रविवार, 27 नवंबर 2011

Jalaram bapaa kee jeewan-kathaa ( 13 )

उधारी चुकाते समय चूहे को गवाह बनाया : दरजी हीरजी द्वारा भक्त जलाराम के नाम की रखी मन्नत फलने की खबर न केवल वीरपुर गाँव बल्कि आसपास के गाँव में भी प्रचारित हो गयी थी.अब श्रद्धालुजन उन्हें अत्याधिक आदर, श्रद्धा भाव से भक्त जलाराम बापा के नाम से संबोधित करने लगे थे. संकट के समय श्रद्धालु जनों द्वारा जलाराम बापा को याद कर उनके नाम की मन्नत रखने का सिलसिला शुरू हो गया. किसी श्रद्धालु की कोई कीमती वस्तु यदि गुम हो जाती, तो उसके द्वारा वस्तु वापस मिलने के लिए मन्नत रखी जाती.तो कई लोग छोटी बड़ी तकलीफ दूर होने की मन्नत रखने लगे. कुछ बीमार जन अपने असाध्य रोग के खात्मे की मन्नत रखने लगे.और तो और निःसंतान दंपती भी संतान प्राप्ति के लिए मन्नत रखने लगे. प्रभु के चमत्कार स्वरुप जलाराम बापा को याद कर श्रद्धालुओं द्वारा रखी जाने वाली सभी प्रकार की मन्नतें फलने लगी. मन्नत पूरी होने के फलस्वरूप सम्बंधित श्रद्धालु जन जलाराम बापा के सदाव्रत-अन्नदान अभियान के लिए भेंट बतौर अनाज अथवा नकद राशि प्रदान करने लगे. धीरे धीरे जलाराम बापा के अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी.
उधर, जलाराम बापा अपने अनुयायियों और श्रद्धालुओं द्वारा रखी जाने वाली तमाम मन्नतों से अनभिज्ञ रहते. उनके यहाँ जब वे लोग भेंट देने आते तब उन्हें सारी बातें पता लगती. मन्नत पूरी होने का आभार और धन्यवाद स्वीकार करने में वे सकुचाते थे. उन सभी को वे यही कहते-"मन्नत पूरी हो जाने के लिए आप लोग मुझे नहीं, बल्कि प्रभु श्रीराम को धन्यवाद दीजिये और उन्हीं का आभार मानिए. मैं तो एक तुच्छ सेवक भक्त हूँ".
अब सदाव्रत-अन्नदान के दौरान बेहद भीड़ होने लगी थी. जलाराम बापा इस विकट स्थिति से कतई विचलित न थे. उन्होंने सब कुछ प्रभु की मर्जी पर छोड़ दिया था. उन्हें पूरा विश्वाश था अगर कोई रूकावट आयेगी भी तो प्रभु श्रीराम क्षण भर में उसे स्वयं दूर कर देंगे.
बढ़ती भीड़ को ध्यान में रखते हुए जलाराम बापा ने अपने सिद्धांतों को थोड़ा लचीला बना दिया था. पहले वे सदाव्रत-अन्नदान के लिए किसी से नकद या बाजार से अनाज उधार में लेने के पक्षधर नहीं थे.लेकिन दुखियों और भूखेजनों की खातिर उन्हें समझौता करना पडा. इस दौरान बाजार में उनकी साख बढ़ चुकी थी, इसलिए कोई दिक्कत भी नहीं हुई. धन की जरूरत होने पर वे गाँव के साहूकार से रकम उधार में ले आते, या बाजार में पंसारी से उधार में अनाज ले आते. फिर जब किसी श्रद्धालु की मन्नत फलती तब उसके द्वारा दी गयी भेंट की रकम से वे पुराना उधार चुकता कर देते. किन्तु एक दिन अप्रत्याशित रूप से जलाराम बापा के लिए अपमान जनक स्थिति निर्मित हो गयी. वीरपुर गाँव के एक खोजा दुकानदार परभू रवजी की उधारी का चुकारा बहुत दिनों से हुआ नहीं था.
