दूकान का क्या दिवाला निकाल देगा? बोधा ने अपने छोटे भाई जलाराम का पक्ष लेते हुए कहा- नहीं बापूजी,ऐसा नहीं है.आपको यह किसने कहा? पिताश्री ने दुःख भरे लहजे में कहा- गाँव वाले ही कह रहे है और तू मुझसे छिपा रहा है.बोधा ने दार्शनिक अंदाज में कहा- इर्ष्या करने वाले ऐसी लगी बुझाई तो करते ही है.ऐसे लोगों को दूसरों के मामले में उटपटांग बातें करने में मजा आता है.पिताश्री ने अफसोस जाहिर करते हुए कहा- लेकिन 
ऐसा कब तक चलेगा?इस तरह अगर जला संत महात्माओं और भिक्षुओं के पीछे धन लुटाता रहा तो एक दिन 
हमारे ही हाथ में कटोरा आ जाएगा, हमारी भी दूसरों के आगे हाथ फैलाने की नौबत आ जायेगी.
माहौल तनावपूर्ण होता देख माता राजबाई ने प्रधान ठक्कर का गुस्सा शांत करने कहा- हमारा जला ऐसा नहीं है.
दुनियादारी वह भी समझता है. आप अनावश्यक चिंतित हो रहे है.राम भक्ति के साथ वह दुकानदारी में भी निपुण
हो गया है.जवाब देते वे फिर बिफरे- तेरा जला हमें कहीं का नहीं रखेगा. राजबाई ने गर्व के साथ कहा- देखिएगा यही
हमारा जला आगे चलकर कुल का नाम रोशन करेगा. लेकिन प्रधान ठक्कर का गुस्सा शांत नहीं हो रहा था.उन्होंने
चेतावनी भरे लहजे में कहा- जला को समझा देना, आगे ऐसा नहीं चलेगा.अगर वह नहीं मानेगा तो मैं उसे धंधे में बैठाना बंद कर दूंगा.इसके सिवाय अब कोई चारा नहीं है.
वीरबाई दरवाजे के पीछे खड़े होकर अपने सास ससुर की बातचीत सुन रही थीं.स्थिति तनावपूर्ण होते देख वह भी
दुखी हो गई.जब पति जलाराम घर आये, तब उन्होंने सारी बातें बताई.जलाराम ने शांतचित्त होकर कहा-तू क्यों
चिंता करती है? एक दिन ऐसा होने वाला है,यह मुझे मालूम है.प्रभु राम सब ठीक देंगे.कुछ दिन तक घर का वातावरण शांत रहा.जलाराम नियमित रूप से दुकानदारी में सहयोग देते रहे.लेकिन धंधे पर बैठ कर भी राम नाम
जपने और मांगने वालों को देने का क्रम पहले की तरह जारी रहा.वीरपुर गाँव आने वाला संत महात्मा हो या कोई भिक्षुक,हर किसी को पता रहता था जलाराम अगर धंधे पर बैठे होंगे तो भी दान धरम अवश्य करेंगे.
एक दिन वह भी आ गया जिसकी सबको आशंका थी. पिताश्री ने जलाराम से गुस्से से दो टूक कहा- बहुत हो गया,
अब ऐसी सेवा बंद करो.जलाराम ने पिताश्री के आगे कभी कोई जिद नहीं की थी.लेकिन आज स्थिति अलग थी.
उन्होंने हाथ जोड़ कर कहा- क्षमा करें बापूजी, ऐसा मुझसे नहीं हो सकता.दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम,
फिर मैं अपने पास आने वाले भूखे को खाली हाथ वापस क्यों लौटाऊ? दोनों के बीच वादविवाद होता रहा.जलाराम
ने नम्रता से पिताश्री को समझाने की बहुत कोशिश की,लेकिन वे फैसला करके ही आये थे.आखिरकार पिताश्री ने
अपने कलेजे पर पत्थर रख कहा- जला, अगर तुझे सदाव्रत जारी रखना है तो तू मुझसे अलग हो जा.अब आगे मैं इसकी इजाजत नहीं दे सकता.पिताश्री के कठोर वचन सुनकर जलाराम को ठेस पहुँची.ठीक है बापूजी, जैसी प्रभुइच्छा.इतना कहकर जलाराम चुप हो गए.फिर पिताश्री के आदेश के अनुसार उन्होंने दुकानदारी से अपना नाता
तोड़ लिया.
दिन बीतने लगे. जलाराम अब संत महात्माओं की संगत में ज्यादा रहने लगे.देर रात घर लौटते.भोजन करने घर
कभीकभार आते.प्रभु नाम का प्रसाद ही उनका भोजन बन गया.माता राजबाई अपने गोपाल,जलाराम को भूखे भजन करते देख व्याकुल हो गयीं.उन्होंने जलाराम के पिताश्री को बहुत समझाया, लेकिन वे नहीं माने.अपने फैसले पर वे अडिग थे.जलाराम की पत्नी वीरबाई भी कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थीं. अपने पति के स्वभाव को
वे अच्छे से जानती थीं.जलाराम अब केवल प्रभुभक्ति, संत महात्मा और दीनदुखियों की सेवा में ही लगे रहते थे. ( जारी ...)                      
                        
  

    
                 
                

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