शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 4 )

सोलह साल की आयु में ही विवाह : आयु बढ़ने के साथ साथ बालक जलाराम का व्यक्तित्व भी राम भक्ति की वजह से परिपक्व होने लगा था.अंतर्ध्यान हुए महात्मा के आशीर्वाद के बाद उनमे चमत्कारिक रूप से परिवर्तन दिखने लगा था.मानो उन्हें अपने पूर्वजन्म का बोध हो गया हो, उनके आचार, विचार और व्यवहार में बदलाव झलकने लगा था.हर समय जुबान पर राम नाम हावी रहता था.घर हो या स्कूल, हर जगह राम धुन से वे भक्ति की गंगा प्रवाहित कर देते थे.उनकी दिनचर्या भी बेहद व्यवस्थित थी.सूर्योदय से पहले उठ कर स्नान के बाद प्रतिदिन वे मंदिर पहुँच जाते थे.संध्याकालीन आरती के समय भी वे बराबर उपस्थित रहते थे.दोनों वक़्त पूजा आरती के बाद ही वे घर भोजन करने जाते थे.घर में भी सुबह शाम जब माता राजबाई पूजा करने बैठती थीं,तब जलाराम भी दोनों हाथ जोड़ पीछे खड़े होकर प्रार्थना करते थे.इस तरह एक आदर्श भक्त, सेवाभावी पुत्र और विद्यार्थी बतौर उनकी किशोरावस्था बीतने लगी.
जलाराम रघुवंशी लोहाना क्षत्रिय थे.जब वे १४ साल के हुए, तब हिन्दू धर्मं के अनुसार उनका यज्ञोपवित (जनेऊ)
संस्कार हुआ.यह विधि बड़े भाई बोधा के विवाह के समय सम्पन्न हुई थी.इसी दौरान जलाराम की शालेय शिक्षा
पूरी हुई थी.उस समय वीरपुर गाँव में हाई स्कूल और कॉलेज न होने की वजह से वे आगे की शिक्षा पूरी नहीं कर सके.अब वे पिताश्री की दुकानदारी में सहायता करने लगे थे.इसके बावजूद उनकी प्रभुभक्ति और सेवा कार्य में कोई
अंतर नहीं आया.गाँव में किसी के यहाँ भी भजन कीर्तन हो तो वे तत्काल पहुँच जाते थे.संत महात्मा आते तो उनकी सेवा में जुट जाते.कोई भिक्षुक मिलता तो पहले उसे भोजन कराते, खुद बाद में खाते.
इसी दौरान जलाराम की सगाई की चर्चा चली.पिताश्री प्रधान ठक्कर का परिवार आसपास के इलाके में प्रतिष्ठित
माना जाता था.जरूरत के वक़्त लोग इनसे सलाह मशविरा किया करते थे.रिश्तेदारी जोड़ने के लिए कई परिवार लालायित थे.आटकोट गाँव के निवासी प्रागजी सोमैया का परिवार भी नामचीन था.इनकी पुत्री वीरबाई भी विवाह
के योग्य हो गई थी.इसलिए उनके माता पिताश्री का चिंतित होना स्वाभाविक था.प्रागजी स्वयं धार्मिक प्रवृत्ति के
थे, इसलिए उनके ह्रदय में जलाराम दामाद के रूप में बस गए थे.मौका देख कर एक दिन उन्होंने प्रधान ठक्कर के
घर जलाराम से वीरबाई के विवाह का प्रस्ताव भेजा.रिश्ता अच्छा था, इसलिए सहर्ष स्वीकार कर लिया गया.जलाराम की सगाई की बात भी तय हो गई.उस जमाने में अभिभावक अपने बच्चों से रिश्ते के लिए सहमति
लेना जरूरी नहीं समझते थे.जलाराम के मामले में भी ऐसा ही हुआ.आखिरकार लोहाना रीतिरिवाज के अनुसार
जलाराम की सगाई कर दी गई.
सगाई होते ही जलाराम बैचेन रहने लगे.गृहस्थ सांसारिक जीवन के प्रति उनकी कोई रुचि नहीं थी.वे इसे जी का जंजाल समझते थे.सारा जीवन वे केवल प्रभुभक्ति में ही बिताने के इच्छुक थे.एक दिन दुखी होकर उन्होंने पिताश्री
से कहा-बापूजी, आपने मुझे ससार के इस जंजाल में क्यों उलझा दिया? मैं तो प्रभु माया में आसक्त हूँ,संसार की
छाया से दूर रहना चाहता हूँ.जलाराम की मनोव्यथा उन्होंने शांत मन से सुनी.हालांकि पुत्र की प्रभुभक्ति के मद्देनजर इसकी आशंका उन्हें पहले से ही थी.उन्होंने जलाराम को समझाने का पूरा प्रयास किया.पिताश्री के दबाववश वे मनमनोस कर रह गए.वे हर पल उदास रहने लगे. चाचा वालजी भतीजे जलाराम की भक्तिभावना से
अनभिज्ञ न थे.उसके अंतर्द्वंद को वे भलीभांति समझ रहे थे.गृहस्थ जीवन कैसे निभाउंगा? यह प्रश्न जलाराम को
परेशान कर रहा था.लेकिन चाचा वालजी ने जलाराम को सुझाव देते हुए कहा- सब काम करो, किन्तु हृदय में भगवान को बसा कर रखो.माता, पिताश्री, पत्नी, संतान सबको साथ लेकर रहो और उनकी सेवा करो. बेझिझक गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करो, इसे भी प्रभुभक्ति की तरह मानो. गृहस्थ जीवन तुम्हारी राम भक्ति और सेवा कार्य में कहीं बाधा नहीं पहुंचाएगा. चाचा ने भतीजे को विस्तार से गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियों और महत्व के बारे में  समझाया.ठीक है,जैसी प्रभु राम की इच्छा,यह कहकर जलाराम ने अपने मन को दिलासा देकर विवाह
के लिए सहमत हो गए.जलाराम की स्वीकृति पाते ही परिवार वाले प्रसन्न हो गए.फिर जलाराम भी पहले की तरह
अपने कार्य में व्यस्त हो गए.समय गुजरता गया.आखिरकार १६ वर्ष की उम्र में जलाराम का विवाह आटकोट निवासी प्रागजी सोमैया की पुत्री वीरबाई के साथ धूमधाम से संपन्न हुआ.    
                          
                                                           
              

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