जलाराम बापा द्वारा उधार में लाये जाने वाले अनाज की बकाया रकम बढ़ते ही जा रही थी. न जाने क्यों एकाएक उस खोजा दुकानदार के मन में जलाराम बापा के प्रति अविश्वाश की भावना जागृत हो गयी. उसने मन ही मन सोचा- "ऐसे भगत का क्या भरोसा, अगर कल यह अपना बोरिया बिस्तर लपेट कर, झोला झंडा उठाकर गाँव से
रफूचक्कर हो गया तो मैं लुट जाउंगा". फिर वह अपना धैर्य और आपा खोते हुए तुरंत जलाराम बापा के घर पहुँच गया. उस वक़्त आँगन में साधुजनों की एक मंडली भोजन के उपरान्त विश्राम कर रही थी.जबकि जलाराम बापा
सबसे निवृत्त होकर घर के भीतर भोजन ग्रहण कर रहे थे. साधुओं को देखते ही खोजा दुकानदार परभू रवजी ने तैश
में आकर पूछा- "कहाँ हैं तुम्हारा भगत जला?, बुलाओ उसको. न जाने कब उधारी चुकाएगा?". साधुजनों को कुछ समझ में न आया. विस्मय से वे एक दूसरे का मुंह ताकने लगे. जवाब मिलता न देख परभू रवजी तमतमाते हुए
हुए सीधे घर के अन्दर चला आया. जलाराम बापा को भोजन करता देख उसने आवेश में कहा- "रूक जाओ भगत.
खबरदार, तुमने एक कौर भी मुंह में डाला. पहले मेरा उधार चुकता करो, तुमको कसम है राम की. उधार ले लेते हो,
चुकाने की चिंता नहीं". यह कटुवचन सुनकर जलाराम बापा श्रीराम... श्रीराम ... बोलते हुए खाना अधूरा छोड़कर खड़े हो गए. पत्नी वीरबाई भी यह अपमानजनक स्थिति देख कर भौचक्की रह गयी. तब तक वहां साधुजन और अनुयायी भी पहुँच गए. परभू रवजी के व्यवहार से सभी दुखी और अचंभित थे. क्षण भर बाद जलाराम बापा हाथ
धोकर आये. उन्होंने शांत चित्त होकर पूछा- "सेठ जी, गुस्सा मत करें. आपके उधार को चुकाने जितनी रकम इस समय मेरे पास नहीं है. प्रबंध होते ही शीघ्र चुका दूंगा". उस खोजा दुकानदार का क्रोध फिर भी शांत न हुआ. उसने
क्रोधित होकर कहा- "गुस्सा नहीं करू तो क्या तुम्हारी आरती उतारूं? जब उधार चुकता करने की ताकत नहीं है तो
अनाज उधार में लिए क्यों? अब ले लिए हो तो देने का नाम नहीं ले रहे हो. ऐसे उधार का सदाव्रत चलाने का क्या मतलब?".जलाराम बापा ने उसे भरोसा दिलाते हुए कहा- "सेठ जी, जब इतने दिन कृपा की तो कुछ दिन और कर
दीजिये. विश्वाश रखिये शीघ्र ही आपकी पाई पाई चुका दूंगा". परभू रवजी ने अपनी बात पर अडिग रहते हुए कहा- "
कैसी कृपा? मैं तो धंधा करने बैठा हूँ, सेवा करने नहीं. अब मैं अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकता. मुझे आज ही अपनी रकम चाहिए, शाम तक दुकान में दे जाना".फिर वह अपनी कमीज का कालर पीछे की तरफ करते हुए रौब से उलटे पाँव लौट गया.
जलाराम बापा चिंतित हो गए. थोड़ी देर बाद कुछ विचार आते ही उन्होंने पत्नी वीरबाई से कहा- "मैं कहीं से रकम का प्रबंध कर सेठ जी को दे आता हूँ". फिर सर पर पगड़ी बाँध कर वे बाजार की ओर चल पड़े. आज का दिन शायद
उनके लिए प्रतिकूल था. बाजार में जब उन्होंने अपने जान पहचान के कुछ व्यापारियों से रकम उधार माँगी तो सबने ना नुकूर करते हुए हाँथ खड़े कर दिए. चालाकी भरे शब्दों में उन्होंने कहा- "आप पांच मिनट देर से आये, बाजू के गाँव का थोक व्यापारी अपना बकाया लेकर गया है. अन्यथा, मैं आपको निराश नहीं करता". जलाराम बापा सोच में डूब गए. पत्नी वीरबाई के पास अब कोई गहने भी नहीं बचे थे,जिसे बेच कर उधारी चुकता हो.फिर
एकाएक उन्हें वीरपुर के राजा की याद आई. वे तेजी से राजा की हवेली की तरफ चल पड़े.
भरी दोपहरी का समय था. लू चल रही थी. ऐसे वक़्त पसीने से तरबतर भक्त जलाराम को आया देख हवेली के पहरेदार ने प्रणाम करते हुए पूछा- "भगत, राम राम.आपने यहाँ आने की कैसे तकलीफ की?" जलाराम बापा ने कहा- "दरबान भाई, मुझे राजा साहेब से मिलना है, उन तक मेरा सन्देश पहुंचा दीजिये".यह जान कर पहरेदार
अन्दर गया और राजा का अभिवादन करते हुए उनको सन्देश दिया- "महाराजश्री, आपसे मिलने भगत जलाराम आये हैं". सुनकर राजा चौंक उठे. वे बोले- "क्या ...भगत जलाराम आये हैं, अवश्य कोई गंभीर बात होगी".इतना
कहकर वे स्वयं जलाराम बापा का स्वागत करने दौड़ पड़े.जलाराम बापा की प्रसिद्धि राजा तक पहुँच चुकी थी. उनके
प्रत्येक सेवा कार्यों की जानकारी थी. वे स्वयं इस बीच जलाराम बापा से मिलने की सोच रहे थे. लेकिन आज खुद
जलाराम बापा के पधारने से वे प्रसन्न हो गए. हवेली के द्वार पर आकर राजा ने जलाराम बापा को प्रणाम किया. उनका स्वागत करते हुए राजा ने कहा- "भक्तराज, पधारिये.आज आपके आगमन से यह हवेली पवित्र हो गयी. हमारा सौभाग्य है जो आज आपके दर्शन हुए". जलाराम बापा ने हाथ जोड़ कर विनम्रता से कहा- "राजा साहेब, आप से कुछ सहायता चाहिए". राजा ने आथित्य भाव से कहा- "आप जो काम कहेंगे, वह तत्काल पूरा होगा, किन्तु सबसे पहले आप अन्दर चलिए, स्वल्पाहार लीजिये, फिर आराम से सब बताइयेगा". जलाराम बापा ने कहा- "राजा साहेब, क्षमा करें, आज यह सब संभव नहीं है, जब तक मैं खोजा दुकानदार परभू रवजी का उधार चुकता नहीं कर दूंगा तब तक अन्न का एक दाना भी ग्रहण नहीं करूंगा, क्योंकि उसने मुझे प्रभु श्रीराम की कसम दी है". यह सुनकर राजा को उस दुकानदार के प्रति बेहद क्रोध आया, उसे दण्डित करने का मन हुआ , लेकिन भक्तराज इससे सहमत न थे.फिर राजा ने जलाराम बापा से पूछा- "उसे कितनी रकम देनी है?" जलाराम बापा ने मासूमियत से कहा- "यह तो ज्ञात नहीं, ऐसा करिए आप मुझे डेढ़ सौ सिक्के दे दीजिये, मुझे लगता है इससे अधिक उनका बकाया नहीं होगा".राजा ने तुरंत वहीं खजांची को बुलाया.जलाराम बापा को डेढ़ सौ सिक्के देते हुए उन्होंने कहा- "भक्तराज, इसे सहायता नहीं समझना और न ही लौटाना, इसे सदाव्रत के लिए मेरी तरफ से भेंट मानना". जलाराम बापा ने राजा का आभार जताते हुए कहा- "जो आज्ञा राजा साहेब, प्रभु आपका कल्याण करें". इतना कहकर जलाराम बापा ने विदाई ली.
तेजी से कदम बढाते हुए जलाराम बापा परभू रवजी की दुकान पहुंचे. उन्हें शाम ढलने से पहले ही आया देख वह खोजा दुकानदार चौंका.जलाराम बापा ने आते ही उससे कहा- "लीजिये सेठ जी आपके सिक्के, ठीक से गिन लीजिये, बाकी जो बचे, लौटा दीजिये". परभू रवजी हतप्रभ रह गया. उसने कुटिलता पूर्वक कहा- "भगत, सवा सौ सिक्के निकलते हैं. वैसे देने की इतनी भी क्या जल्दी थी".जलाराम बापा ने कहा- " ठीक है, विलम्ब से बकाया चुकाने के लिए मैं क्षमा चाहता हूँ". परभू रवजी ने उन्हें तंग करना नहीं छोड़ा. उसने कहा- "भगत, उधारी चुका रहे हो यह तो अच्छी बात है, किन्तु  इसका गवाह भी तो कोई होना चाहिए. किसी को मैं यह कहने का अवसर नहीं देना चाहता मैंने भगत से अधिक सिक्के लिए हैं". जलाराम बापा ने असहमत होकर कहा- "मुझे किसी गवाह की आवश्यकता नहीं है, मेरा साक्षी तो प्रभु है".परभू रवजी ने टोकते हुए कहा- "ऐसे कैसे चलेगा, कोई गवाह होना चाहिए". इसी दौरान जलाराम बापा को उसकी दुकान में एक चूहा दिखा. उन्होंने तपाक से कहा- "सेठ जी, अब मुझे किसी को बुलाने की आवश्यकता नहीं है, यह चूहा ही आपके और मेरे बीच लेनदेन का गवाह है, क्योंकि यह गणेश भगवान् का वाहन है". उस खोजा दुकानदार ने ठंडी सांस लेकर कहा- "ठीक है, जैसी आपकी इच्छा". इतना कहने के बाद उसने पच्चीस सिक्के जलाराम बापा को लौटा दिए. फिर जलाराम बापा अपने घर की ओर रवाना हो गए.
घर में पत्नी वीरबाई सहित कुछ अनुयायी जलाराम बापा की आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे थे. उन्हें हर्षित भाव से आया देख सभी प्रसन्न हो गए. जलाराम बापा ने हाथ पैर धोकर पत्नी से भोजन परोसने कहा. जलाराम बापा ने कहा- "प्रभु ने आज मेरी लाज रख ली. अब मैं चैन से दो रोटी खा सकता हूँ". उन्होंने फिर इत्मीनान से भोजन किया.
यह सच ही कहा गया है प्रभु भक्त को अनावश्यक परेशान करने वाला खुद भी किसी न किसी रूप से परेशान होता है. ऊपर वाले की लाठी पड़ती ही है. जलाराम बापा को नाहक तंग करने वाले उस खोजा दुकानदार परभू रवजी को
भी ऊपर वाले ने सबक सिखाया. दरअसल हुआ यूं, रात को परभू रवजी दुकान बंद करने से पहले दीपक जलाकर घर पहुंचा था.अभी वह भोजन करने बैठा ही था, बाजार का एक दुकानदार हाँफते हुए आया और सूचना देते हुए कहा-  "जल्दी चलो, आपकी दुकान में आग लग गयी है'. परभू हीरजी हडबडा कर खडा हुआ. खाने की थाली छोड़ कर दौड़ पडा अपनी दूकान की तरफ.यह भी एक अजीब संयोग रहा. जलाराम बापा को भी इसने इसी तरह भोजन छोड़ने को विवश कर दिया था. पसीने से लथपथ परभू रवजी जब अपनी दुकान के नजदीक पहुंचा तो देखा आग भड़की हुई थी. आसपास के कुछ लोग बाल्टी में पानी भरकर, तो कुछ लोग रेती फेंक कर आग बुझाने का प्रयास कर रहे थे. परभू रवजी रूआंसा हो गया. उसे आत्मग्लानि हुई. सहयोगियों से उसने रोते हुए कहा- "भाइयों, आप लोग आग बुझाने का प्रयत्न मत करिए, यह मेरी करतूतों का परिणाम है. मैंने भगत जलाराम का मन दुखाया है, मुझे सजा मिलनी ही थी". उसके प्रायश्चित करते ही भड़की आग एकाएक बुझ गयी. परभू रवजी ने देखा दुकान के बीचोबीच दीपक की जलती हुई बाती रखी थी, शायद उसी गवाह चूहे ने इसे अंजाम दिया था. दुकान का आधा अनाज जल चुका था, जबकि आधा अनाज पूरी तरह आश्चर्यजनक तरीके से सुरक्षित था. यह नजारा देख कर परभू रवजी और आसपास के लोग दंग रह गए.उधर जलाराम बापा के आँगन में भजन कीर्तन चरमोत्कर्ष पर था. ( जारी ... )          
                          
                
                                          
                              
                 

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